Wednesday, June 1, 2011

बुरा मानो या भला, कटु सत्य यही है


अण्णा हजारे का आंदोलन

वो समय ही अलग था, जब एक दुबली पतली काठी वाला इनसान लाठी लेकर अनशन पर बैठा और फिरंगी हुकूमत की आंखों से रातों की नींद तक उड़ गई थी। नतीजा यह कि उन्हें यह देश छोड़कर जाना पड़ा। उस इनसान का नाम मोहनदास करमचंद गांधी था, जिसने यह कारनामा कर दिखाया था। इन्हीं गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी भी चल रही थी, पर कौन जानता था कि आज़ादी के बाद यही कांग्रेस पार्टी फिरंगियों की राह पर चलते हुए आम जनता का जीना मुहाल कर देगी।

आखिर कांग्रेस ऐसा क्यों न करें, जबकि उसकी स्थापना ही एक अंग्रेज ए.ओ. ह्यूम के नेतृत्व में हुई थी। खैर, आज के हालातों पर नज़र दौड़ाकर देखिए, और सोचिए कि क्या वाकई यह वही देश है, जिसे महाशक्ति और दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्था के तमगों से लादा जा रहा है। यह कहने में कम से कम मुझे तो कोई गुरेज़ नहीं हो रहा है कि हर वो भारतीय जो अपने पद एवं अधिकारों का दुरुपयोग कर सकता है, करता है। उदाहरण एक या दो नहीं बल्कि हजारों या कहें कि शायद लाखों में मिल सकते हैं।

हो सकता है कि समाज का बुद्धिजीवी टाइप का वर्ग मेरी बातों से सहमत न भी हो, लेकिन जो सच है वो तो सच ही है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह जी का कहना है कि आंदोलनों और अनशन से कुछ नहीं होता है। उनके इस बयान का क्या मतलब लगाया जा सकता है? क्या यह कि सरकार को लोगों की भावनाओं और आंदोलन से कोई वास्ता नहीं है। हालात तो इसी ओर इशारा कर रहे हैं। अण्णा हजारे ने अनशन किया तो पूरा देश खासकर के युवा उनके समर्थन में आगे आए और सरकार ने आनन फानन में उनकी मांगो को मानने का लॉलीपॉप टिका दिया। शायद सरकार और उसकी मशीनरी “जनता की याददाश्त कमजोर होती है और जल्दी ही सबकुछ भूल जाएगी” वाले फॉर्मूले का इस्तेमाल करना चाह रही है। तभी हमारे योग गुरू बाबा रामदेव आगे आए और उन्होंने कालेधन के मुद्दे पर सरकार को घेरने का काम शुरू कर दिया। साथ ही यह भी इशारा कर दिया कि हजारे साहब के आंदोलन से उनका कोई लेना-देना नहीं है।

यहीं पर हमारी सरकार की अंगेजी चाल स्पष्ट दिखाई देने लगी। तुरंत बाबा को मनाने के लिए कबीना मंत्रियों के दल को भेजा गया। वीवीआईपी ट्रीटमेंट के साथ हवाई अड्डे पर उनका स्वागत किया गया। उनके पैरों के नीचे लाल कारपेट बिछा दिया गया। यह सब जुगत सिर्फ इसलिए ताकि बाबा अपना आंदोलन न करें और सरकार को अण्णा के मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने का एक बहाना मिल जाए। इसे एक तीर से दो शिकार करना भी कह सकते हैं।

अब जरा बात करते हैं बाबाओं की। बाबाओं का हमारे देश और इसकी राजनीति से पुराना लगाव रहा है। कुछ बाबा टाइप के भगवाधारी तो बकायदा लोकसभा एवं राज्यसभा में भी जा चुके हैं। इसके अलावा राजनीतिक संकट के समय भी बाबा भी अपनी सेटिंग का भभूत फूंकते हैं। ऐसे ही एक बाबा थे तांत्रिक चंद्रास्वामी, जो राजनीतिक जोड़तोड़ और न जाने किन किन विधाओं के पारंगत थे। हालांकि आजकल वो गुमनामी में साधना कर रहे हैं। दक्षिण में भी इस तरह के कई बाबा पाए जाते हैं, जिन पर कभी यौनाचार तो भी भ्रष्टाचार के आरोपों का तिलक लगता रहा है। पर क्या करें, हम भारतीय धर्म और आस्था के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं।

हमारे देश का मुख्य विपक्षी दल भी हर बुरे वक्त पर धर्म का सहारा लेने के लिए प्रसिद्ध है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां पर न तो अच्छे नेता है और न ही अच्छा सिस्टम। विपक्षी पार्टी का एक सूत्रीय कार्यक्रम सरकारी की निंदा करना रह गया है। पेटोल हो या महंगाई वो केवल शोर करना जानता है। इससे निपटने का कोई हल उसके पास नहीं है। हल हो भी तो कैसे, आखिर हैं तो वो भी नेता ही। और जिस किसी ने भी यह कहावत “चोर-चोर मौसेरे भाई एवं एक ही थाली के चट्टे-बट्टे” कही थी, काफी दूरदर्शी था।

इसलिए चाहे बाबा आंदोलन करें या फिर हजारे अनशन करें, सरकार के कान में जूं भी नहीं रेंगने वाली है। क्योंकि यहां की सरकारें जनता के लिए नहीं, बल्कि पार्टी एवं व्यक्तियों के लिए बनती हैं। वाह रे लोकतंत्र।

जय हो।