Saturday, December 12, 2009
दुनिया के सभी पिता अपनी बेटियों से सबसे ज्यादा प्यार करते हैं
अपनी बेटियों से
सबसे ज्यादा प्यार करते हैं
हालांकि इनमें से ज्यादातर
इसे शब्दों में बयान नहीं करते।
बेटी, मां की तरह होती है
पिता को पहचानती है
बेटी जानती है
न बोलकर भी
कुछ कहना चाहते हैं पिता।
बेटी हमेशा जान लेती है
उन शब्दों के अर्थ
जो कहे नहीं गए
भाव-भंगिमाओं से पहचान लेती है
पिता की विपन्नता और
अपनी इच्छाओं को दफ़न कर देती है।
बेटी, कभी अहसास नहीं होने देती
अपने दुखों का
हमेशा ख़ुश दिखती है
हालांकि पिता जानता है
भीतर से कितनी दुखी है
कभी फोन करती है
और चुपचाप सुनती है सांसे
बेटी, आते ही पूछती है
तबियत कैसी है
और पिता हंसते हुए कहता है
तुझे देखकर ठीक हूं
हालांकि दवाइयों से
कुछ आराम नहीं था।
- रविंदर बतरा
(दैनिक भास्कर जालंधर से साभार)
दुनिया के सभी पिता अपनी बेटियों से सबसे ज्यादा प्यार करते हैं
अपनी बेटियों से
सबसे ज्यादा प्यार करते हैं
हालांकि इनमें से ज्यादातर
इसे शब्दों में बयान नहीं करते।
बेटी, मां की तरह होती है
पिता को पहचानती है
बेटी जानती है
न बोलकर भी
कुछ कहना चाहते हैं पिता।
बेटी हमेशा जान लेती है
उन शब्दों के अर्थ
जो कहे नहीं गए
भाव-भंगिमाओं से पहचान लेती है
पिता की विपन्नता और
अपनी इच्छाओं को दफ़न कर देती है।
बेटी, कभी अहसास नहीं होने देती
अपने दुखों का
हमेशा ख़ुश दिखती है
हालांकि पिता जानता है
भीतर से कितनी दुखी है
कभी फोन करती है
और चुपचाप सुनती है सांसे
बेटी, आते ही पूछती है
तबियत कैसी है
और पिता हंसते हुए कहता है
तुझे देखकर ठीक हूं
हालांकि दवाइयों से
कुछ आराम नहीं था।
- रविंदर बतरा
(दैनिक भास्कर जालंधर से साभार)
Friday, December 4, 2009
मछली जल की रानी 'थी'!
ग्लोबल वार्मिग के चलते पृथ्वी का समुद्रीय क्षेत्र तो लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन उसमें रहने वाले जलचरों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। हम बात कर रहे हैं समुद्रों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ खास किस्म की जलीय जीवों की जिनकी कई प्रजातियां इस समय विलुप्तता के कगार पर पहुंच गई हैं। यदि इसी रफ्तार से सागरीय प्रदूषण और इनका दोहन जारी रहा तो कई जलीय जीवों को सिर्फ एक्वेयरियमों में ही देखा जा सकेगा या फिर किताबों में उनके बारे में पढ़ा जाएगा।
अभी तक तो बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। जिस रफ्तार से उनकी संख्या कम हो रही है और जिस तरह मनुष्य उनका शिकार कर रहे हैं, उससे आने वाली पीढ़ी के लिए नई कविता गढ़ी जाएगी- मछली जली की थी रानी, जीवन उसका था पानी..।
दुनिया की काफी बड़ी आबादी का जीवन समुद्रों पर ही आधारित हैं। इस आबादी में मछुआरों से लेकर बड़े-बड़े उद्योग भी शामिल हैं। इन सभी के भरण-पोषण का मुख्य जरिया समद्र धीरे-धीरे कचराघर में तब्दील होता जा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों से लेकर घरेलू कचरे तक इसमें फेंके जा रहे हंै। इस वजह से मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची हैं। मसलन अटलांटिक सलोमन नाम की मछली अगले कुछ वर्षो में मिलना बंद हो जाएगी। इसकी वजह है समुद्रीय प्रदूषण और अत्यधिक मात्रा में इनका शिकार।
यदि भारत के समुद्रीय क्षेत्रों की बात करें तो पश्चिमी समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं और हमारे देश में मछलियों के शिकार को लेकर किसी भी तरह के कानून का पालन नहीं किया जाता है। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने यहां शिकार का मौसम तय कर दिया है। उस तय समय के बाद पूरे वर्ष तक कोई भी शिकार नहीं कर सकता है। इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। जबकि हमारे देश में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल के तट तक मछलियों का बेतहाशा शिकार किया जाता है। इस वजह से क्षेत्र में पाई जाने वाली ईल, धादा और करकरा मछलियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। इस कमी का एक और कारण प्रदूषण भी है।
एक दशक पहले तक इस क्षेत्र से शिकार के मौसम में लगभग 15 टन मछलियां पकड़ी जाती थीं, जो अब घटकर मात्र दो हजार टन रह गई है। इतना ही नहीं शिकार का मौसम तय न होने की वजह से पकड़ी गई मछलियों में अवयस्क मछलियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इनकी संख्या में कमी का एक कारण यह भी है। पिछली शताब्दी में समुद्री दुघर्टनाओं में भी खासा इजाफा हुआ है। इनमें से ज्यादातर जहाज ऐसे होते हैं जिनमें तेल लदा रहता है और इस तेल की परत समुद्री पानी की ऊपरी सतह पर फैल जाने से पानी में ऑक्सीजन का प्रवाह खत्म हो जाता है। नतीजा मछलियों समेत कई जलचरों की मृत्यु। राजधानी दिल्ली के यमुना किनारे के कई हिस्सों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मरी हुई मछलियां निकाली जाती हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारतीय केंद्रीय मत्स्य संस्थान भी इसके लिए कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके तहत अब से मछलियों के शिकार का मौसम और समय तय किया जाएगा और प्रदूषण कम करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। ऑस्ट्रेलिया ने इसको गंभीरता से लेते हुए उन मछलियों के शिकार पर रोक लगा दी है जिनकी संख्या कम हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक शोध के मुताबिक यदि इसी रफ्तार से समुद्री जीवों का दोहन होता रहा और प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सन् 2048 तक दुनिया के सभी महासागरों से मछलियां विलुप्त हो जाएंगी।
व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा
हाल ही में अंतरराष्ट्रीय व्हेल संस्थान ने व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा लिया है। 80 देशों के इस संगठन ने तय किया है कि भले ही शिकार पर से रोक हटा ली गई हो पर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रहेगी। इन मछलियों के शिकार पर पिछले 12 वर्षो से रोक लगी हुई थी। आईसलैंड, जापान और नॉर्वे शिकार से प्रतिबंध हटाने के सबसे बड़े पक्षधर थे।
जापान में हर वर्ष एक हजार व्हेल मछलियों का शिकार किया जाता है।
चिली ने अपने 2700 मील के समुद्री क्षेत्र को सेंचुरी घोषित कर दिया है। इस क्षेत्र में मछलियों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।
व्हेल भी खतरे में
फिन व्हेल - उत्तरी अटलांटिक के समुद्री क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मछली की आबादी लगभग 23000 रह गई है, जो खतरे का सूचक है।
बो-हेड व्हेल - बेरिंग सागर में पाई जाने वाली यह मछली की संख्या महज दस हजार रह गई है, जो कि विलुप्तता का संकेत है।
हम्पबैक व्हेल - दक्षिणी हेमिस्फेयर में पाई जाने वाली इस मछली की संख्या सिमटकर लगभग चालीस हजार रह गई है।
अटलांटिक सेलमन - पिछले बीस वर्षो में इतना ज्यादा शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या आधी रह गई है।
स्वोर्डफिश - नुकीली नाक वाली इन मछलियों की घटती संख्या का प्रमुख कारण इनका असमय शिकार है।
प्लाइस - अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या भी विलुप्ती के कगार पर पहुंच गई है।
मोंकफिश - इन मछलियों की वयस्कता उम्र काफी ज्यादा है और असमय शिकार की वजह से इनकी संख्या में कमी आ रही है।
दक्षिणी ब्लूफिन टूना - अत्यधिक शिकार की वजह से कई देशों ने इनके शिकार पर रोक लगा दी है।
शार्क व्हेल - दुनिया के सभी हिस्सों में पाई जाने वाली व्हेल शार्क की प्रजातियां सबसे अधिक खतरे में हैं।
बरकुडा - लगभग 6 फीट लंबी इस मछली की संख्या में भारी कमी पाई गई है।
सीयर फीस - यह मछली तेजी से तैरने और अपने शिकारी से लड़ने के लिए जानी जाती है। कई तरह के हुक्स और जालों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर इनका शिकार होने की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है।
मछली जल की रानी 'थी'!
ग्लोबल वार्मिग के चलते पृथ्वी का समुद्रीय क्षेत्र तो लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन उसमें रहने वाले जलचरों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। हम बात कर रहे हैं समुद्रों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ खास किस्म की जलीय जीवों की जिनकी कई प्रजातियां इस समय विलुप्तता के कगार पर पहुंच गई हैं। यदि इसी रफ्तार से सागरीय प्रदूषण और इनका दोहन जारी रहा तो कई जलीय जीवों को सिर्फ एक्वेयरियमों में ही देखा जा सकेगा या फिर किताबों में उनके बारे में पढ़ा जाएगा।
अभी तक तो बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। जिस रफ्तार से उनकी संख्या कम हो रही है और जिस तरह मनुष्य उनका शिकार कर रहे हैं, उससे आने वाली पीढ़ी के लिए नई कविता गढ़ी जाएगी- मछली जली की थी रानी, जीवन उसका था पानी..।
दुनिया की काफी बड़ी आबादी का जीवन समुद्रों पर ही आधारित हैं। इस आबादी में मछुआरों से लेकर बड़े-बड़े उद्योग भी शामिल हैं। इन सभी के भरण-पोषण का मुख्य जरिया समद्र धीरे-धीरे कचराघर में तब्दील होता जा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों से लेकर घरेलू कचरे तक इसमें फेंके जा रहे हंै। इस वजह से मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची हैं। मसलन अटलांटिक सलोमन नाम की मछली अगले कुछ वर्षो में मिलना बंद हो जाएगी। इसकी वजह है समुद्रीय प्रदूषण और अत्यधिक मात्रा में इनका शिकार।
यदि भारत के समुद्रीय क्षेत्रों की बात करें तो पश्चिमी समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं और हमारे देश में मछलियों के शिकार को लेकर किसी भी तरह के कानून का पालन नहीं किया जाता है। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने यहां शिकार का मौसम तय कर दिया है। उस तय समय के बाद पूरे वर्ष तक कोई भी शिकार नहीं कर सकता है। इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। जबकि हमारे देश में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल के तट तक मछलियों का बेतहाशा शिकार किया जाता है। इस वजह से क्षेत्र में पाई जाने वाली ईल, धादा और करकरा मछलियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। इस कमी का एक और कारण प्रदूषण भी है।
एक दशक पहले तक इस क्षेत्र से शिकार के मौसम में लगभग 15 टन मछलियां पकड़ी जाती थीं, जो अब घटकर मात्र दो हजार टन रह गई है। इतना ही नहीं शिकार का मौसम तय न होने की वजह से पकड़ी गई मछलियों में अवयस्क मछलियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इनकी संख्या में कमी का एक कारण यह भी है। पिछली शताब्दी में समुद्री दुघर्टनाओं में भी खासा इजाफा हुआ है। इनमें से ज्यादातर जहाज ऐसे होते हैं जिनमें तेल लदा रहता है और इस तेल की परत समुद्री पानी की ऊपरी सतह पर फैल जाने से पानी में ऑक्सीजन का प्रवाह खत्म हो जाता है। नतीजा मछलियों समेत कई जलचरों की मृत्यु। राजधानी दिल्ली के यमुना किनारे के कई हिस्सों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मरी हुई मछलियां निकाली जाती हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारतीय केंद्रीय मत्स्य संस्थान भी इसके लिए कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके तहत अब से मछलियों के शिकार का मौसम और समय तय किया जाएगा और प्रदूषण कम करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। ऑस्ट्रेलिया ने इसको गंभीरता से लेते हुए उन मछलियों के शिकार पर रोक लगा दी है जिनकी संख्या कम हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक शोध के मुताबिक यदि इसी रफ्तार से समुद्री जीवों का दोहन होता रहा और प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सन् 2048 तक दुनिया के सभी महासागरों से मछलियां विलुप्त हो जाएंगी।
व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा
हाल ही में अंतरराष्ट्रीय व्हेल संस्थान ने व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा लिया है। 80 देशों के इस संगठन ने तय किया है कि भले ही शिकार पर से रोक हटा ली गई हो पर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रहेगी। इन मछलियों के शिकार पर पिछले 12 वर्षो से रोक लगी हुई थी। आईसलैंड, जापान और नॉर्वे शिकार से प्रतिबंध हटाने के सबसे बड़े पक्षधर थे।
जापान में हर वर्ष एक हजार व्हेल मछलियों का शिकार किया जाता है।
चिली ने अपने 2700 मील के समुद्री क्षेत्र को सेंचुरी घोषित कर दिया है। इस क्षेत्र में मछलियों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।
व्हेल भी खतरे में
फिन व्हेल - उत्तरी अटलांटिक के समुद्री क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मछली की आबादी लगभग 23000 रह गई है, जो खतरे का सूचक है।
बो-हेड व्हेल - बेरिंग सागर में पाई जाने वाली यह मछली की संख्या महज दस हजार रह गई है, जो कि विलुप्तता का संकेत है।
हम्पबैक व्हेल - दक्षिणी हेमिस्फेयर में पाई जाने वाली इस मछली की संख्या सिमटकर लगभग चालीस हजार रह गई है।
अटलांटिक सेलमन - पिछले बीस वर्षो में इतना ज्यादा शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या आधी रह गई है।
स्वोर्डफिश - नुकीली नाक वाली इन मछलियों की घटती संख्या का प्रमुख कारण इनका असमय शिकार है।
प्लाइस - अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या भी विलुप्ती के कगार पर पहुंच गई है।
मोंकफिश - इन मछलियों की वयस्कता उम्र काफी ज्यादा है और असमय शिकार की वजह से इनकी संख्या में कमी आ रही है।
दक्षिणी ब्लूफिन टूना - अत्यधिक शिकार की वजह से कई देशों ने इनके शिकार पर रोक लगा दी है।
शार्क व्हेल - दुनिया के सभी हिस्सों में पाई जाने वाली व्हेल शार्क की प्रजातियां सबसे अधिक खतरे में हैं।
बरकुडा - लगभग 6 फीट लंबी इस मछली की संख्या में भारी कमी पाई गई है।
सीयर फीस - यह मछली तेजी से तैरने और अपने शिकारी से लड़ने के लिए जानी जाती है। कई तरह के हुक्स और जालों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर इनका शिकार होने की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है।
Thursday, December 3, 2009
कौन है भोपाल गैस त्रासदी का जिम्मेदार
हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्ताह में कोई न कोई बड़ी हस्ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।
गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्सक्लूसिव खोजने के चक्कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।
यहां वल्लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्यवस्था से ही काम चल रहा है।
ऐसा ही हाल गैस राहत अस्पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राशि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्यादा बंटी। हास्यापास्पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।
सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।
मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।
यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।
कौन है भोपाल गैस त्रासदी का जिम्मेदार
हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्ताह में कोई न कोई बड़ी हस्ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।
गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्सक्लूसिव खोजने के चक्कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।
यहां वल्लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्यवस्था से ही काम चल रहा है।
ऐसा ही हाल गैस राहत अस्पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राशि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्यादा बंटी। हास्यापास्पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।
सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।
मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।
यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।
Monday, November 30, 2009
विज्ञापन से मीडिया की आय में हर साल इजाफा
यह जानकारी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्नी सीएम जातुया ने सोमवार को राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान दी। उन्होंने बताया कि मीडिया ने विज्ञापनों से 2006 में 165 अरब रुपए की कमाई की तो 2007 में 196 अरब 60 करोड़ की कमाई की और 2008 में करीब 221 अरब 60 करोड़ रुपए की कमाई की।
किसने कितना कमाया:
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: 60 अरब 50 करोड़ (2009)
* 2007 में 71 अरब 10 करोड़
* 2008 में 82 अरब 50 करोड़ रुपए
प्रिंट मीडिया: 84 अरब 90 करोड़ (2009)
* 2007 में 100 अरब 20 करोड़
* 2008 में 108 अरब 40 करोड़ रुपए
रेडियो मीडिया: * 2006 में 6 अरब
* 2007 में 7 अरब 40 करोड़
वेब मीडिया: इंटरनेट को वर्ष 2006 में दो अरब
* 2007 में तीन अरब 90 करोड़ तथा
* 2008 में करीब 6 अरब 20 करोड़ रुपए की कमाई विज्ञापन से की।
विज्ञापन से मीडिया की आय में हर साल इजाफा
यह जानकारी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्नी सीएम जातुया ने सोमवार को राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान दी। उन्होंने बताया कि मीडिया ने विज्ञापनों से 2006 में 165 अरब रुपए की कमाई की तो 2007 में 196 अरब 60 करोड़ की कमाई की और 2008 में करीब 221 अरब 60 करोड़ रुपए की कमाई की।
किसने कितना कमाया:
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया: 60 अरब 50 करोड़ (2009)
* 2007 में 71 अरब 10 करोड़
* 2008 में 82 अरब 50 करोड़ रुपए
प्रिंट मीडिया: 84 अरब 90 करोड़ (2009)
* 2007 में 100 अरब 20 करोड़
* 2008 में 108 अरब 40 करोड़ रुपए
रेडियो मीडिया: * 2006 में 6 अरब
* 2007 में 7 अरब 40 करोड़
वेब मीडिया: इंटरनेट को वर्ष 2006 में दो अरब
* 2007 में तीन अरब 90 करोड़ तथा
* 2008 में करीब 6 अरब 20 करोड़ रुपए की कमाई विज्ञापन से की।
Saturday, September 12, 2009
दिनेश दीनू ने पीपुल्स इंदौर को कहा बाय
- राजस्थान पत्रिका के कोटा संस्करण से ईशान अवस्थी जी ने भी पीपुल्स ज्वाइन कर लिया है। ईशान जी कोटा से पहले पत्रिका समूह के अखबार न्यूज टुडे के इंदौर संस्करण में थे। उनका ट्रांसफर पिछले साल कोटा कर दिया गया था।
- नवदुनिया भोपाल के बिजनेस रिपोर्टर पंकज भारती ने भी पीपुल्स ज्वाइन कर लिया है। नवदुनिया के पहले पंकज भास्कर डॉट कॉम मुंबई में थे।
Wednesday, July 29, 2009
फिर भी कविता लिख लेता हूँ...
फिर भी कविता लिख लेता हूँ...
Thursday, July 23, 2009
साबित हो गया बिहार में जंगलराज
साबित हो गया बिहार में जंगलराज
Monday, July 13, 2009
मुकाती जी बने पत्रिका के मैगजीन हेड
Monday, July 6, 2009
बजट से यूं बनती है एक छन्दमुक्त कविता
वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। ज्ञान की खूंखार चमक चेहरे पर थी। छह सुना लेने की प्रचंड संतुष्टि से आप्लावित दिखाई दे रहे थे।
‘ये लीजिए जनाब, एक और, शीर्षक है अंतर्देशीय-पत्र..’ अंतर्देशीय, तुम और मैं..। पहला पन्ना, भले कर्मो का खाता-बही, दूसरा पन्ना, संसार के भंवर में नय्या फंसी तीसरा पन्ना, पास बुलाता दुष्कर्मो का कोहरा, चौथा पन्ना, लिप्सा-लालसाओं का जाल घना, पांचवां पन्ना,.. इसके पहले वे कुछ बोलते मैंने निवेदन किया,‘अंतर्देशीय में तो चार ही पन्ने..!’‘कविता की आत्मा में तर्क मत बैठाओ’ वे बोले।
मैंने समझ लिया बहस करुंगा तो ‘यातना का कालखंड’ ज्यादा बढ़ जाएगा। बोलने को ही था कि वे फिर बोल पड़े। ‘इसी कविता को लो अंतर्देशीय जैसे क्षुद्र प्रतीक में भी जीवन की सच्चई व्यक्त करने की ताकत है, हम एक दूसरे के इतने छिद्रान्वेषण में लगे रहते हैं कि संसार की मामूली से मामूली चीजों तक से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, इसी से तो मानव की अधोगति हो रही है।’
फिर मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही शुरू हो गए। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ मनुष्य की लाइफ स्टाइल की चेंजिंग पर है, सरलीकृत करते हुए उन्होंने बताया। उन्होंने फिर पढ़ा, ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ इसी क्रम से ये वेदनाएं बढ़ती हैं, उन्होंने इस बार दार्शनिक व्याख्या की। हां, तो दर्द-दुख-दारुण्यआंसू प्रीत-पैसा-पतंग जालिमलोशन-जालिमलोशन-जालिमलोशन, हमने लाईन पूरी की। ‘छी: छी:.. उन्होंने कहा ध्यान मत भटकाओ। पहले चार लाईन पूरी करने दो। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ ‘प्रीत-पैसा-पतंग’ ‘प्रणब बाबू-प्रणब बाबू- प्रणब बाबू’ हें..! मैं गिरते-गिरते बचा। ‘ये कैसी कविता है’ ‘छंदमुक्त-बंधमुक्त-गंधमुक्त’ जीवन में महक फैलाने वाली’-उन्होंने व्याख्या की। ‘ये कैसी कविता है, जो जीवन की दार्शनिकता-सांसारिकता की विवेचना करते-करते वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पर खत्म होती है’- अपने प्रतिवाद को मैंने विस्तार दिया।
‘ये कोई मामूली कविता नहीं हैं, इसमें सार छुपा हुआ है-जीवन सार’ उन्होंने बताया। -‘जीवनसार’..?
-‘हां, जीवनसार.. पहली लाइन में बात है लाइफ स्टाइल चेंजिंग’ को लेकर, दूसरी लाइन बात करती है वेदनाओं के बढ़ते चले जाने की फिर तीसरी लाइन में संसार की निस्सारता के बारे में गूढ़ बात की गई है। चौथी लाइन में जीवन की वास्तविकता की बात कही गई है’ वे फुसफुसाए।
‘क्या वास्तविकता!!’ मैंने उनसे सरल भाषा में विवरण की मांग रख दी। ‘देखो, शेयर मार्केट में पैसा लगाओगे, फिर महंगाई बढ़ेगी। शेयर गिरेंगे, पैसा डूब जाएगा, लाइफ स्टाइल चेंज हो जाएगी, दुख पर दुख मिलने लगेंगे यानि क्रम से वेदनाएं बढ़ेंगी तो संसार तो नश्वर लगेगा ही, बोलो सच है कि नहीं’ उन्होंने और सरलीकृत ढंग से समझाया।
‘फिर इनके पीछे जिम्मेदार कौन हैं हमारे वित्तमंत्रीजी जिनके एक भाषण से सब उलट-पुलट हो जाता है। यहां तक की एक आदमी कवि ह्दय तक हो जाता है।’
‘हां, तो.. फिर?’ ‘फिर क्या मानव को वैराग्य की दिशा में ले जाए-मोक्ष के बारे में सोचने पर विवश करे। उस महान आत्मा से ज्यादा और किसके नाम से आमजन की इस पहली वास्तविक कविता का समापन किया जा सकता है’, उन्होंने बात समेटी।
‘लेकिन गुरु, इतनी महान वास्तविक रचना का आइडिया आपके पास आया कहां से’- मैंने उठते-उठते जानना चाहा।
‘शेयर मार्केट में 5 लाख गंवाने के बाद’ -कहकर वे उठे और बच्चों को दरवाजा छोड़कर बाहर खेलने के आदेश देने में व्यस्त हो गए।
-अनुज खरे
बजट से यूं बनती है एक छन्दमुक्त कविता
वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। ज्ञान की खूंखार चमक चेहरे पर थी। छह सुना लेने की प्रचंड संतुष्टि से आप्लावित दिखाई दे रहे थे।
‘ये लीजिए जनाब, एक और, शीर्षक है अंतर्देशीय-पत्र..’ अंतर्देशीय, तुम और मैं..। पहला पन्ना, भले कर्मो का खाता-बही, दूसरा पन्ना, संसार के भंवर में नय्या फंसी तीसरा पन्ना, पास बुलाता दुष्कर्मो का कोहरा, चौथा पन्ना, लिप्सा-लालसाओं का जाल घना, पांचवां पन्ना,.. इसके पहले वे कुछ बोलते मैंने निवेदन किया,‘अंतर्देशीय में तो चार ही पन्ने..!’‘कविता की आत्मा में तर्क मत बैठाओ’ वे बोले।
मैंने समझ लिया बहस करुंगा तो ‘यातना का कालखंड’ ज्यादा बढ़ जाएगा। बोलने को ही था कि वे फिर बोल पड़े। ‘इसी कविता को लो अंतर्देशीय जैसे क्षुद्र प्रतीक में भी जीवन की सच्चई व्यक्त करने की ताकत है, हम एक दूसरे के इतने छिद्रान्वेषण में लगे रहते हैं कि संसार की मामूली से मामूली चीजों तक से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, इसी से तो मानव की अधोगति हो रही है।’
फिर मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही शुरू हो गए। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ मनुष्य की लाइफ स्टाइल की चेंजिंग पर है, सरलीकृत करते हुए उन्होंने बताया। उन्होंने फिर पढ़ा, ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ इसी क्रम से ये वेदनाएं बढ़ती हैं, उन्होंने इस बार दार्शनिक व्याख्या की। हां, तो दर्द-दुख-दारुण्यआंसू प्रीत-पैसा-पतंग जालिमलोशन-जालिमलोशन-जालिमलोशन, हमने लाईन पूरी की। ‘छी: छी:.. उन्होंने कहा ध्यान मत भटकाओ। पहले चार लाईन पूरी करने दो। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ ‘प्रीत-पैसा-पतंग’ ‘प्रणब बाबू-प्रणब बाबू- प्रणब बाबू’ हें..! मैं गिरते-गिरते बचा। ‘ये कैसी कविता है’ ‘छंदमुक्त-बंधमुक्त-गंधमुक्त’ जीवन में महक फैलाने वाली’-उन्होंने व्याख्या की। ‘ये कैसी कविता है, जो जीवन की दार्शनिकता-सांसारिकता की विवेचना करते-करते वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पर खत्म होती है’- अपने प्रतिवाद को मैंने विस्तार दिया।
‘ये कोई मामूली कविता नहीं हैं, इसमें सार छुपा हुआ है-जीवन सार’ उन्होंने बताया। -‘जीवनसार’..?
-‘हां, जीवनसार.. पहली लाइन में बात है लाइफ स्टाइल चेंजिंग’ को लेकर, दूसरी लाइन बात करती है वेदनाओं के बढ़ते चले जाने की फिर तीसरी लाइन में संसार की निस्सारता के बारे में गूढ़ बात की गई है। चौथी लाइन में जीवन की वास्तविकता की बात कही गई है’ वे फुसफुसाए।
‘क्या वास्तविकता!!’ मैंने उनसे सरल भाषा में विवरण की मांग रख दी। ‘देखो, शेयर मार्केट में पैसा लगाओगे, फिर महंगाई बढ़ेगी। शेयर गिरेंगे, पैसा डूब जाएगा, लाइफ स्टाइल चेंज हो जाएगी, दुख पर दुख मिलने लगेंगे यानि क्रम से वेदनाएं बढ़ेंगी तो संसार तो नश्वर लगेगा ही, बोलो सच है कि नहीं’ उन्होंने और सरलीकृत ढंग से समझाया।
‘फिर इनके पीछे जिम्मेदार कौन हैं हमारे वित्तमंत्रीजी जिनके एक भाषण से सब उलट-पुलट हो जाता है। यहां तक की एक आदमी कवि ह्दय तक हो जाता है।’
‘हां, तो.. फिर?’ ‘फिर क्या मानव को वैराग्य की दिशा में ले जाए-मोक्ष के बारे में सोचने पर विवश करे। उस महान आत्मा से ज्यादा और किसके नाम से आमजन की इस पहली वास्तविक कविता का समापन किया जा सकता है’, उन्होंने बात समेटी।
‘लेकिन गुरु, इतनी महान वास्तविक रचना का आइडिया आपके पास आया कहां से’- मैंने उठते-उठते जानना चाहा।
‘शेयर मार्केट में 5 लाख गंवाने के बाद’ -कहकर वे उठे और बच्चों को दरवाजा छोड़कर बाहर खेलने के आदेश देने में व्यस्त हो गए।
-अनुज खरे
क्या है पुलिस के मायने
O for Obedient =?
L for Loyal =?
I for Intelligent =?
C for Courageous =?
E for Eager to help =?
क्या है पुलिस के मायने
O for Obedient =?
L for Loyal =?
I for Intelligent =?
C for Courageous =?
E for Eager to help =?
Monday, June 29, 2009
क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके?
मेरी प्रायमरी शिक्षा भारत वर्ष के एक छोटे से गांव में हुई। तब करीब 1500 की आबादी वाले हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर समेत तीन मास्टर होते थे और बच्चे थे करीब 200। आसपास के चार गांव के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे। हेडमास्टर सिर्फ कक्षा पांच के बच्चों को पढ़ाते थे और बाकी दोनों मास्टर साहब दो-दो कक्षाओं को पढ़ाते थे। इन मास्टर साहबों की सामाजिक स्थिति भी बताते चलते हैं – हेडमास्टर ब्राह्मण थे, एक मास्टर साहब कायस्थ और एक मास्टर साहब पिछड़े वर्ग से। गांव में 50 फीसदी से ज्यादा पिछड़ा वर्ग, करीब 15 फीसदी मुसलिम, 10 फीसदी दलित और बाकी ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य अगड़ी जातियां।
मैं अपना ही किस्सा आगे बढ़ाता हूं, शायद हमें जवाब तलाशने में मदद मिले। वे 70 के दशक के अंतिम वर्ष थे। इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी और जनता सरकार थी। इमरजेंसी के दौरान का जो मुझे याद है, उसके मुताबिक नसबंदी और दलित (हरिजन) दो ही बातें सुनाई देती थीं। हमारे मास्टर साहबों को भी केस (नसबंदी) लक्ष्य मिले हुए थे। ऊपर से उन्हें डिप्टी साहब (ब्लाक शिक्षा अधिकारी) का लक्ष्य भी पूरा कराना था। वे लोग बात किया करते थे कि केस नहीं पूरे हुए तो नौकरी पर बन आएगी। वे बेचारे इसी में दुबले होते जा रहे थे कि इमरजेंसी हट गई, जनता सरकार आ गई। लोग अपने को इंपावर्ड महसूस करने लगे।
गांव ही नहीं शहरों में भी यही हुआ। सरकारी स्कूल अपने बड़े-बड़े परिसरों में अपनी पुरानी गुणवत्ता की कब्रगाह बनकर रह गए हैं।
निश्चित तौर पर आपके पास भी ऐसे अनुभव और किस्से होंगे जो जमीनी हकीकत को समझने में मददगार हो सकते हैं। तो आइए और शेयर करिए अपने अनुभव-
क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके?
मेरी प्रायमरी शिक्षा भारत वर्ष के एक छोटे से गांव में हुई। तब करीब 1500 की आबादी वाले हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर समेत तीन मास्टर होते थे और बच्चे थे करीब 200। आसपास के चार गांव के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे। हेडमास्टर सिर्फ कक्षा पांच के बच्चों को पढ़ाते थे और बाकी दोनों मास्टर साहब दो-दो कक्षाओं को पढ़ाते थे। इन मास्टर साहबों की सामाजिक स्थिति भी बताते चलते हैं – हेडमास्टर ब्राह्मण थे, एक मास्टर साहब कायस्थ और एक मास्टर साहब पिछड़े वर्ग से। गांव में 50 फीसदी से ज्यादा पिछड़ा वर्ग, करीब 15 फीसदी मुसलिम, 10 फीसदी दलित और बाकी ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य अगड़ी जातियां।
मैं अपना ही किस्सा आगे बढ़ाता हूं, शायद हमें जवाब तलाशने में मदद मिले। वे 70 के दशक के अंतिम वर्ष थे। इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी और जनता सरकार थी। इमरजेंसी के दौरान का जो मुझे याद है, उसके मुताबिक नसबंदी और दलित (हरिजन) दो ही बातें सुनाई देती थीं। हमारे मास्टर साहबों को भी केस (नसबंदी) लक्ष्य मिले हुए थे। ऊपर से उन्हें डिप्टी साहब (ब्लाक शिक्षा अधिकारी) का लक्ष्य भी पूरा कराना था। वे लोग बात किया करते थे कि केस नहीं पूरे हुए तो नौकरी पर बन आएगी। वे बेचारे इसी में दुबले होते जा रहे थे कि इमरजेंसी हट गई, जनता सरकार आ गई। लोग अपने को इंपावर्ड महसूस करने लगे।
गांव ही नहीं शहरों में भी यही हुआ। सरकारी स्कूल अपने बड़े-बड़े परिसरों में अपनी पुरानी गुणवत्ता की कब्रगाह बनकर रह गए हैं।
निश्चित तौर पर आपके पास भी ऐसे अनुभव और किस्से होंगे जो जमीनी हकीकत को समझने में मददगार हो सकते हैं। तो आइए और शेयर करिए अपने अनुभव-
Friday, June 26, 2009
शंका साधिनी पत्नियां करें रियाज तगड़ा
शंका साधिनी पत्नियां करें रियाज तगड़ा
Sunday, June 14, 2009
सृष्टि से पहले सत नहीं था
सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या कहां
किसने ढका था उस पल को
अगम अतल जल भी कहां था
सृष्टि का कौन है कर्ता
कर्ता है वह अकर्ता
ऊंचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
वो था हिरण्यगर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारी भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्ववान
धरती आसमान धारण कर
ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम
हवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी-भरी, स्थापित, स्थिर,
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम
हवि देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर-उधर, नीचे-ऊपर
जगा चुके व एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम
हवि देकर
ऊं! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता, पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बाहु जैसी उसकी सब में सब कर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
और अधिक पढ़ने के लिए क्लिक करें...
सृष्टि से पहले सत नहीं था
सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या कहां
किसने ढका था उस पल को
अगम अतल जल भी कहां था
सृष्टि का कौन है कर्ता
कर्ता है वह अकर्ता
ऊंचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
वो था हिरण्यगर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारी भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्ववान
धरती आसमान धारण कर
ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम
हवि देकर
जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी-भरी, स्थापित, स्थिर,
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम
हवि देकर
गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर-उधर, नीचे-ऊपर
जगा चुके व एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम
हवि देकर
ऊं! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता, पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएं बाहु जैसी उसकी सब में सब कर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
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Friday, April 3, 2009
भास्कर के ग्रुप एडिटर नवाजे जाएंगे राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवॉर्ड से
काकाजी पुण्य स्मरण समारोह समिति के संयोजक ओमप्रकाश खत्री, डॉ. प्रकाश रघुवंशी ने बताया कि कार्यक्रम की शुरुआत शिप्रा तट पर जलघर बनाकर की गई थी। इस अवसर पर आयोजित सांस्कृतिक संध्या में गायक ज्वलंत शर्मा का गायन व उदीयमान नृत्यांगना प्रतिभा रघुवंशी व दल वंदना और समूह नृत्य प्रस्तुत करेगा। आयोजन समिति के सदस्य डॉ. बमशंकर जोशी व डॉ. शैलेंद्र पाराशर ने समारोह में उपस्थित होने का अनुरोध किया है।
Thursday, April 2, 2009
लोक पर हावी चुनावी तंत्र
आप इस मुद्दे क्या विचार रखते हैं, हमें जरुर बताएं।
इन चुनावों के बाद नए-नए गठबंधन उभरेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।
इस चुनावी महासमर की आखिरी तस्वीर में अभी से ही आम वोटर हाशिए पर चला गया है। समय के पार खड़ी इन तस्वीरों में लुटियन सिटी के बंगलों के बाहर कैमरों की चकाचौंध है। यहां नेता एक घर से दूसरे घर में दाखिल होते हुए एक गांठ खोलकर दूसरा गठबंधन बना रहे हैं। यहां दलाल राजनेता से बड़ा है, लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत वोटर और उसके वोट से बड़ा है। लोकतंत्र में एक बार तंत्र लोक पर हावी है।
हम सभी की नजर में ये निराशाजनक तस्वीर गठबंधन की कोख से पैदा हुई है, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि राजनीति में गठबंधन अपने आप में गलत या अवसरवादिता का पर्याय है। इतने बड़े लोकतंत्र की राजनीति गठबंधन के सहारे ही चल सकती है। ये गठजोड़ अलग-अलग पार्टियों के एक मोर्चे की शक्ल में हो सकता है या फिर किसी राजनीतिक पार्टी के भीतर भी। आज की राजनीतिक पार्टियां गठजोड़ के इस बुनियादी सच को कबूलना नहीं चाहतीं। वे गठबंधन के लिए जरूरी सम्मान, सोच और लक्ष्य के धरातल पर खड़ी होकर वोटर के बीच नहीं जाना चाहतीं। वे वोटर के फैसले के बाद गठबंधन की ‘सेटिंग’ करना चाहती हैं। अगर हमें सिर्फ चुनावी गणित से आगे लोकतंत्र की चिंता है तो हमें समझना होगा कि आखिर सत्ताधारी यूपीए, एनडीए और तीसरी शक्ति सभी आधे-अधूरे गठबंधन के साथ चुनाव में क्यों कूद रहे हैं।
इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हमें सबसे पहले एक मोटी गिनती करना होगी कि हर गठबंधन ऐसी कितनी सीटों पर लड़ाई लड़ रहा है, जहां उसके जीत तक पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। ये वह सीटें हैं, जहां पिछले लोकसभा चुनावों में उसे जीत हासिल हुई थी या फिर वह दूसरे स्थान पर रहा था। इस लिहाज से 2004 के आम चुनाव में एनडीए ने 434 सीटों पर दांव आजमाया था। इनमें से भाजपा 271 और उसके सहयोगी 163 सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रहे थे, लेकिन इस बार नवीन पटनायक का बीजू जनता दल, जयललिता की एआईएडीएमके और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पीएमके समेत भाजपा के कई बड़े सहयोगियों ने उससे किनारा कर लिया है।
इसके बदले में भाजपा के हाथ में एजीपी, आईएनएलडी और आरएलडी जैसी बहुत छोटी पार्टियां ही आ पाई हैं। इसी का नतीजा है कि एनडीए इस बार ऐसी सिर्फ 356 सीटों पर किस्मत आजमा रहा है, जहां जीत की उम्मीद कर सकता है। यहां भी दिलचस्प है कि भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा 86 सीटों तक सिमट गया है। एनडीए का सिमटता दायरा भारतीय लोकतंत्र की सामाजिक विविधता को स्वीकार न करने का नतीजा है।
हालांकि 2002 में गुजरात के नरसंहार के बाद उसके किसी भी सहयोगी ने उससे अपना दामन नहीं छुड़ाया, लेकिन 2004 के आम चुनावों में मिली शिकस्त के बाद ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक सभी ने भाजपा को अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया। इन सबकी दलील थी कि गुजरात दंगों की वजह से इन्होंने मुस्लिम समुदाय के बीच अपना समर्थन गंवा दिया। इसी स्थिति से भाजपा को पहले तमिलनाडु में गुजरना पड़ा और अब उड़ीसा में। हो सकता है कि बिहार में भी उसका यही हश्र हो।
कांग्रेस की स्थिति भी भाजपा से बहुत अलग नहीं है। पिछले आम चुनावों में 425 सीटें ऐसी थीं, जहां कांग्रेस या उसके सहयोगी या तो जीत तक पहुंचे थे या दूसरे स्थान पर रहे थे। इसमें उसके सहयोगियों ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था। अगर कांग्रेस इन चुनावों में जीत को लेकर गंभीरता दिखाती तो वह चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी और जेडीएस के साथ दोस्ती कर लेती।
इस स्थिति में वह 500 सीटों पर मजबूती से लड़ सकती थी, लेकिन इसके उलट बीते पांच वर्षो में वह अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगियों को भी गंवा बैठी। आरजेडी और एलजेपी आज उसके साथ नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी को अपनी ओर कर लिया है, लेकिन वह भी इस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती। आज कांग्रेस और उसके सहयोगी महज 390 सीटों पर एक मजबूत लड़ाई लड़ रहे हैं।
इस आंकड़े से सत्ता की चाबी हाथ नहीं लग सकती। कांग्रेस सहयोगियों के साथ खुले दिल से सत्ता में भागीदारी करना नहीं जानती। राजनीति की रस्सी भले ही जल जाए, लेकिन देश का खेवनहार होने की ऐंठ अभी भी बाकी है।
तीसरी शक्ति की स्थिति सबसे दिलचस्प है। एक पल सत्ता की चाबी इसके हाथ दिखती है और दूसरे ही पल ये खाली हाथ खड़ी नजर आती है। असल में किसी को भी नहीं मालूम कौन इसका हिस्सा है और कौन इसके बाहर खड़ा है, इसलिए इसे लेकर गुणा-भाग करना सबसे मुश्किल है। पिछले आम चुनाव में अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा उम्मीदवारों और सीटों के बीच इस तीसरी शक्ति की ताकत को पढ़ने की कोशिश करें तो एक बेहद सुहावनी तस्वीर सामने आती है।
देश में 50 फीसदी से ज्यादा वोट और सत्ता के लिए जरूरी आंकड़ों से यह शक्ति कुछ ही दूरी पर खड़ी दिखाई देती है। पिछले बीस वर्षो में राजनीति की तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है। जाहिर है अगर सभी गैरकांग्रेसी और गैरभाजपा दल एक साथ आ जाएं तो वे निश्चित तौर पर सबसे बड़ा राजनीतिक गठबंधन होंगे, लेकिन जैसे-जैसे तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है, तीसरा मोर्चा सिमटता गया है।
अभी तक चुनावी बिसात पर सजाई गोटियों के बीच 16 मई को नतीजों के बाद इस गठबंधन के बरकरार रहने का भरोसा नहीं जागता। सिर्फ एक ही सूरत में ये मुमकिन है, जबकि एनडीए और यूपीए दोनों मिलकर 200 सीटों का आंकड़ा पार न कर सकें। तीसरे मोर्चे के दलों की असली दिक्कत ये है कि तीसरी शक्ति की हर पार्टी देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग एजेंडों पर चलती है।
आधे-अधूरे गठबंधन का गणित चुनाव पूर्व से चुनाव बाद की मंत्रणाओं पर खिसक जाता है। चुनाव के परिणाम वोटर के हाथ से फिसलकर नेताओं और दलालों की जेब में कैद हो जाते हैं। इस ‘छठे दौर’ में नए समीकरण बनेंगे। नए गठबंधन उभार लेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही पूरी तरह हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।
जितने आधे-अधूरे ये गठबंधन हैं, उतनी ही आधी-अधूरी है लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी।
-लेखक जाने-माने चुनाव विश्लेषक हैं।
भास्कर डॉट कॉम से साभार