Saturday, December 12, 2009

दुनिया के सभी पिता अपनी बेटियों से सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं

दुनिया के सभी पिता
अपनी बेटियों से
सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं
हालांकि इनमें से ज्‍यादातर
इसे शब्दों में बयान नहीं करते।

बेटी, मां की तरह होती है
पिता को पहचानती है
बेटी जानती है
न बोलकर भी
कुछ कहना चाहते हैं पिता।

बेटी हमेशा जान लेती है
उन शब्दों के अर्थ
जो कहे नहीं गए
भाव-भंगिमाओं से पहचान लेती है
पिता की विपन्नता और
अपनी इच्छाओं को दफ़न कर देती है।

बेटी, कभी अहसास नहीं होने देती
अपने दुखों का
हमेशा ख़ुश दिखती है
हालांकि पिता जानता है
भीतर से कितनी दुखी है
कभी फोन करती है
और चुपचाप सुनती है सांसे
बेटी, आते ही पूछती है
तबियत कैसी है
और पिता हंसते हुए कहता है
तुझे देखकर ठीक हूं
हालांकि दवाइयों से
कुछ आराम नहीं था।

- रविंदर बतरा
(दैनिक भास्‍कर जालंधर से साभार)

दुनिया के सभी पिता अपनी बेटियों से सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं

दुनिया के सभी पिता
अपनी बेटियों से
सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं
हालांकि इनमें से ज्‍यादातर
इसे शब्दों में बयान नहीं करते।

बेटी, मां की तरह होती है
पिता को पहचानती है
बेटी जानती है
न बोलकर भी
कुछ कहना चाहते हैं पिता।

बेटी हमेशा जान लेती है
उन शब्दों के अर्थ
जो कहे नहीं गए
भाव-भंगिमाओं से पहचान लेती है
पिता की विपन्नता और
अपनी इच्छाओं को दफ़न कर देती है।

बेटी, कभी अहसास नहीं होने देती
अपने दुखों का
हमेशा ख़ुश दिखती है
हालांकि पिता जानता है
भीतर से कितनी दुखी है
कभी फोन करती है
और चुपचाप सुनती है सांसे
बेटी, आते ही पूछती है
तबियत कैसी है
और पिता हंसते हुए कहता है
तुझे देखकर ठीक हूं
हालांकि दवाइयों से
कुछ आराम नहीं था।

- रविंदर बतरा
(दैनिक भास्‍कर जालंधर से साभार)

Friday, December 4, 2009

मछली जल की रानी 'थी'!

ग्लोबल वार्मिग के चलते पृथ्वी का समुद्रीय क्षेत्र तो लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन उसमें रहने वाले जलचरों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। हम बात कर रहे हैं समुद्रों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ खास किस्म की जलीय जीवों की जिनकी कई प्रजातियां इस समय विलुप्तता के कगार पर पहुंच गई हैं। यदि इसी रफ्तार से सागरीय प्रदूषण और इनका दोहन जारी रहा तो कई जलीय जीवों को सिर्फ एक्वेयरियमों में ही देखा जा सकेगा या फिर किताबों में उनके बारे में पढ़ा जाएगा।

अभी तक तो बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। जिस रफ्तार से उनकी संख्या कम हो रही है और जिस तरह मनुष्य उनका शिकार कर रहे हैं, उससे आने वाली पीढ़ी के लिए नई कविता गढ़ी जाएगी- मछली जली की थी रानी, जीवन उसका था पानी..।

दुनिया की काफी बड़ी आबादी का जीवन समुद्रों पर ही आधारित हैं। इस आबादी में मछुआरों से लेकर बड़े-बड़े उद्योग भी शामिल हैं। इन सभी के भरण-पोषण का मुख्य जरिया समद्र धीरे-धीरे कचराघर में तब्दील होता जा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों से लेकर घरेलू कचरे तक इसमें फेंके जा रहे हंै। इस वजह से मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची हैं। मसलन अटलांटिक सलोमन नाम की मछली अगले कुछ वर्षो में मिलना बंद हो जाएगी। इसकी वजह है समुद्रीय प्रदूषण और अत्यधिक मात्रा में इनका शिकार।

यदि भारत के समुद्रीय क्षेत्रों की बात करें तो पश्चिमी समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं और हमारे देश में मछलियों के शिकार को लेकर किसी भी तरह के कानून का पालन नहीं किया जाता है। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने यहां शिकार का मौसम तय कर दिया है। उस तय समय के बाद पूरे वर्ष तक कोई भी शिकार नहीं कर सकता है। इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। जबकि हमारे देश में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल के तट तक मछलियों का बेतहाशा शिकार किया जाता है। इस वजह से क्षेत्र में पाई जाने वाली ईल, धादा और करकरा मछलियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। इस कमी का एक और कारण प्रदूषण भी है।

एक दशक पहले तक इस क्षेत्र से शिकार के मौसम में लगभग 15 टन मछलियां पकड़ी जाती थीं, जो अब घटकर मात्र दो हजार टन रह गई है। इतना ही नहीं शिकार का मौसम तय न होने की वजह से पकड़ी गई मछलियों में अवयस्क मछलियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इनकी संख्या में कमी का एक कारण यह भी है। पिछली शताब्दी में समुद्री दुघर्टनाओं में भी खासा इजाफा हुआ है। इनमें से ज्यादातर जहाज ऐसे होते हैं जिनमें तेल लदा रहता है और इस तेल की परत समुद्री पानी की ऊपरी सतह पर फैल जाने से पानी में ऑक्सीजन का प्रवाह खत्म हो जाता है। नतीजा मछलियों समेत कई जलचरों की मृत्यु। राजधानी दिल्ली के यमुना किनारे के कई हिस्सों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मरी हुई मछलियां निकाली जाती हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारतीय केंद्रीय मत्स्य संस्थान भी इसके लिए कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके तहत अब से मछलियों के शिकार का मौसम और समय तय किया जाएगा और प्रदूषण कम करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। ऑस्ट्रेलिया ने इसको गंभीरता से लेते हुए उन मछलियों के शिकार पर रोक लगा दी है जिनकी संख्या कम हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक शोध के मुताबिक यदि इसी रफ्तार से समुद्री जीवों का दोहन होता रहा और प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सन् 2048 तक दुनिया के सभी महासागरों से मछलियां विलुप्त हो जाएंगी।

व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय व्हेल संस्थान ने व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा लिया है। 80 देशों के इस संगठन ने तय किया है कि भले ही शिकार पर से रोक हटा ली गई हो पर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रहेगी। इन मछलियों के शिकार पर पिछले 12 वर्षो से रोक लगी हुई थी। आईसलैंड, जापान और नॉर्वे शिकार से प्रतिबंध हटाने के सबसे बड़े पक्षधर थे।

जापान में हर वर्ष एक हजार व्हेल मछलियों का शिकार किया जाता है।

चिली ने अपने 2700 मील के समुद्री क्षेत्र को सेंचुरी घोषित कर दिया है। इस क्षेत्र में मछलियों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।

व्हेल भी खतरे में

फिन व्हेल - उत्तरी अटलांटिक के समुद्री क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मछली की आबादी लगभग 23000 रह गई है, जो खतरे का सूचक है।

बो-हेड व्हेल - बेरिंग सागर में पाई जाने वाली यह मछली की संख्या महज दस हजार रह गई है, जो कि विलुप्तता का संकेत है।

हम्पबैक व्हेल - दक्षिणी हेमिस्फेयर में पाई जाने वाली इस मछली की संख्या सिमटकर लगभग चालीस हजार रह गई है।

अटलांटिक सेलमन - पिछले बीस वर्षो में इतना ज्यादा शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या आधी रह गई है।

स्वोर्डफिश - नुकीली नाक वाली इन मछलियों की घटती संख्या का प्रमुख कारण इनका असमय शिकार है।

प्लाइस - अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या भी विलुप्ती के कगार पर पहुंच गई है।
मोंकफिश - इन मछलियों की वयस्कता उम्र काफी ज्यादा है और असमय शिकार की वजह से इनकी संख्या में कमी आ रही है।

दक्षिणी ब्लूफिन टूना - अत्यधिक शिकार की वजह से कई देशों ने इनके शिकार पर रोक लगा दी है।
शार्क व्हेल - दुनिया के सभी हिस्सों में पाई जाने वाली व्हेल शार्क की प्रजातियां सबसे अधिक खतरे में हैं।

बरकुडा - लगभग 6 फीट लंबी इस मछली की संख्या में भारी कमी पाई गई है।

सीयर फीस - यह मछली तेजी से तैरने और अपने शिकारी से लड़ने के लिए जानी जाती है। कई तरह के हुक्स और जालों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर इनका शिकार होने की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है।

मछली जल की रानी 'थी'!

ग्लोबल वार्मिग के चलते पृथ्वी का समुद्रीय क्षेत्र तो लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन उसमें रहने वाले जलचरों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। हम बात कर रहे हैं समुद्रों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ खास किस्म की जलीय जीवों की जिनकी कई प्रजातियां इस समय विलुप्तता के कगार पर पहुंच गई हैं। यदि इसी रफ्तार से सागरीय प्रदूषण और इनका दोहन जारी रहा तो कई जलीय जीवों को सिर्फ एक्वेयरियमों में ही देखा जा सकेगा या फिर किताबों में उनके बारे में पढ़ा जाएगा।

अभी तक तो बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। जिस रफ्तार से उनकी संख्या कम हो रही है और जिस तरह मनुष्य उनका शिकार कर रहे हैं, उससे आने वाली पीढ़ी के लिए नई कविता गढ़ी जाएगी- मछली जली की थी रानी, जीवन उसका था पानी..।

दुनिया की काफी बड़ी आबादी का जीवन समुद्रों पर ही आधारित हैं। इस आबादी में मछुआरों से लेकर बड़े-बड़े उद्योग भी शामिल हैं। इन सभी के भरण-पोषण का मुख्य जरिया समद्र धीरे-धीरे कचराघर में तब्दील होता जा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों से लेकर घरेलू कचरे तक इसमें फेंके जा रहे हंै। इस वजह से मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची हैं। मसलन अटलांटिक सलोमन नाम की मछली अगले कुछ वर्षो में मिलना बंद हो जाएगी। इसकी वजह है समुद्रीय प्रदूषण और अत्यधिक मात्रा में इनका शिकार।

यदि भारत के समुद्रीय क्षेत्रों की बात करें तो पश्चिमी समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं और हमारे देश में मछलियों के शिकार को लेकर किसी भी तरह के कानून का पालन नहीं किया जाता है। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने यहां शिकार का मौसम तय कर दिया है। उस तय समय के बाद पूरे वर्ष तक कोई भी शिकार नहीं कर सकता है। इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। जबकि हमारे देश में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल के तट तक मछलियों का बेतहाशा शिकार किया जाता है। इस वजह से क्षेत्र में पाई जाने वाली ईल, धादा और करकरा मछलियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। इस कमी का एक और कारण प्रदूषण भी है।

एक दशक पहले तक इस क्षेत्र से शिकार के मौसम में लगभग 15 टन मछलियां पकड़ी जाती थीं, जो अब घटकर मात्र दो हजार टन रह गई है। इतना ही नहीं शिकार का मौसम तय न होने की वजह से पकड़ी गई मछलियों में अवयस्क मछलियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इनकी संख्या में कमी का एक कारण यह भी है। पिछली शताब्दी में समुद्री दुघर्टनाओं में भी खासा इजाफा हुआ है। इनमें से ज्यादातर जहाज ऐसे होते हैं जिनमें तेल लदा रहता है और इस तेल की परत समुद्री पानी की ऊपरी सतह पर फैल जाने से पानी में ऑक्सीजन का प्रवाह खत्म हो जाता है। नतीजा मछलियों समेत कई जलचरों की मृत्यु। राजधानी दिल्ली के यमुना किनारे के कई हिस्सों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मरी हुई मछलियां निकाली जाती हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारतीय केंद्रीय मत्स्य संस्थान भी इसके लिए कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके तहत अब से मछलियों के शिकार का मौसम और समय तय किया जाएगा और प्रदूषण कम करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। ऑस्ट्रेलिया ने इसको गंभीरता से लेते हुए उन मछलियों के शिकार पर रोक लगा दी है जिनकी संख्या कम हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक शोध के मुताबिक यदि इसी रफ्तार से समुद्री जीवों का दोहन होता रहा और प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सन् 2048 तक दुनिया के सभी महासागरों से मछलियां विलुप्त हो जाएंगी।

व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय व्हेल संस्थान ने व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा लिया है। 80 देशों के इस संगठन ने तय किया है कि भले ही शिकार पर से रोक हटा ली गई हो पर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रहेगी। इन मछलियों के शिकार पर पिछले 12 वर्षो से रोक लगी हुई थी। आईसलैंड, जापान और नॉर्वे शिकार से प्रतिबंध हटाने के सबसे बड़े पक्षधर थे।

जापान में हर वर्ष एक हजार व्हेल मछलियों का शिकार किया जाता है।

चिली ने अपने 2700 मील के समुद्री क्षेत्र को सेंचुरी घोषित कर दिया है। इस क्षेत्र में मछलियों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।

व्हेल भी खतरे में

फिन व्हेल - उत्तरी अटलांटिक के समुद्री क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मछली की आबादी लगभग 23000 रह गई है, जो खतरे का सूचक है।

बो-हेड व्हेल - बेरिंग सागर में पाई जाने वाली यह मछली की संख्या महज दस हजार रह गई है, जो कि विलुप्तता का संकेत है।

हम्पबैक व्हेल - दक्षिणी हेमिस्फेयर में पाई जाने वाली इस मछली की संख्या सिमटकर लगभग चालीस हजार रह गई है।

अटलांटिक सेलमन - पिछले बीस वर्षो में इतना ज्यादा शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या आधी रह गई है।

स्वोर्डफिश - नुकीली नाक वाली इन मछलियों की घटती संख्या का प्रमुख कारण इनका असमय शिकार है।

प्लाइस - अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या भी विलुप्ती के कगार पर पहुंच गई है।
मोंकफिश - इन मछलियों की वयस्कता उम्र काफी ज्यादा है और असमय शिकार की वजह से इनकी संख्या में कमी आ रही है।

दक्षिणी ब्लूफिन टूना - अत्यधिक शिकार की वजह से कई देशों ने इनके शिकार पर रोक लगा दी है।
शार्क व्हेल - दुनिया के सभी हिस्सों में पाई जाने वाली व्हेल शार्क की प्रजातियां सबसे अधिक खतरे में हैं।

बरकुडा - लगभग 6 फीट लंबी इस मछली की संख्या में भारी कमी पाई गई है।

सीयर फीस - यह मछली तेजी से तैरने और अपने शिकारी से लड़ने के लिए जानी जाती है। कई तरह के हुक्स और जालों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर इनका शिकार होने की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है।

Thursday, December 3, 2009

कौन है भोपाल गैस त्रासदी का जिम्‍मेदार




आज यानी 3 दिसंबर को भोपाल समेत पूरा देश और कह सकते हैं कि दुनिया में भी भोपाल गैस त्रासदी को याद किया जा रहा है। आज इस घटना को हुए 25 वर्ष बीत चुके हैं। बड़े नेता, एनजीओ और मीडिया हाउस इस त्रासदी को भुनाने में पीछे नहीं रहे हैं। सभी ने इसे त्रासद और हृदयविदारक की संज्ञाएं दीं, पर क्‍या किसी ने ये जहमत उठाई कि पीडि़तों का क्‍या हाल है। उनकी सुनवाई हो रही है या नहीं, उनके पुनर्वास का क्‍या हो रहा है। यूका (यूनियन कार्बाइड) परिसर से जहरीले रसायन कब हटाए जाएंगे। ये सब वो सवाल हैं जो आज भी अनुत्‍तरित हैं।

हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में कोई न कोई बड़ी हस्‍ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्‍द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्‍वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्‍थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्‍थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।

गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्‍सक्‍लूसिव खोजने के चक्‍कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्‍वर्णिम मध्‍यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।

यहां वल्‍लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्‍वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्‍यवस्‍था से ही काम चल रहा है।

ऐसा ही हाल गैस राहत अस्‍पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राश‍ि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्‍यादा बंटी। हास्‍यापास्‍पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्‍थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।

सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्‍यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्‍वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्‍ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्‍या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्‍छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।

मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्‍शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।

यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्‍चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।

कौन है भोपाल गैस त्रासदी का जिम्‍मेदार




आज यानी 3 दिसंबर को भोपाल समेत पूरा देश और कह सकते हैं कि दुनिया में भी भोपाल गैस त्रासदी को याद किया जा रहा है। आज इस घटना को हुए 25 वर्ष बीत चुके हैं। बड़े नेता, एनजीओ और मीडिया हाउस इस त्रासदी को भुनाने में पीछे नहीं रहे हैं। सभी ने इसे त्रासद और हृदयविदारक की संज्ञाएं दीं, पर क्‍या किसी ने ये जहमत उठाई कि पीडि़तों का क्‍या हाल है। उनकी सुनवाई हो रही है या नहीं, उनके पुनर्वास का क्‍या हो रहा है। यूका (यूनियन कार्बाइड) परिसर से जहरीले रसायन कब हटाए जाएंगे। ये सब वो सवाल हैं जो आज भी अनुत्‍तरित हैं।

हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में कोई न कोई बड़ी हस्‍ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्‍द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्‍वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्‍थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्‍थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।

गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्‍सक्‍लूसिव खोजने के चक्‍कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्‍वर्णिम मध्‍यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।

यहां वल्‍लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्‍वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्‍यवस्‍था से ही काम चल रहा है।

ऐसा ही हाल गैस राहत अस्‍पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राश‍ि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्‍यादा बंटी। हास्‍यापास्‍पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्‍थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।

सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्‍यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्‍वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्‍ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्‍या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्‍छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।

मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्‍शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।

यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्‍चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।

Monday, November 30, 2009

विज्ञापन से मीडिया की आय में हर साल इजाफा

देश में मीडिया समूहों को विज्ञापनों से होने वाली कमाई में हर साल इजाफा हो रहा है। अभी प्रिंट मीडिया विज्ञापनों के मामले में टेलीविजन से आगे है, पर टीवी चैनलों की विज्ञापनों से कमाई भी बढती जा रही है।
यह जानकारी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्नी सीएम जातुया ने सोमवार को राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान दी। उन्होंने बताया कि मीडिया ने विज्ञापनों से 2006 में 165 अरब रुपए की कमाई की तो 2007 में 196 अरब 60 करोड़ की कमाई की और 2008 में करीब 221 अरब 60 करोड़ रुपए की कमाई की।
किसने कितना कमाया:
इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया: 60 अरब 50 करोड़ (2009)
* 2007 में 71 अरब 10 करोड़
* 2008 में 82 अरब 50 करोड़ रुपए

प्रिंट मीडिया: 84 अरब 90 करोड़ (2009)
* 2007 में 100 अरब 20 करोड़
* 2008 में 108 अरब 40 करोड़ रुपए

रेडियो मीडिया: * 2006 में 6 अरब
* 2007 में 7 अरब 40 करोड़

वेब मीडिया: इंटरनेट को वर्ष 2006 में दो अरब
* 2007 में तीन अरब 90 करोड़ तथा
* 2008 में करीब 6 अरब 20 करोड़ रुपए की कमाई विज्ञापन से की।

विज्ञापन से मीडिया की आय में हर साल इजाफा

देश में मीडिया समूहों को विज्ञापनों से होने वाली कमाई में हर साल इजाफा हो रहा है। अभी प्रिंट मीडिया विज्ञापनों के मामले में टेलीविजन से आगे है, पर टीवी चैनलों की विज्ञापनों से कमाई भी बढती जा रही है।
यह जानकारी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्नी सीएम जातुया ने सोमवार को राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान दी। उन्होंने बताया कि मीडिया ने विज्ञापनों से 2006 में 165 अरब रुपए की कमाई की तो 2007 में 196 अरब 60 करोड़ की कमाई की और 2008 में करीब 221 अरब 60 करोड़ रुपए की कमाई की।
किसने कितना कमाया:
इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया: 60 अरब 50 करोड़ (2009)
* 2007 में 71 अरब 10 करोड़
* 2008 में 82 अरब 50 करोड़ रुपए

प्रिंट मीडिया: 84 अरब 90 करोड़ (2009)
* 2007 में 100 अरब 20 करोड़
* 2008 में 108 अरब 40 करोड़ रुपए

रेडियो मीडिया: * 2006 में 6 अरब
* 2007 में 7 अरब 40 करोड़

वेब मीडिया: इंटरनेट को वर्ष 2006 में दो अरब
* 2007 में तीन अरब 90 करोड़ तथा
* 2008 में करीब 6 अरब 20 करोड़ रुपए की कमाई विज्ञापन से की।

Saturday, September 12, 2009

दिनेश दीनू ने पीपुल्स इंदौर को कहा बाय

कुछ ही महीने पहले पीपुल्स समाचार समूह ने अपने इंदौर संस्करण के लिए आईनेक्स्ट से आए दिनेश दीनू को नियुक्त किया था। दिनेश जी ने वहां शुरुआती नियुक्तियां भी की। लेकिन दो दिन पहले प्रबंधन ने उन्हें भोपाल आने के लिए कह दिया। दीनू जी ने भोपाल आने के बदले इस्तीफा दे दिया।

सूत्रों की मानें तो तीन संपादकों और काम के बंटवारे को लेकर ऐसी परिस्थितियां बनीं कि उनका जाना तय माना जा रहा था। दैनिक भास्कर जबलपुर के संपादक रह चुके विकास मिश्रा जी जो अब तक ज्वाइंट एडिटर थे उन्हें संपादक का पद सौंपा गया है। ऐसी खबरें हैं कि पत्रिका इंदौर व दैनिक भास्कर इंदौर के कुछ रिपोर्टर भी पीपुल्स का रुख कर सकते हैं।

  • राजस्थान पत्रिका के कोटा संस्करण से ईशान अवस्थी जी ने भी पीपुल्स ज्वाइन कर लिया है। ईशान जी कोटा से पहले पत्रिका समूह के अखबार न्यूज टुडे के इंदौर संस्करण में थे। उनका ट्रांसफर पिछले साल कोटा कर दिया गया था।
  • नवदुनिया भोपाल के बिजनेस रिपोर्टर पंकज भारती ने भी पीपुल्स ज्वाइन कर लिया है। नवदुनिया के पहले पंकज भास्कर डॉट कॉम मुंबई में थे।

Wednesday, July 29, 2009

फिर भी कविता लिख लेता हूँ...

सुबह से लेकर रात तक... भागती रहती है जिंदगी ..
कभी इस खबर.. कभी उस खबर...
इनके बीच मै बेखबर सा होकर घूमता रहता हूँ...
बदबूदार राजनीति... नालियों में सड़ती नवजात बेटियाँ.. सेलेब्रेटियों के पाखंड..

चौराहे पर एक कट चाय पीकर... फिर भी कविता लिख लेता हूँ...

निर्मोही सा... अब ये मन... नहीं पसीजता किसी घटना से...
मोहल्ले के कुत्ते की मौत पर.... मै कभी बहुत रोया था....
अब नर संहारो से भी कोई सरोकार नहीं ....

फिर भी देर रात घर लौटते वक़्त..
मै मुंडेर पर ..चिडियों का पानी भर देता हूँ...

परिभाषा काल की मुझे नहीं मालूम.. जाने कब क्या हो...
कोई मिला तो हंस लिए... न मिला तो चल दिए...
पदचाप अपने ...निशब्द भी मिले... तो यू ही कुछ गुनगुना लिया...
षडयंत्र, राजनीति, विरोध, प्रदर्शन... जीवन के अब सामान्य पहलू से हो चले...

बचपन...की याद बहुत आती है... खेतो की मिट्टी में गुजरा था बचपन..
अब धमाको में उड़े.. बच्चो का खून...
अपनी खबर देखते-पढ़ते... करवट बदलते रात काट देता हूँ मैं
मैं फिर भी कविता लिख लेता हूँ

प्रिय मित्र अंकित श्रीवास्तव की यह रचना पढ़िए। अंकित दैनिक भास्कर समाचार समूह की भोपाल कॉरपोरेट एडिटोरियल डेस्क पर कार्यरत हैं।

फिर भी कविता लिख लेता हूँ...

सुबह से लेकर रात तक... भागती रहती है जिंदगी ..
कभी इस खबर.. कभी उस खबर...
इनके बीच मै बेखबर सा होकर घूमता रहता हूँ...
बदबूदार राजनीति... नालियों में सड़ती नवजात बेटियाँ.. सेलेब्रेटियों के पाखंड..

चौराहे पर एक कट चाय पीकर... फिर भी कविता लिख लेता हूँ...

निर्मोही सा... अब ये मन... नहीं पसीजता किसी घटना से...
मोहल्ले के कुत्ते की मौत पर.... मै कभी बहुत रोया था....
अब नर संहारो से भी कोई सरोकार नहीं ....

फिर भी देर रात घर लौटते वक़्त..
मै मुंडेर पर ..चिडियों का पानी भर देता हूँ...

परिभाषा काल की मुझे नहीं मालूम.. जाने कब क्या हो...
कोई मिला तो हंस लिए... न मिला तो चल दिए...
पदचाप अपने ...निशब्द भी मिले... तो यू ही कुछ गुनगुना लिया...
षडयंत्र, राजनीति, विरोध, प्रदर्शन... जीवन के अब सामान्य पहलू से हो चले...

बचपन...की याद बहुत आती है... खेतो की मिट्टी में गुजरा था बचपन..
अब धमाको में उड़े.. बच्चो का खून...
अपनी खबर देखते-पढ़ते... करवट बदलते रात काट देता हूँ मैं
मैं फिर भी कविता लिख लेता हूँ

प्रिय मित्र अंकित श्रीवास्तव की यह रचना पढ़िए। अंकित दैनिक भास्कर समाचार समूह की भोपाल कॉरपोरेट एडिटोरियल डेस्क पर कार्यरत हैं।

Thursday, July 23, 2009

साबित हो गया बिहार में जंगलराज

अब तक सुनते आए हैं कि बिहार देश का पिछड़ा राज्य है, यहां जंगल राज है। अपराधियों और बाहुबलियों का बोलबाला है। पुलिस प्रशासन खत्म हो चुका है। लेकिन आज की घटना के बाद यह साबित हो गया है, वाकई प्रदेश में कानून व्ववस्था का अस्तित्व खत्म हो चुका है। इससे नीच घटना क्या होगी कि किसी प्रदेश की राजधानी में खुलेआम इस तरह की घटना हो और पुलिस का दूर-दूर तक पता ही न हो।

जिन लोगों ने उसे भरी सड़क में उस लड़की के कपड़े उतारे और उसे खुले बदन दौड़ाया, मेरी राय में तो उन सबको गोली मार देना चाहिए।

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर इसमें किस-किस को दोषी माना जाए। उन कुत्तों की फौज को जिन्होंने उस औरत के शरीर को बेआबरु किया, जो औरत मां, बहन और बीवी होती है। या उन नपुंसकों की फौज को जिसे प्रशासन और पुलिस कहा जाता है। घिन आती है ऐसे लोगों पर।

पूरी घटना जी न्यूज पर देखी जा सकती है।

हुआ यूं कि पटना के एक स्थानीय होटल से एक जोड़े को निकाला गया तो कुछ तालिबानी माइंडसेट वाले संस्कृति के ठेकेदारों ने उन्हें घेर लिया। इन आवारा लोगों के समुदाय ने लड़के को खूब पीटा और लड़की के बदन से सारे कपड़े नोचकर उसे सड़क में दौड़ाया। यही है एक लोकतांत्रिक देश में महिलाऒं की स्थिति का कड़वा सच।

बिहार की राजधानी पटना में आज तालिबान जैसी घटना का एक शर्मनाक नजारा देखने को मिला। शहर के भीड़-भाड़ वाले रास्ते पर एक लड़की के उपर चोरी का झूठा आरोप लगाकर उसके जिस्म पर मौजूद कपड़े फाड़े गए।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक लड़की अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ घूम रही थी तभी दोनों में किसी बात को लेकर अनबन हुई और लड़की ने लड़के से उसका मोबाइल छीन लिया जिसके बाद लड़के ने लड़की पर चोरी का आरोप लगाकर भीड़ एकत्रित कर लिया जिसके बाद शुरु हो गया तालिबानी हैवानियत। वहां मौजूद कुछ लोगों ने लड़के-लड़की को जिस्मफरोसी के धंधें में लिप्त होने को लेकर दोनों को जमकर पीटा,इसके बाद समाज के ये गुंडे लड़की का सबके सामने बीच सड़क पर चीर हरण करने लगे।

लड़की के शरीर पर मौजूद कपड़ो को ये लोग कुत्तों की तरफ फाड़ दिए। सबसे बड़ी बात यह है कि उस भीड़ में ऐसा कोई भी शख्स नहीं था जो यह बोल सके कि यह गलत हो रहा है। सभी इस घटना को रोमांचक अंदाज में लेकर मजा ले रहे थे। लड़की चीख-पुकार कर रहम की भीख मांग रही थी लेकिन सभी मूक बनकर सिर्फ नजारा देख रहे थे।

इतने शर्मनाक घटना के बाद वहां की पुलिस अपना बचाव करते हुए नचर आई। पुलिस ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। किसी लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है।

घटना के बाद पूरे देश में इसकी कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। इस संबंध में भूतपूर्व रेलवे मंत्री लालू प्रसाद यादव का कहना है कि बिहार में इस प्रकार की घटना अपने आपमें बेहद ही शर्मजनक है। उन्होंने मुख्यमंत्री नितीश कुमार पर प्रहार करते हुए कहा कि इनके शासन में नियम कानून की सरेआम धज्जियां उड़ रही हैं कहीं भी कानून के साथ खिलवाड़ शुरु हो जाता है। यादव ने कहा कि वे पीड़ित लड़की को न्याय दिलाने के लिए पूरा प्रयास करेंगे।

साबित हो गया बिहार में जंगलराज

अब तक सुनते आए हैं कि बिहार देश का पिछड़ा राज्य है, यहां जंगल राज है। अपराधियों और बाहुबलियों का बोलबाला है। पुलिस प्रशासन खत्म हो चुका है। लेकिन आज की घटना के बाद यह साबित हो गया है, वाकई प्रदेश में कानून व्ववस्था का अस्तित्व खत्म हो चुका है। इससे नीच घटना क्या होगी कि किसी प्रदेश की राजधानी में खुलेआम इस तरह की घटना हो और पुलिस का दूर-दूर तक पता ही न हो।

जिन लोगों ने उसे भरी सड़क में उस लड़की के कपड़े उतारे और उसे खुले बदन दौड़ाया, मेरी राय में तो उन सबको गोली मार देना चाहिए।

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर इसमें किस-किस को दोषी माना जाए। उन कुत्तों की फौज को जिन्होंने उस औरत के शरीर को बेआबरु किया, जो औरत मां, बहन और बीवी होती है। या उन नपुंसकों की फौज को जिसे प्रशासन और पुलिस कहा जाता है। घिन आती है ऐसे लोगों पर।

पूरी घटना जी न्यूज पर देखी जा सकती है।

हुआ यूं कि पटना के एक स्थानीय होटल से एक जोड़े को निकाला गया तो कुछ तालिबानी माइंडसेट वाले संस्कृति के ठेकेदारों ने उन्हें घेर लिया। इन आवारा लोगों के समुदाय ने लड़के को खूब पीटा और लड़की के बदन से सारे कपड़े नोचकर उसे सड़क में दौड़ाया। यही है एक लोकतांत्रिक देश में महिलाऒं की स्थिति का कड़वा सच।

बिहार की राजधानी पटना में आज तालिबान जैसी घटना का एक शर्मनाक नजारा देखने को मिला। शहर के भीड़-भाड़ वाले रास्ते पर एक लड़की के उपर चोरी का झूठा आरोप लगाकर उसके जिस्म पर मौजूद कपड़े फाड़े गए।

प्राप्त जानकारी के मुताबिक लड़की अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ घूम रही थी तभी दोनों में किसी बात को लेकर अनबन हुई और लड़की ने लड़के से उसका मोबाइल छीन लिया जिसके बाद लड़के ने लड़की पर चोरी का आरोप लगाकर भीड़ एकत्रित कर लिया जिसके बाद शुरु हो गया तालिबानी हैवानियत। वहां मौजूद कुछ लोगों ने लड़के-लड़की को जिस्मफरोसी के धंधें में लिप्त होने को लेकर दोनों को जमकर पीटा,इसके बाद समाज के ये गुंडे लड़की का सबके सामने बीच सड़क पर चीर हरण करने लगे।

लड़की के शरीर पर मौजूद कपड़ो को ये लोग कुत्तों की तरफ फाड़ दिए। सबसे बड़ी बात यह है कि उस भीड़ में ऐसा कोई भी शख्स नहीं था जो यह बोल सके कि यह गलत हो रहा है। सभी इस घटना को रोमांचक अंदाज में लेकर मजा ले रहे थे। लड़की चीख-पुकार कर रहम की भीख मांग रही थी लेकिन सभी मूक बनकर सिर्फ नजारा देख रहे थे।

इतने शर्मनाक घटना के बाद वहां की पुलिस अपना बचाव करते हुए नचर आई। पुलिस ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। किसी लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है।

घटना के बाद पूरे देश में इसकी कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। इस संबंध में भूतपूर्व रेलवे मंत्री लालू प्रसाद यादव का कहना है कि बिहार में इस प्रकार की घटना अपने आपमें बेहद ही शर्मजनक है। उन्होंने मुख्यमंत्री नितीश कुमार पर प्रहार करते हुए कहा कि इनके शासन में नियम कानून की सरेआम धज्जियां उड़ रही हैं कहीं भी कानून के साथ खिलवाड़ शुरु हो जाता है। यादव ने कहा कि वे पीड़ित लड़की को न्याय दिलाने के लिए पूरा प्रयास करेंगे।

Monday, July 13, 2009

मुकाती जी बने पत्रिका के मैगजीन हेड

श्री पंकज मुकाती को राजस्थान पत्रिका के मैग्जीन डेस्क का प्रभारी बनाया गया है। इससे पहले वो इंदौर में पत्रिका के स्थानीय संपादक थे।

Monday, July 6, 2009

बजट से यूं बनती है एक छन्दमुक्त कविता

वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। ज्ञान की खूंखार चमक चेहरे पर थी। छह सुना लेने की प्रचंड संतुष्टि से आप्लावित दिखाई दे रहे थे।
‘ये लीजिए जनाब, एक और, शीर्षक है अंतर्देशीय-पत्र..’  अंतर्देशीय, तुम और मैं..। पहला पन्ना, भले कर्मो का खाता-बही, दूसरा पन्ना, संसार के भंवर में नय्या फंसी तीसरा पन्ना, पास बुलाता दुष्कर्मो का कोहरा, चौथा पन्ना, लिप्सा-लालसाओं का जाल घना, पांचवां पन्ना,.. इसके पहले वे कुछ बोलते मैंने निवेदन किया,‘अंतर्देशीय में तो चार ही पन्ने..!’‘कविता की आत्मा में तर्क मत बैठाओ’ वे बोले। 
मैंने समझ लिया बहस करुंगा तो ‘यातना का कालखंड’ ज्यादा बढ़ जाएगा। बोलने को ही था कि वे फिर बोल पड़े।  ‘इसी कविता को लो अंतर्देशीय जैसे क्षुद्र प्रतीक में भी जीवन की सच्चई व्यक्त करने की ताकत है, हम एक दूसरे के इतने छिद्रान्वेषण में लगे रहते हैं कि संसार की मामूली से मामूली चीजों तक से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, इसी से तो मानव की अधोगति हो रही है।’
फिर मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही शुरू हो गए। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ मनुष्य की लाइफ स्टाइल की चेंजिंग पर है, सरलीकृत करते हुए उन्होंने बताया। उन्होंने फिर पढ़ा, ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ इसी क्रम से ये वेदनाएं बढ़ती हैं, उन्होंने इस बार दार्शनिक व्याख्या की। हां, तो दर्द-दुख-दारुण्यआंसू प्रीत-पैसा-पतंग जालिमलोशन-जालिमलोशन-जालिमलोशन, हमने लाईन पूरी की। ‘छी: छी:.. उन्होंने कहा ध्यान मत भटकाओ। पहले चार लाईन पूरी करने दो। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ ‘प्रीत-पैसा-पतंग’ ‘प्रणब बाबू-प्रणब बाबू- प्रणब बाबू’ हें..! मैं गिरते-गिरते बचा। ‘ये कैसी कविता है’ ‘छंदमुक्त-बंधमुक्त-गंधमुक्त’ जीवन में महक फैलाने वाली’-उन्होंने व्याख्या की। ‘ये कैसी कविता है, जो जीवन की दार्शनिकता-सांसारिकता की विवेचना करते-करते वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पर खत्म होती है’- अपने प्रतिवाद को मैंने विस्तार दिया।
‘ये कोई मामूली कविता नहीं हैं, इसमें सार छुपा हुआ है-जीवन सार’ उन्होंने बताया। -‘जीवनसार’..?
-‘हां, जीवनसार.. पहली लाइन में बात है लाइफ स्टाइल चेंजिंग’ को लेकर, दूसरी लाइन बात करती है वेदनाओं के बढ़ते चले जाने की फिर तीसरी लाइन में संसार की निस्सारता के बारे में गूढ़ बात की गई है। चौथी लाइन में जीवन की वास्तविकता की बात कही गई है’ वे फुसफुसाए।
‘क्या वास्तविकता!!’ मैंने उनसे सरल भाषा में विवरण की मांग रख दी। ‘देखो, शेयर मार्केट में पैसा लगाओगे, फिर महंगाई बढ़ेगी। शेयर गिरेंगे, पैसा डूब जाएगा, लाइफ स्टाइल चेंज हो जाएगी, दुख पर दुख मिलने लगेंगे यानि क्रम से वेदनाएं बढ़ेंगी तो संसार तो नश्वर लगेगा ही, बोलो सच है कि नहीं’ उन्होंने और सरलीकृत ढंग से समझाया।
‘फिर इनके पीछे जिम्मेदार कौन हैं हमारे वित्तमंत्रीजी जिनके एक भाषण से सब उलट-पुलट हो जाता है। यहां तक की एक आदमी कवि ह्दय तक हो जाता है।’
‘हां, तो.. फिर?’ ‘फिर क्या मानव को वैराग्य की दिशा में ले जाए-मोक्ष के बारे में सोचने पर विवश करे। उस महान आत्मा से ज्यादा और किसके नाम से आमजन की इस पहली वास्तविक कविता का समापन किया जा सकता है’, उन्होंने बात समेटी।
‘लेकिन गुरु, इतनी महान वास्तविक रचना का आइडिया आपके पास आया कहां से’- मैंने उठते-उठते जानना चाहा।
‘शेयर मार्केट में 5 लाख गंवाने के बाद’ -कहकर वे उठे और बच्चों को दरवाजा छोड़कर बाहर खेलने के आदेश देने में व्यस्त हो गए।

-अनुज खरे

बजट से यूं बनती है एक छन्दमुक्त कविता

वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। ज्ञान की खूंखार चमक चेहरे पर थी। छह सुना लेने की प्रचंड संतुष्टि से आप्लावित दिखाई दे रहे थे।
‘ये लीजिए जनाब, एक और, शीर्षक है अंतर्देशीय-पत्र..’  अंतर्देशीय, तुम और मैं..। पहला पन्ना, भले कर्मो का खाता-बही, दूसरा पन्ना, संसार के भंवर में नय्या फंसी तीसरा पन्ना, पास बुलाता दुष्कर्मो का कोहरा, चौथा पन्ना, लिप्सा-लालसाओं का जाल घना, पांचवां पन्ना,.. इसके पहले वे कुछ बोलते मैंने निवेदन किया,‘अंतर्देशीय में तो चार ही पन्ने..!’‘कविता की आत्मा में तर्क मत बैठाओ’ वे बोले। 
मैंने समझ लिया बहस करुंगा तो ‘यातना का कालखंड’ ज्यादा बढ़ जाएगा। बोलने को ही था कि वे फिर बोल पड़े।  ‘इसी कविता को लो अंतर्देशीय जैसे क्षुद्र प्रतीक में भी जीवन की सच्चई व्यक्त करने की ताकत है, हम एक दूसरे के इतने छिद्रान्वेषण में लगे रहते हैं कि संसार की मामूली से मामूली चीजों तक से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, इसी से तो मानव की अधोगति हो रही है।’
फिर मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही शुरू हो गए। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ मनुष्य की लाइफ स्टाइल की चेंजिंग पर है, सरलीकृत करते हुए उन्होंने बताया। उन्होंने फिर पढ़ा, ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ इसी क्रम से ये वेदनाएं बढ़ती हैं, उन्होंने इस बार दार्शनिक व्याख्या की। हां, तो दर्द-दुख-दारुण्यआंसू प्रीत-पैसा-पतंग जालिमलोशन-जालिमलोशन-जालिमलोशन, हमने लाईन पूरी की। ‘छी: छी:.. उन्होंने कहा ध्यान मत भटकाओ। पहले चार लाईन पूरी करने दो। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ ‘प्रीत-पैसा-पतंग’ ‘प्रणब बाबू-प्रणब बाबू- प्रणब बाबू’ हें..! मैं गिरते-गिरते बचा। ‘ये कैसी कविता है’ ‘छंदमुक्त-बंधमुक्त-गंधमुक्त’ जीवन में महक फैलाने वाली’-उन्होंने व्याख्या की। ‘ये कैसी कविता है, जो जीवन की दार्शनिकता-सांसारिकता की विवेचना करते-करते वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पर खत्म होती है’- अपने प्रतिवाद को मैंने विस्तार दिया।
‘ये कोई मामूली कविता नहीं हैं, इसमें सार छुपा हुआ है-जीवन सार’ उन्होंने बताया। -‘जीवनसार’..?
-‘हां, जीवनसार.. पहली लाइन में बात है लाइफ स्टाइल चेंजिंग’ को लेकर, दूसरी लाइन बात करती है वेदनाओं के बढ़ते चले जाने की फिर तीसरी लाइन में संसार की निस्सारता के बारे में गूढ़ बात की गई है। चौथी लाइन में जीवन की वास्तविकता की बात कही गई है’ वे फुसफुसाए।
‘क्या वास्तविकता!!’ मैंने उनसे सरल भाषा में विवरण की मांग रख दी। ‘देखो, शेयर मार्केट में पैसा लगाओगे, फिर महंगाई बढ़ेगी। शेयर गिरेंगे, पैसा डूब जाएगा, लाइफ स्टाइल चेंज हो जाएगी, दुख पर दुख मिलने लगेंगे यानि क्रम से वेदनाएं बढ़ेंगी तो संसार तो नश्वर लगेगा ही, बोलो सच है कि नहीं’ उन्होंने और सरलीकृत ढंग से समझाया।
‘फिर इनके पीछे जिम्मेदार कौन हैं हमारे वित्तमंत्रीजी जिनके एक भाषण से सब उलट-पुलट हो जाता है। यहां तक की एक आदमी कवि ह्दय तक हो जाता है।’
‘हां, तो.. फिर?’ ‘फिर क्या मानव को वैराग्य की दिशा में ले जाए-मोक्ष के बारे में सोचने पर विवश करे। उस महान आत्मा से ज्यादा और किसके नाम से आमजन की इस पहली वास्तविक कविता का समापन किया जा सकता है’, उन्होंने बात समेटी।
‘लेकिन गुरु, इतनी महान वास्तविक रचना का आइडिया आपके पास आया कहां से’- मैंने उठते-उठते जानना चाहा।
‘शेयर मार्केट में 5 लाख गंवाने के बाद’ -कहकर वे उठे और बच्चों को दरवाजा छोड़कर बाहर खेलने के आदेश देने में व्यस्त हो गए।

-अनुज खरे

क्या है पुलिस के मायने

सभी ब्लॉगर साथियों को नमस्कार।

काफी समय बाद कुछ लिख रहा हूं। मन तो रोज ही होता है पर इंसानी फितरत यानी आलस्य कि कल लिख लेंगे, की वजह से नहीं लिख पा रहा था। कई दिनों से मेरे मन में एक बात घूम रही है। हालांकि हम लोग हमेशा ही इस विषय पर बात करते रहते हैं, लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि पूरा मामला बातों पर ही खत्म हो जाता है। मुद्दा टीवी चैनलों की भाषा में तो काफी गंभीर कहा जा सकता है। लेकिन यहां भी बात किसी मुकाम तक नहीं पहुंच पाती है।

खैर, मैं शब्दों का इस्तेमाल आपको बोर करने के लिए नहीं करुंगा, क्योंकि जानता हूं कि वक्त कीमती होता है। मेरे मन में जो बात हलचल मचा रही है वह है हमारी सड़ी हुई पुलिस व्यवस्था की। एक ऐसी व्यवस्था जिसका खौफ अपराधियों में है ही नहीं। मैं आपका ध्यान कुछ हालिया घटनाऒं की ऒर दिलाना चाहता हूं।

बात है भोपाल में कुछ दिनों पहले हुए सामूहिक बलात्कार की। जब घटना हुई तो सबसे पहले पुलिस पर निशाना साधा गया। फिर शुरु हुई आनन फानन में होने वाली जांच। ऐसी जांच जिनके परिणाम विरली परिस्थियों में ही प्राप्त होते हैं। लेकिन आपको यह नहीं लगता है कि देश में बलात्कार और हत्याएं आम बात बनती जा रही हैं। लॉ एंड ऑर्डर जैसी व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी सी लगती है। नेताऒं को एक दूसरे पर कीचड़ उछालने भ्रष्टाचार मचाने और थोथी घोषणाएं करने से फुरसत ही नहीं है। वैसे इसके पीछे दोष किसका है। क्या सिर्फ नेताऒं और पुलिस का नहीं। समाज और जनता का भी है। सबकुछ एक दूसरे से बंधा हुआ है। यानी की सिस्टम ही सड़ा है। इसे ठीक करने के लिए कौन आगे आएगा।

अब एक और बात। भोपाल और इंदौर में पुलिस ने महत्वपूर्ण चौराहों पर पुलिस सहायता केंद्र बना रखे हैं। लेकिन इनमें पुलिसकर्मी तीज-त्योहार ही देखे जा सकते हैं। कई सहायता केंद्रों के तो ताले तक नहीं खुले। हां, वहीं कुछ ऐसे केंद्र जो शराब की दुकानों के आसपास बने हैं, वहां मुस्तैदी देखी जा सकती है। कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस मुस्तैदी के पीछे सोमरस की ललक और मुद्रा दोनों ही होते हैं।

हमारी पुलिस की सारी ताकत कमजोरों पर ही दिखती है। मुझे हालिया वाकया याद आ रहा है, जिसमें भोपाल के साकेत नगर इलाके के रहवासियों ने शिकायत की थी, कि उनके मोहल्ले में रहने वाले सीएम साहब के भाई के यहां चोरी हुई तो पुलिस ने मामले को कुछ ही दिन में सुलझाकर आरोपियों को पकड़ भी लिया पर उसी इलाके के बाकी घरों में लगातार हो रही चोरी का कोई सुराग नहीं है।

है ना यह पुलिस की काबिलियत। केवल वही मामले सुलझते हैं जिनके पीछे वीआईपी जैसा कुछ हो।

अगर ऐसा नहीं होता तो भोपाल के भीड़भाड़ वाले बाजार विट्टन मार्केट में सरेआम गोलियां नहीं चलती। वो भी तब जबकि थाना वहां से महज इतना दूर है कि अगर कोई सामान्य व्यक्ति चिल्लाए तो थाने के अंदर बैठे लोग भी सुन सकते हैं। इस पर देशभक्ति जनसेवा लिखे बैच पहनने वाली पुलिस का कहना है कि वो हर किसी पर नजर नहीं रख सकती है।

तो हम कब कह रहे हैं कि एक एक बंदे पर नजर रखो पर कम से कम क्रिमिनल्स पर इतनी लगाम तो रखो कि वो गुनाह करने के पहले एक बार पुलिसिया खौफ के बारे में सोचें। हालांकि ऐसा संभव है इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है।

आखिर में एक बात और कि अगर आपमें किसी को पुलिस का पूरा मतलब मालूम हो तो मुझे जरुर बताइएगा। क्योंकि जो मतलब मुझे पता है वो तो शायद हमारी पुलिस पर तो फिट नहीं बैठता है।

P for Polite =?
O for Obedient =?
L for Loyal =?
I for Intelligent =?
C for Courageous =?
E for Eager to help =?

अगर आप बोर हुए हों तो माफी चाहूंगा पर दिल में था सो शब्द बनकर बाहर आ गए।

अमूल्य वक्त देने का शुक्रिया।

क्या है पुलिस के मायने

सभी ब्लॉगर साथियों को नमस्कार।

काफी समय बाद कुछ लिख रहा हूं। मन तो रोज ही होता है पर इंसानी फितरत यानी आलस्य कि कल लिख लेंगे, की वजह से नहीं लिख पा रहा था। कई दिनों से मेरे मन में एक बात घूम रही है। हालांकि हम लोग हमेशा ही इस विषय पर बात करते रहते हैं, लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि पूरा मामला बातों पर ही खत्म हो जाता है। मुद्दा टीवी चैनलों की भाषा में तो काफी गंभीर कहा जा सकता है। लेकिन यहां भी बात किसी मुकाम तक नहीं पहुंच पाती है।

खैर, मैं शब्दों का इस्तेमाल आपको बोर करने के लिए नहीं करुंगा, क्योंकि जानता हूं कि वक्त कीमती होता है। मेरे मन में जो बात हलचल मचा रही है वह है हमारी सड़ी हुई पुलिस व्यवस्था की। एक ऐसी व्यवस्था जिसका खौफ अपराधियों में है ही नहीं। मैं आपका ध्यान कुछ हालिया घटनाऒं की ऒर दिलाना चाहता हूं।

बात है भोपाल में कुछ दिनों पहले हुए सामूहिक बलात्कार की। जब घटना हुई तो सबसे पहले पुलिस पर निशाना साधा गया। फिर शुरु हुई आनन फानन में होने वाली जांच। ऐसी जांच जिनके परिणाम विरली परिस्थियों में ही प्राप्त होते हैं। लेकिन आपको यह नहीं लगता है कि देश में बलात्कार और हत्याएं आम बात बनती जा रही हैं। लॉ एंड ऑर्डर जैसी व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी सी लगती है। नेताऒं को एक दूसरे पर कीचड़ उछालने भ्रष्टाचार मचाने और थोथी घोषणाएं करने से फुरसत ही नहीं है। वैसे इसके पीछे दोष किसका है। क्या सिर्फ नेताऒं और पुलिस का नहीं। समाज और जनता का भी है। सबकुछ एक दूसरे से बंधा हुआ है। यानी की सिस्टम ही सड़ा है। इसे ठीक करने के लिए कौन आगे आएगा।

अब एक और बात। भोपाल और इंदौर में पुलिस ने महत्वपूर्ण चौराहों पर पुलिस सहायता केंद्र बना रखे हैं। लेकिन इनमें पुलिसकर्मी तीज-त्योहार ही देखे जा सकते हैं। कई सहायता केंद्रों के तो ताले तक नहीं खुले। हां, वहीं कुछ ऐसे केंद्र जो शराब की दुकानों के आसपास बने हैं, वहां मुस्तैदी देखी जा सकती है। कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस मुस्तैदी के पीछे सोमरस की ललक और मुद्रा दोनों ही होते हैं।

हमारी पुलिस की सारी ताकत कमजोरों पर ही दिखती है। मुझे हालिया वाकया याद आ रहा है, जिसमें भोपाल के साकेत नगर इलाके के रहवासियों ने शिकायत की थी, कि उनके मोहल्ले में रहने वाले सीएम साहब के भाई के यहां चोरी हुई तो पुलिस ने मामले को कुछ ही दिन में सुलझाकर आरोपियों को पकड़ भी लिया पर उसी इलाके के बाकी घरों में लगातार हो रही चोरी का कोई सुराग नहीं है।

है ना यह पुलिस की काबिलियत। केवल वही मामले सुलझते हैं जिनके पीछे वीआईपी जैसा कुछ हो।

अगर ऐसा नहीं होता तो भोपाल के भीड़भाड़ वाले बाजार विट्टन मार्केट में सरेआम गोलियां नहीं चलती। वो भी तब जबकि थाना वहां से महज इतना दूर है कि अगर कोई सामान्य व्यक्ति चिल्लाए तो थाने के अंदर बैठे लोग भी सुन सकते हैं। इस पर देशभक्ति जनसेवा लिखे बैच पहनने वाली पुलिस का कहना है कि वो हर किसी पर नजर नहीं रख सकती है।

तो हम कब कह रहे हैं कि एक एक बंदे पर नजर रखो पर कम से कम क्रिमिनल्स पर इतनी लगाम तो रखो कि वो गुनाह करने के पहले एक बार पुलिसिया खौफ के बारे में सोचें। हालांकि ऐसा संभव है इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है।

आखिर में एक बात और कि अगर आपमें किसी को पुलिस का पूरा मतलब मालूम हो तो मुझे जरुर बताइएगा। क्योंकि जो मतलब मुझे पता है वो तो शायद हमारी पुलिस पर तो फिट नहीं बैठता है।

P for Polite =?
O for Obedient =?
L for Loyal =?
I for Intelligent =?
C for Courageous =?
E for Eager to help =?

अगर आप बोर हुए हों तो माफी चाहूंगा पर दिल में था सो शब्द बनकर बाहर आ गए।

अमूल्य वक्त देने का शुक्रिया।

Monday, June 29, 2009

क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके?

क्या 10वीं में बोर्ड परीक्षा इसलिए खत्म की जानी चाहिए कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में 10वीं की बोर्ड परीक्षा नहीं होती? हमारा समाज इन समाजों से अलग है, हमारा इतिहास बोध ज्यादा गहरा है, हमारे मूल्य ज्यादा नीचे तक जमे हुए हैं, ऐसे में मुझे लगता है कि शिक्षा को लेकर हमें अपने समाज, संस्कृति, इतिहास को देखकर कोई फैसला लेना चाहिए। हमें समझना पड़ेगा कि खामी कहां है, हमें समझना पड़ेगा कि गुणवत्ता क्यों गायब होती जा रही है? शुरुआत प्रायमरी से करनी पड़ेगी। जब तक प्रायमरी में सुधार नहीं होता तब तक न तो सेकेंडरी की गुणवत्ता सुधरने वाली है और न यूनिवर्सिटीज की। और जब तक ये सब नहीं सुधरता, हमारा विकास खोखला ही रहेगा और बाहर से आने वाला कोई कमजोर झोंका भी हमारे विकास की इमारत को हिला देगा।


मेरी प्रायमरी शिक्षा भारत वर्ष के एक छोटे से गांव में हुई। तब करीब 1500 की आबादी वाले हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर समेत तीन मास्टर होते थे और बच्चे थे करीब 200। आसपास के चार गांव के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे। हेडमास्टर सिर्फ कक्षा पांच के बच्चों को पढ़ाते थे और बाकी दोनों मास्टर साहब दो-दो कक्षाओं को पढ़ाते थे। इन मास्टर साहबों की सामाजिक स्थिति भी बताते चलते हैं – हेडमास्टर ब्राह्मण थे, एक मास्टर साहब कायस्थ और एक मास्टर साहब पिछड़े वर्ग से। गांव में 50 फीसदी से ज्यादा पिछड़ा वर्ग, करीब 15 फीसदी मुसलिम, 10 फीसदी दलित और बाकी ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य अगड़ी जातियां।

आज भी मैं याद करता हूं कि बच्चों की पढ़ाई को लेकर उन मास्टर साहब लोगों का समर्पण। हेडमास्टर (यानी पंडितजी) सुबह-सुबह पूरे गांव का चक्कर लगाकर बच्चों को स्कूल की तरफ ठेलते थे। तीनों मास्टर साहब नजर रखते थे कि गांव में किसका बच्चा पांच साल का हो गया है। हर नया सेशन शुरू होने पर उनकी कोशिश होती थी कि पांच साल पूरा करने वाले बच्चों का नाम स्कूल में लिख जाए। लोगों को अपने बच्चों की जन्मतिथि तो याद नहीं होती थी, लिहाजा पंडित जी अनुमान से उनकी जन्मतिथि दर्ज कर लेते थे। अनुमान लगाने का तरीका भी बहुत रोचक था- किसी ने कहा कि पंडित जी पिछली बार जब बाढ़ आई थी तब हमारा लड़का या लड़की अपनी अम्मा के गोद में थी, पिछली बार जब आग लगी थी तब यह पेट में था, जब मझिलऊ की शादी हुई थी तब यह अपने पैरों पर चलने लगा था आदि-आदि। आज मैं सोचता हूं कि पूरी दो पीढ़ियों के उन लोगों की जन्मतिथि तो पंडितजी की तय की हुई है जो स्कूल गए। आज वही उनकी आधिकारिक जन्मतिथि है। ऐसा कमिटमेंट क्या आज सरकारी स्कूलों के शिक्षकों में है? शिक्षा व्यवस्था में सार्थक बदलाव के लिए हमें पहले जवाब तलाशना होगा कि क्यों खत्म हो गया यह कमिटमेंट?

मैं अपना ही किस्सा आगे बढ़ाता हूं, शायद हमें जवाब तलाशने में मदद मिले। वे 70 के दशक के अंतिम वर्ष थे। इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी और जनता सरकार थी। इमरजेंसी के दौरान का जो मुझे याद है, उसके मुताबिक नसबंदी और दलित (हरिजन) दो ही बातें सुनाई देती थीं। हमारे मास्टर साहबों को भी केस (नसबंदी) लक्ष्य मिले हुए थे। ऊपर से उन्हें डिप्टी साहब (ब्लाक शिक्षा अधिकारी) का लक्ष्य भी पूरा कराना था। वे लोग बात किया करते थे कि केस नहीं पूरे हुए तो नौकरी पर बन आएगी। वे बेचारे इसी में दुबले होते जा रहे थे कि इमरजेंसी हट गई, जनता सरकार आ गई। लोग अपने को इंपावर्ड महसूस करने लगे।

तभी मेरे स्कूल में एक वाकया हुआ। कक्षा पांच के बच्चों में से कुछ कई दिनों से सुलेख लिखकर नहीं ला रहे थे। पंडितजी को गुस्सा आ गया। पंडितजी की यूएसपी ही उनका कड़क मिजाज था सो उन्होंने उन दोनों बच्चों की जमकर पिटाई की। दूसरे दिन सुबह उनमें से एक के पिता पंडितजी के पास आए और कहा कि बच्चे को इतना नहीं मारना चाहिए था। पंडितजी ने चुपचाप सुन लिया। बाद में कक्षा पांच के सभी बच्चों के पिता से जाकर पूछा कि क्या वे चाहते हैं कि उनके बच्चे की पिटाई न की जाए। जिन लोगों ने हां कहा, उनके बच्चे अलग से पढ़ाए जाने लगे और जिन्होंने कहा कि पंडितजी आपका बच्चा है, आपको पढ़ाना है, जैसे चाहो वैसे पढ़ाओ, उनके बच्चों को अलग से पढ़ाया जाने लगा। बाद में जब हम बड़े स्कूल गए तब पता चला कि यहां जो सेक्शन (वर्ग) होते हैं, वे तो पंडितजी ने गांव के स्कूल में ही शुरू कर दिए थे। फिर धीरे-धीरे न पंडितजी कड़क रहे और न दूसरे मास्टर साहब। पंडितजी की कपड़े की दुकान थी जिसे वे शाम को ही खोलते थे, अब दिन में भी खुलने लगी। मास्टर साहबों को भी छूट मिल गई।

एक मास्टर साहब ने पढ़ाने के साथ डाक्टरी भी करने लगे और मास्टर साहब की जगह डागदर साहब के रूप में ख्याति प्राप्त की। दूसरे ने अपनी खेती खुद करनी (पहले बटाई पर देनी पड़ती थी क्योंकि पंडितजी स्कूल से हिलने नहीं देते थे अब पंडितजी ने भी अपनी खेती खुद शुरू कर दी थी) शुरू कर दी और अगले 10 साल में गांव के बड़े काश्तकार बनकर उभरे। धीरे-धीरे स्कूल नाममात्र का रह गया। बाद में तो स्कूल में पास कराई के भी पैसे लगने लगे। पिछले दिनों पंडितजी का देहावसान हो गया। एक साल पहले मैं जब गांव गया तो देखा, हर घर के बाहर मोटरसाइकिल खड़ी थी, 25-30 ट्रैक्टर थे, पाच-छह मारुति थीं, अधिकतर मकान पक्के हो गए थे, सभी बच्चे चप्पल पहने हुए दिखाई दिए। स्कूल भी बदल गया था, मास्टर साहब अब मास्टरों में तब्दील हो गए थे, दो कमरे और बन गए थे जिसमें से एक में हेडमास्टर साहब रहते हैं और दूसरे में उनकी ओपीडी चलती है। 25-30 साल पहले रोपे गए आम-अमरूद के पौधे अब बड़ी सी बाग बन गए थे। हमने पूछा कि इसमें खूब आम लगते होंगे, लोगों ने बताया लेकिन इससे मिलने वाला पैसा अब स्कूल में नहीं लगता बल्कि मास्टरों, पंचायत और ऊपर के अधिकारियों में बंट जाता है।

गांव ही नहीं शहरों में भी यही हुआ। सरकारी स्कूल अपने बड़े-बड़े परिसरों में अपनी पुरानी गुणवत्ता की कब्रगाह बनकर रह गए हैं।

आखिर ऐसा हुआ क्यों? क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके? इनमें कहां अंतरविरोध है? कमाई साधन क्यों और कैसे बनती गई शिक्षा? मैं समझता हूं शिक्षा व्यवस्था में कोई भी सुधार, बदलाव तभी कारगर होगा जब वह ऐसे सवालों के ईमानदार जवाबों की नींव पर खड़ा होगा।

निश्चित तौर पर आपके पास भी ऐसे अनुभव और किस्से होंगे जो जमीनी हकीकत को समझने में मददगार हो सकते हैं।
तो आइए और शेयर करिए अपने अनुभव-

लेखकः श्री राजेंद्र तिवारी जी भास्कर डॉट कॉम के संपादक हैं।

क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके?

क्या 10वीं में बोर्ड परीक्षा इसलिए खत्म की जानी चाहिए कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में 10वीं की बोर्ड परीक्षा नहीं होती? हमारा समाज इन समाजों से अलग है, हमारा इतिहास बोध ज्यादा गहरा है, हमारे मूल्य ज्यादा नीचे तक जमे हुए हैं, ऐसे में मुझे लगता है कि शिक्षा को लेकर हमें अपने समाज, संस्कृति, इतिहास को देखकर कोई फैसला लेना चाहिए। हमें समझना पड़ेगा कि खामी कहां है, हमें समझना पड़ेगा कि गुणवत्ता क्यों गायब होती जा रही है? शुरुआत प्रायमरी से करनी पड़ेगी। जब तक प्रायमरी में सुधार नहीं होता तब तक न तो सेकेंडरी की गुणवत्ता सुधरने वाली है और न यूनिवर्सिटीज की। और जब तक ये सब नहीं सुधरता, हमारा विकास खोखला ही रहेगा और बाहर से आने वाला कोई कमजोर झोंका भी हमारे विकास की इमारत को हिला देगा।


मेरी प्रायमरी शिक्षा भारत वर्ष के एक छोटे से गांव में हुई। तब करीब 1500 की आबादी वाले हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर समेत तीन मास्टर होते थे और बच्चे थे करीब 200। आसपास के चार गांव के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे। हेडमास्टर सिर्फ कक्षा पांच के बच्चों को पढ़ाते थे और बाकी दोनों मास्टर साहब दो-दो कक्षाओं को पढ़ाते थे। इन मास्टर साहबों की सामाजिक स्थिति भी बताते चलते हैं – हेडमास्टर ब्राह्मण थे, एक मास्टर साहब कायस्थ और एक मास्टर साहब पिछड़े वर्ग से। गांव में 50 फीसदी से ज्यादा पिछड़ा वर्ग, करीब 15 फीसदी मुसलिम, 10 फीसदी दलित और बाकी ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य अगड़ी जातियां।

आज भी मैं याद करता हूं कि बच्चों की पढ़ाई को लेकर उन मास्टर साहब लोगों का समर्पण। हेडमास्टर (यानी पंडितजी) सुबह-सुबह पूरे गांव का चक्कर लगाकर बच्चों को स्कूल की तरफ ठेलते थे। तीनों मास्टर साहब नजर रखते थे कि गांव में किसका बच्चा पांच साल का हो गया है। हर नया सेशन शुरू होने पर उनकी कोशिश होती थी कि पांच साल पूरा करने वाले बच्चों का नाम स्कूल में लिख जाए। लोगों को अपने बच्चों की जन्मतिथि तो याद नहीं होती थी, लिहाजा पंडित जी अनुमान से उनकी जन्मतिथि दर्ज कर लेते थे। अनुमान लगाने का तरीका भी बहुत रोचक था- किसी ने कहा कि पंडित जी पिछली बार जब बाढ़ आई थी तब हमारा लड़का या लड़की अपनी अम्मा के गोद में थी, पिछली बार जब आग लगी थी तब यह पेट में था, जब मझिलऊ की शादी हुई थी तब यह अपने पैरों पर चलने लगा था आदि-आदि। आज मैं सोचता हूं कि पूरी दो पीढ़ियों के उन लोगों की जन्मतिथि तो पंडितजी की तय की हुई है जो स्कूल गए। आज वही उनकी आधिकारिक जन्मतिथि है। ऐसा कमिटमेंट क्या आज सरकारी स्कूलों के शिक्षकों में है? शिक्षा व्यवस्था में सार्थक बदलाव के लिए हमें पहले जवाब तलाशना होगा कि क्यों खत्म हो गया यह कमिटमेंट?

मैं अपना ही किस्सा आगे बढ़ाता हूं, शायद हमें जवाब तलाशने में मदद मिले। वे 70 के दशक के अंतिम वर्ष थे। इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी और जनता सरकार थी। इमरजेंसी के दौरान का जो मुझे याद है, उसके मुताबिक नसबंदी और दलित (हरिजन) दो ही बातें सुनाई देती थीं। हमारे मास्टर साहबों को भी केस (नसबंदी) लक्ष्य मिले हुए थे। ऊपर से उन्हें डिप्टी साहब (ब्लाक शिक्षा अधिकारी) का लक्ष्य भी पूरा कराना था। वे लोग बात किया करते थे कि केस नहीं पूरे हुए तो नौकरी पर बन आएगी। वे बेचारे इसी में दुबले होते जा रहे थे कि इमरजेंसी हट गई, जनता सरकार आ गई। लोग अपने को इंपावर्ड महसूस करने लगे।

तभी मेरे स्कूल में एक वाकया हुआ। कक्षा पांच के बच्चों में से कुछ कई दिनों से सुलेख लिखकर नहीं ला रहे थे। पंडितजी को गुस्सा आ गया। पंडितजी की यूएसपी ही उनका कड़क मिजाज था सो उन्होंने उन दोनों बच्चों की जमकर पिटाई की। दूसरे दिन सुबह उनमें से एक के पिता पंडितजी के पास आए और कहा कि बच्चे को इतना नहीं मारना चाहिए था। पंडितजी ने चुपचाप सुन लिया। बाद में कक्षा पांच के सभी बच्चों के पिता से जाकर पूछा कि क्या वे चाहते हैं कि उनके बच्चे की पिटाई न की जाए। जिन लोगों ने हां कहा, उनके बच्चे अलग से पढ़ाए जाने लगे और जिन्होंने कहा कि पंडितजी आपका बच्चा है, आपको पढ़ाना है, जैसे चाहो वैसे पढ़ाओ, उनके बच्चों को अलग से पढ़ाया जाने लगा। बाद में जब हम बड़े स्कूल गए तब पता चला कि यहां जो सेक्शन (वर्ग) होते हैं, वे तो पंडितजी ने गांव के स्कूल में ही शुरू कर दिए थे। फिर धीरे-धीरे न पंडितजी कड़क रहे और न दूसरे मास्टर साहब। पंडितजी की कपड़े की दुकान थी जिसे वे शाम को ही खोलते थे, अब दिन में भी खुलने लगी। मास्टर साहबों को भी छूट मिल गई।

एक मास्टर साहब ने पढ़ाने के साथ डाक्टरी भी करने लगे और मास्टर साहब की जगह डागदर साहब के रूप में ख्याति प्राप्त की। दूसरे ने अपनी खेती खुद करनी (पहले बटाई पर देनी पड़ती थी क्योंकि पंडितजी स्कूल से हिलने नहीं देते थे अब पंडितजी ने भी अपनी खेती खुद शुरू कर दी थी) शुरू कर दी और अगले 10 साल में गांव के बड़े काश्तकार बनकर उभरे। धीरे-धीरे स्कूल नाममात्र का रह गया। बाद में तो स्कूल में पास कराई के भी पैसे लगने लगे। पिछले दिनों पंडितजी का देहावसान हो गया। एक साल पहले मैं जब गांव गया तो देखा, हर घर के बाहर मोटरसाइकिल खड़ी थी, 25-30 ट्रैक्टर थे, पाच-छह मारुति थीं, अधिकतर मकान पक्के हो गए थे, सभी बच्चे चप्पल पहने हुए दिखाई दिए। स्कूल भी बदल गया था, मास्टर साहब अब मास्टरों में तब्दील हो गए थे, दो कमरे और बन गए थे जिसमें से एक में हेडमास्टर साहब रहते हैं और दूसरे में उनकी ओपीडी चलती है। 25-30 साल पहले रोपे गए आम-अमरूद के पौधे अब बड़ी सी बाग बन गए थे। हमने पूछा कि इसमें खूब आम लगते होंगे, लोगों ने बताया लेकिन इससे मिलने वाला पैसा अब स्कूल में नहीं लगता बल्कि मास्टरों, पंचायत और ऊपर के अधिकारियों में बंट जाता है।

गांव ही नहीं शहरों में भी यही हुआ। सरकारी स्कूल अपने बड़े-बड़े परिसरों में अपनी पुरानी गुणवत्ता की कब्रगाह बनकर रह गए हैं।

आखिर ऐसा हुआ क्यों? क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके? इनमें कहां अंतरविरोध है? कमाई साधन क्यों और कैसे बनती गई शिक्षा? मैं समझता हूं शिक्षा व्यवस्था में कोई भी सुधार, बदलाव तभी कारगर होगा जब वह ऐसे सवालों के ईमानदार जवाबों की नींव पर खड़ा होगा।

निश्चित तौर पर आपके पास भी ऐसे अनुभव और किस्से होंगे जो जमीनी हकीकत को समझने में मददगार हो सकते हैं।
तो आइए और शेयर करिए अपने अनुभव-

लेखकः श्री राजेंद्र तिवारी जी भास्कर डॉट कॉम के संपादक हैं।

Friday, June 26, 2009

शंका साधिनी पत्नियां करें रियाज तगड़ा


देश की प्रत्येक नारी को अपने पति पर संदेह करना चाहिए। उसके हर ज्ञात-अज्ञात कारण पर संदेह रखना ही चाहिए। संदेह करने के हर कारण पर संदेह करना चाहिए। जहां संदेह करने का कारण न भी हो, वहां भी संदेह करना चाहिए। घरेलू कामों में रत रहकर भी निरंतर संदेह की माला फेरते रहना चाहिए।

संदेह करना नारी का आभूषण है, बिंदी है, कानों के टॉप्स हैं, हाथों के कंगन हैं। संदेह करना नारी का मौलिक अधिकार है। पारिवारिक जीवन में सारे इंकलाब इसी गुण के कारण आते हैं। इंकलाब से ही नए सृजन, नए समाज का निर्माण होता है। नए समाज में नारी की स्थिति बेहतर होती है। साबित रूप से संदेह ही इन सारे परिवर्तनों की जड़ है। अत: संदेह करना ही चाहिए।

नारी को ही संदेह करना चाहिए। पुरुष संदेह करके आखिर कर क्या लेगा। फिलहाल तो संदेह के सैकड़ों प्रकारों का चलन है। कुछ घरेलू उपयोग तो कुछ बाहरी प्रयोग के लिए हैं। कुल मिलाकर हर प्रकार का अनन्यतम उद्देश्य है पति की हर गतिविधि पर गहरी नजर, कड़ी पड़ताल और मौके-बेमौके तात्कालिक पूछताछ।

पूछताछ के दौरान काल्पनिक स्थितियों के निर्माण तथा स्वर में उतार-चढ़ाव की मात्रा अत्यंत जरूरी है। संदेह तभी वांछित प्रभाव छोड़ता है, जब करने वाली उपरोक्त दोनों गुणों से ओतप्रोत हो।

यदि नारी में कल्पनाशीलता का गुण न हो तो संदेह सतही हो सकता है। स्वर साधने का तगड़ा रियाज नहीं हो तो प्रभाव की फ्रीक्वेंसी हल्की पड़ सकती है। अत: संदेह-साधना रियाज की मांग करती है। संदेह साधिका को योगिनी होना पड़ता है। पति की जेबों-रूमालों-ईमेलों पर सूक्ष्म नजर रखनी पड़ती है। उन्हें किसी बुजुर्ग महिला तक के साथ देखते ही नेत्रों को विस्फारित करने का तरीका सीखना पड़ता है। इतना गुस्सा दिखाना पड़ता है कि पतिदेव के छक्के छूट जाएं।

कई पति तो इसी दहशत में किसी काल्पनिक लड़की तक से अपने संबंधों को स्वीकार कर लेते हैं। कई भुक्तभोगी पतियों का अनुभव इस दिशा में बड़ा विकट है। पत्नी के श्रंगार करने पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है। यदि पति तैयार होने में देर कर रहा है तो पत्नी की ओर से निश्चित कमेंट आएगा। आप कितना भी कहो, ऑफिस ही तो जा रहा हूं्, लेकिन दो ही मिनट में पिछला बैकग्राउंडर जोड़ते हुए मामले को शंकास्पद मोड़ दे दिया जाएगा।

फिर बातों के इतने रंदे चलाए जाएंगे कि पावडर चपोड़े पति का चेहरा लकड़ी की तरह छिल-छिलकर जमीन पर बिखर जाएगा। कई पतियों का तो कहना है कि यदि कभी गलती से आपने घर में गुनगुना भर लिया तो इसके पीछे छिपे राज को वे इतने प्यार से आपको ही बताएंगी कि आदमी घर-मोहल्ले के सारे वाद्य यंत्रों के साथ-साथ आस-पड़ोस के समस्त गाने वालों का गला घोंटकर ही फिर इस पाप से उबर सकता है।

कुछ नारियां अत्यधिक तेज होती हैं। उनके संदेह करने के तरीके अत्यंत नवाचारी होते हैं। पति डाल-डाल तो वह पात-पात होती हैं। पति गुड़ होता है तो वह सैक्रीन हो जाती हैं। पति की हर चाल की काट के लिए मारक तुरुप लाती हैं।

तुरुप के रूप में वह अपने माता-पिता से लेकर पति के माता-पिता तक का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती हैं। आंसुओं को हमेशा स्टॉक में रखती हैं। उसका इस्तेमाल डबल तुरुप के रूप में करती हैं। अरे.., अरे.. एक मिनट भाई साब.. मैंने भी आपको सुनाने में देर लगा दी तो निश्चित ही मेरे घर में भी संदेह के बादल घिर आएंगे, मुझे बख्शो.. आप भी सीधे घर की ओर लपको..।

लेखकः श्री अनुज खरे की रचना दैनिक भास्कर के राग दरबारी कॉलम से साभार (लेखक दैनिक भास्कर के पोर्टल भास्कर डॉट कॉम के वेबसंपादक हैं।)
मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनसे सीखना का अवसर दोबारा प्राप्त हुआ है।

शंका साधिनी पत्नियां करें रियाज तगड़ा


देश की प्रत्येक नारी को अपने पति पर संदेह करना चाहिए। उसके हर ज्ञात-अज्ञात कारण पर संदेह रखना ही चाहिए। संदेह करने के हर कारण पर संदेह करना चाहिए। जहां संदेह करने का कारण न भी हो, वहां भी संदेह करना चाहिए। घरेलू कामों में रत रहकर भी निरंतर संदेह की माला फेरते रहना चाहिए।

संदेह करना नारी का आभूषण है, बिंदी है, कानों के टॉप्स हैं, हाथों के कंगन हैं। संदेह करना नारी का मौलिक अधिकार है। पारिवारिक जीवन में सारे इंकलाब इसी गुण के कारण आते हैं। इंकलाब से ही नए सृजन, नए समाज का निर्माण होता है। नए समाज में नारी की स्थिति बेहतर होती है। साबित रूप से संदेह ही इन सारे परिवर्तनों की जड़ है। अत: संदेह करना ही चाहिए।

नारी को ही संदेह करना चाहिए। पुरुष संदेह करके आखिर कर क्या लेगा। फिलहाल तो संदेह के सैकड़ों प्रकारों का चलन है। कुछ घरेलू उपयोग तो कुछ बाहरी प्रयोग के लिए हैं। कुल मिलाकर हर प्रकार का अनन्यतम उद्देश्य है पति की हर गतिविधि पर गहरी नजर, कड़ी पड़ताल और मौके-बेमौके तात्कालिक पूछताछ।

पूछताछ के दौरान काल्पनिक स्थितियों के निर्माण तथा स्वर में उतार-चढ़ाव की मात्रा अत्यंत जरूरी है। संदेह तभी वांछित प्रभाव छोड़ता है, जब करने वाली उपरोक्त दोनों गुणों से ओतप्रोत हो।

यदि नारी में कल्पनाशीलता का गुण न हो तो संदेह सतही हो सकता है। स्वर साधने का तगड़ा रियाज नहीं हो तो प्रभाव की फ्रीक्वेंसी हल्की पड़ सकती है। अत: संदेह-साधना रियाज की मांग करती है। संदेह साधिका को योगिनी होना पड़ता है। पति की जेबों-रूमालों-ईमेलों पर सूक्ष्म नजर रखनी पड़ती है। उन्हें किसी बुजुर्ग महिला तक के साथ देखते ही नेत्रों को विस्फारित करने का तरीका सीखना पड़ता है। इतना गुस्सा दिखाना पड़ता है कि पतिदेव के छक्के छूट जाएं।

कई पति तो इसी दहशत में किसी काल्पनिक लड़की तक से अपने संबंधों को स्वीकार कर लेते हैं। कई भुक्तभोगी पतियों का अनुभव इस दिशा में बड़ा विकट है। पत्नी के श्रंगार करने पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है। यदि पति तैयार होने में देर कर रहा है तो पत्नी की ओर से निश्चित कमेंट आएगा। आप कितना भी कहो, ऑफिस ही तो जा रहा हूं्, लेकिन दो ही मिनट में पिछला बैकग्राउंडर जोड़ते हुए मामले को शंकास्पद मोड़ दे दिया जाएगा।

फिर बातों के इतने रंदे चलाए जाएंगे कि पावडर चपोड़े पति का चेहरा लकड़ी की तरह छिल-छिलकर जमीन पर बिखर जाएगा। कई पतियों का तो कहना है कि यदि कभी गलती से आपने घर में गुनगुना भर लिया तो इसके पीछे छिपे राज को वे इतने प्यार से आपको ही बताएंगी कि आदमी घर-मोहल्ले के सारे वाद्य यंत्रों के साथ-साथ आस-पड़ोस के समस्त गाने वालों का गला घोंटकर ही फिर इस पाप से उबर सकता है।

कुछ नारियां अत्यधिक तेज होती हैं। उनके संदेह करने के तरीके अत्यंत नवाचारी होते हैं। पति डाल-डाल तो वह पात-पात होती हैं। पति गुड़ होता है तो वह सैक्रीन हो जाती हैं। पति की हर चाल की काट के लिए मारक तुरुप लाती हैं।

तुरुप के रूप में वह अपने माता-पिता से लेकर पति के माता-पिता तक का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती हैं। आंसुओं को हमेशा स्टॉक में रखती हैं। उसका इस्तेमाल डबल तुरुप के रूप में करती हैं। अरे.., अरे.. एक मिनट भाई साब.. मैंने भी आपको सुनाने में देर लगा दी तो निश्चित ही मेरे घर में भी संदेह के बादल घिर आएंगे, मुझे बख्शो.. आप भी सीधे घर की ओर लपको..।

लेखकः श्री अनुज खरे की रचना दैनिक भास्कर के राग दरबारी कॉलम से साभार (लेखक दैनिक भास्कर के पोर्टल भास्कर डॉट कॉम के वेबसंपादक हैं।)
मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनसे सीखना का अवसर दोबारा प्राप्त हुआ है।

Sunday, June 14, 2009

सृष्टि से पहले सत नहीं था

श्याम बेनेगल के महान निर्माण ‘भारत एक खोज’ की शुरुआत में संस्कृत के वेद आधारित श्लोकों से रचा गया गीत समूह स्वरों में गूंजता था। था क्या, अब भी कानों में गूंज रहा है। यह स्वार मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति को दो घड़ी के लिए उसके मानसिक, नैतिक और दैहिक स्तर से कुछ ऊंचा उठा देता है। जरा याद करें:

सृष्टि से पहले सत नहीं था

असत भी नहीं

अंतरिक्ष भी नहीं

आकाश भी नहीं था

छिपा था क्या कहां

किसने ढका था उस पल को

अगम अतल जल भी कहां था

सृष्टि का कौन है कर्ता

कर्ता है वह अकर्ता

ऊंचे आकाश में रहता

सदा अध्यक्ष बना रहता

वही सचमुच में जानता

या नहीं भी जानता

है किसी को नहीं पता

वो था हिरण्यगर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान

वही तो सारी भूत जाति का स्वामी महान

जो है अस्तित्ववान

धरती आसमान धारण कर

ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम

हवि देकर

जिस के बल पर तेजोमय है अंबर

पृथ्वी हरी-भरी, स्थापित, स्थिर,

स्वर्ग और सूरज भी स्थिर

ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम

हवि देकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर

व्यापा था जल इधर-उधर, नीचे-ऊपर

जगा चुके व एकमेव प्राण बनकर

ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम

हवि देकर

ऊं! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता, पूर्वज रक्षा कर

सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर

फैली हैं दिशाएं बाहु जैसी उसकी सब में सब कर

ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर

और अधिक पढ़ने के लिए क्लिक करें...

सृष्टि से पहले सत नहीं था

श्याम बेनेगल के महान निर्माण ‘भारत एक खोज’ की शुरुआत में संस्कृत के वेद आधारित श्लोकों से रचा गया गीत समूह स्वरों में गूंजता था। था क्या, अब भी कानों में गूंज रहा है। यह स्वार मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति को दो घड़ी के लिए उसके मानसिक, नैतिक और दैहिक स्तर से कुछ ऊंचा उठा देता है। जरा याद करें:

सृष्टि से पहले सत नहीं था

असत भी नहीं

अंतरिक्ष भी नहीं

आकाश भी नहीं था

छिपा था क्या कहां

किसने ढका था उस पल को

अगम अतल जल भी कहां था

सृष्टि का कौन है कर्ता

कर्ता है वह अकर्ता

ऊंचे आकाश में रहता

सदा अध्यक्ष बना रहता

वही सचमुच में जानता

या नहीं भी जानता

है किसी को नहीं पता

वो था हिरण्यगर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान

वही तो सारी भूत जाति का स्वामी महान

जो है अस्तित्ववान

धरती आसमान धारण कर

ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम

हवि देकर

जिस के बल पर तेजोमय है अंबर

पृथ्वी हरी-भरी, स्थापित, स्थिर,

स्वर्ग और सूरज भी स्थिर

ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम

हवि देकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर

व्यापा था जल इधर-उधर, नीचे-ऊपर

जगा चुके व एकमेव प्राण बनकर

ऐसे किसी देवता की उपासना करें हम

हवि देकर

ऊं! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता, पूर्वज रक्षा कर

सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर

फैली हैं दिशाएं बाहु जैसी उसकी सब में सब कर

ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर

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Friday, April 3, 2009

भास्कर के ग्रुप एडिटर नवाजे जाएंगे राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवॉर्ड से


समाजसेवी व स्वतंत्रता सेनानी रामचंद्र रघुवंशी ‘काकाजी’ की पुण्य स्मृति में आयोजित होने वाले प्रतिष्ठित राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवॉर्ड (११वां) से इस बार पत्रकार एवं दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर श्रवण गर्ग को अलंकृत किया जाएगा। उन्हें रजत मशाल, शॉल, श्रीफल व अभिनंदन पत्र प्रदान किया जाएगा। साथ ही अर्पित विजयवर्गीय स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जाएगा।

समारोह शिप्रा तट स्थित दत्तअखाड़ा पर शनिवार शाम 6.30 बजे होगा। महर्षि पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. मोहन गुप्त समारोह की अध्यक्षता करेंगे। मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शिवपालसिंह एहलावत होंगे। विशिष्ट अतिथि संस्कृतविद् महामहोपाध्याय आचार्य श्रीनिवास रथ, संत सुमनभाई, कलेक्टर अजातशत्रु, वरिष्ठ पत्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अवंतिलाल जैन, व अधिवक्ता नरेंद्र छाजेड़ रहेंगे।


काकाजी पुण्य स्मरण समारोह समिति के संयोजक ओमप्रकाश खत्री, डॉ. प्रकाश रघुवंशी ने बताया कि कार्यक्रम की शुरुआत शिप्रा तट पर जलघर बनाकर की गई थी। इस अवसर पर आयोजित सांस्कृतिक संध्या में गायक ज्वलंत शर्मा का गायन व उदीयमान नृत्यांगना प्रतिभा रघुवंशी व दल वंदना और समूह नृत्य प्रस्तुत करेगा। आयोजन समिति के सदस्य डॉ. बमशंकर जोशी व डॉ. शैलेंद्र पाराशर ने समारोह में उपस्थित होने का अनुरोध किया है।

Thursday, April 2, 2009

लोक पर हावी चुनावी तंत्र

इस बार के आम चुनावों के बाद देश में कैसी होगी राजनैतिक तस्‍वीर बता रहे हैं योगेंद्र यादव जी।

आप इस मुद्दे क्‍या विचार रखते हैं, हमें जरुर बताएं।

इन चुनावों के बाद नए-नए गठबंधन उभरेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।

इस चुनावी महासमर की आखिरी तस्वीर में अभी से ही आम वोटर हाशिए पर चला गया है। समय के पार खड़ी इन तस्वीरों में लुटियन सिटी के बंगलों के बाहर कैमरों की चकाचौंध है। यहां नेता एक घर से दूसरे घर में दाखिल होते हुए एक गांठ खोलकर दूसरा गठबंधन बना रहे हैं। यहां दलाल राजनेता से बड़ा है, लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत वोटर और उसके वोट से बड़ा है। लोकतंत्र में एक बार तंत्र लोक पर हावी है।

हम सभी की नजर में ये निराशाजनक तस्वीर गठबंधन की कोख से पैदा हुई है, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि राजनीति में गठबंधन अपने आप में गलत या अवसरवादिता का पर्याय है। इतने बड़े लोकतंत्र की राजनीति गठबंधन के सहारे ही चल सकती है। ये गठजोड़ अलग-अलग पार्टियों के एक मोर्चे की शक्ल में हो सकता है या फिर किसी राजनीतिक पार्टी के भीतर भी। आज की राजनीतिक पार्टियां गठजोड़ के इस बुनियादी सच को कबूलना नहीं चाहतीं। वे गठबंधन के लिए जरूरी सम्मान, सोच और लक्ष्य के धरातल पर खड़ी होकर वोटर के बीच नहीं जाना चाहतीं। वे वोटर के फैसले के बाद गठबंधन की ‘सेटिंग’ करना चाहती हैं। अगर हमें सिर्फ चुनावी गणित से आगे लोकतंत्र की चिंता है तो हमें समझना होगा कि आखिर सत्ताधारी यूपीए, एनडीए और तीसरी शक्ति सभी आधे-अधूरे गठबंधन के साथ चुनाव में क्यों कूद रहे हैं।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हमें सबसे पहले एक मोटी गिनती करना होगी कि हर गठबंधन ऐसी कितनी सीटों पर लड़ाई लड़ रहा है, जहां उसके जीत तक पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। ये वह सीटें हैं, जहां पिछले लोकसभा चुनावों में उसे जीत हासिल हुई थी या फिर वह दूसरे स्थान पर रहा था। इस लिहाज से 2004 के आम चुनाव में एनडीए ने 434 सीटों पर दांव आजमाया था। इनमें से भाजपा 271 और उसके सहयोगी 163 सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रहे थे, लेकिन इस बार नवीन पटनायक का बीजू जनता दल, जयललिता की एआईएडीएमके और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पीएमके समेत भाजपा के कई बड़े सहयोगियों ने उससे किनारा कर लिया है।

इसके बदले में भाजपा के हाथ में एजीपी, आईएनएलडी और आरएलडी जैसी बहुत छोटी पार्टियां ही आ पाई हैं। इसी का नतीजा है कि एनडीए इस बार ऐसी सिर्फ 356 सीटों पर किस्मत आजमा रहा है, जहां जीत की उम्मीद कर सकता है। यहां भी दिलचस्प है कि भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा 86 सीटों तक सिमट गया है। एनडीए का सिमटता दायरा भारतीय लोकतंत्र की सामाजिक विविधता को स्वीकार न करने का नतीजा है।

हालांकि 2002 में गुजरात के नरसंहार के बाद उसके किसी भी सहयोगी ने उससे अपना दामन नहीं छुड़ाया, लेकिन 2004 के आम चुनावों में मिली शिकस्त के बाद ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक सभी ने भाजपा को अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया। इन सबकी दलील थी कि गुजरात दंगों की वजह से इन्होंने मुस्लिम समुदाय के बीच अपना समर्थन गंवा दिया। इसी स्थिति से भाजपा को पहले तमिलनाडु में गुजरना पड़ा और अब उड़ीसा में। हो सकता है कि बिहार में भी उसका यही हश्र हो।
कांग्रेस की स्थिति भी भाजपा से बहुत अलग नहीं है। पिछले आम चुनावों में 425 सीटें ऐसी थीं, जहां कांग्रेस या उसके सहयोगी या तो जीत तक पहुंचे थे या दूसरे स्थान पर रहे थे। इसमें उसके सहयोगियों ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था। अगर कांग्रेस इन चुनावों में जीत को लेकर गंभीरता दिखाती तो वह चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी और जेडीएस के साथ दोस्ती कर लेती।

इस स्थिति में वह 500 सीटों पर मजबूती से लड़ सकती थी, लेकिन इसके उलट बीते पांच वर्षो में वह अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगियों को भी गंवा बैठी। आरजेडी और एलजेपी आज उसके साथ नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी को अपनी ओर कर लिया है, लेकिन वह भी इस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती। आज कांग्रेस और उसके सहयोगी महज 390 सीटों पर एक मजबूत लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस आंकड़े से सत्ता की चाबी हाथ नहीं लग सकती। कांग्रेस सहयोगियों के साथ खुले दिल से सत्ता में भागीदारी करना नहीं जानती। राजनीति की रस्सी भले ही जल जाए, लेकिन देश का खेवनहार होने की ऐंठ अभी भी बाकी है।

तीसरी शक्ति की स्थिति सबसे दिलचस्प है। एक पल सत्ता की चाबी इसके हाथ दिखती है और दूसरे ही पल ये खाली हाथ खड़ी नजर आती है। असल में किसी को भी नहीं मालूम कौन इसका हिस्सा है और कौन इसके बाहर खड़ा है, इसलिए इसे लेकर गुणा-भाग करना सबसे मुश्किल है। पिछले आम चुनाव में अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा उम्मीदवारों और सीटों के बीच इस तीसरी शक्ति की ताकत को पढ़ने की कोशिश करें तो एक बेहद सुहावनी तस्वीर सामने आती है।

देश में 50 फीसदी से ज्यादा वोट और सत्ता के लिए जरूरी आंकड़ों से यह शक्ति कुछ ही दूरी पर खड़ी दिखाई देती है। पिछले बीस वर्षो में राजनीति की तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है। जाहिर है अगर सभी गैरकांग्रेसी और गैरभाजपा दल एक साथ आ जाएं तो वे निश्चित तौर पर सबसे बड़ा राजनीतिक गठबंधन होंगे, लेकिन जैसे-जैसे तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है, तीसरा मोर्चा सिमटता गया है।
अभी तक चुनावी बिसात पर सजाई गोटियों के बीच 16 मई को नतीजों के बाद इस गठबंधन के बरकरार रहने का भरोसा नहीं जागता। सिर्फ एक ही सूरत में ये मुमकिन है, जबकि एनडीए और यूपीए दोनों मिलकर 200 सीटों का आंकड़ा पार न कर सकें। तीसरे मोर्चे के दलों की असली दिक्कत ये है कि तीसरी शक्ति की हर पार्टी देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग एजेंडों पर चलती है।

आधे-अधूरे गठबंधन का गणित चुनाव पूर्व से चुनाव बाद की मंत्रणाओं पर खिसक जाता है। चुनाव के परिणाम वोटर के हाथ से फिसलकर नेताओं और दलालों की जेब में कैद हो जाते हैं। इस ‘छठे दौर’ में नए समीकरण बनेंगे। नए गठबंधन उभार लेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही पूरी तरह हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।
जितने आधे-अधूरे ये गठबंधन हैं, उतनी ही आधी-अधूरी है लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी।
-लेखक जाने-माने चुनाव विश्लेषक हैं।

भास्‍कर डॉट कॉम से साभार