Wednesday, December 22, 2010

BHARAsTachar

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मंदी और महंगाई से जूझते हुए यह वर्ष 2010 भी नए साल के स्वागत के लिए तैयार हो चुका है। बीते वर्ष यानी 2008, 2009 और यह 2010 भी इतिहास में कई कारणों में याद रखे जाएंगे। विश्व खाद्यान्न संकट और तेल के बढ़ते दामों के बाद आई मंदी ने अच्छे से अच्छे देश और लोगों की कमर में लचक ला दी थी।

भारत के परिपेक्ष्य में तो यह वर्ष काफी महत्वपूर्ण भी रहे। दो वर्ष पहले हमारे देश के एक माननीय केंद्रीय मंत्री ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि भारत में लोग ज्यादा खाना खाने लगे हैं, इसलिए खाद्यान्न संकट पैदा हो गया है। हकीकत यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी भुखमरी का शिकार है। उनके लिए आवंटित अनाज को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।

भ्रष्टाचार से याद आया कि इस वर्ष यानी 2010 को भ्रष्टाचार वर्ष के रूप में याद रखा जाएगा। वजह से तो आप सभी वाकिफ हैं। इस वर्ष हमारे देश में भ्रष्टाचार में कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, अनाज घोटाला, कर्नाटक भूमि घोटाला, आईपीएल मैच में घोटाला, सेना में अनाज से लेकर कंबल आपूर्ति तक में घोटाला।

अब तो सुप्रीम कोर्ट भी मान चुकी है कि हमारे देश में बिना “खर्चा” किए कोई काम नहीं करवाया जा सकता है। वैसे भी घोटले और हमारे देश के बीच लंगोटिया याराना है। ऐसा कोई साल नहीं होता है जब यहां घोटाला न हुआ हो। आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हुआ घोटालों का दौर आज तक बदस्तूर जारी है। नेताओं और सरकारी प्रणाली में घोटाला प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की तरह है।

हर वर्ष आने वाली ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में बड़े शान के साथ भारत का नाम भी सबसे भ्रष्ट देशों की फेहरिस्त में जगमगाता है।

कार्टन साभार: हरिओम तिवारी जी के ब्लॉग कार्टून कमंडल से

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मंदी और महंगाई से जूझते हुए यह वर्ष 2010 भी नए साल के स्वागत के लिए तैयार हो चुका है। बीते वर्ष यानी 2008, 2009 और यह 2010 भी इतिहास में कई कारणों में याद रखे जाएंगे। विश्व खाद्यान्न संकट और तेल के बढ़ते दामों के बाद आई मंदी ने अच्छे से अच्छे देश और लोगों की कमर में लचक ला दी थी।

भारत के परिपेक्ष्य में तो यह वर्ष काफी महत्वपूर्ण भी रहे। दो वर्ष पहले हमारे देश के एक माननीय केंद्रीय मंत्री ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि भारत में लोग ज्यादा खाना खाने लगे हैं, इसलिए खाद्यान्न संकट पैदा हो गया है। हकीकत यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी भुखमरी का शिकार है। उनके लिए आवंटित अनाज को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।

भ्रष्टाचार से याद आया कि इस वर्ष यानी 2010 को भ्रष्टाचार वर्ष के रूप में याद रखा जाएगा। वजह से तो आप सभी वाकिफ हैं। इस वर्ष हमारे देश में भ्रष्टाचार में कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, अनाज घोटाला, कर्नाटक भूमि घोटाला, आईपीएल मैच में घोटाला, सेना में अनाज से लेकर कंबल आपूर्ति तक में घोटाला।

अब तो सुप्रीम कोर्ट भी मान चुकी है कि हमारे देश में बिना “खर्चा” किए कोई काम नहीं करवाया जा सकता है। वैसे भी घोटले और हमारे देश के बीच लंगोटिया याराना है। ऐसा कोई साल नहीं होता है जब यहां घोटाला न हुआ हो। आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हुआ घोटालों का दौर आज तक बदस्तूर जारी है। नेताओं और सरकारी प्रणाली में घोटाला प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की तरह है।

हर वर्ष आने वाली ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में बड़े शान के साथ भारत का नाम भी सबसे भ्रष्ट देशों की फेहरिस्त में जगमगाता है।

कार्टन साभार: हरिओम तिवारी जी के ब्लॉग कार्टून कमंडल से

Tuesday, December 21, 2010

नेताओं के वादों का डेटाबेस

सनी देओल का "तारीख पे तारीख...." वाला डायलाग शायद भारत के परिपेक्ष्य में हमेशा याद रखा जाएगा। मुझे लगता है कि हमारे देश के राजनेताओं की ही तरह फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी को भी पूर्वाभास हो गया था कि इस देश में तारीखों का बड़ा महत्व होगा।

हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।

लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।

महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।

रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।

लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।

पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।

यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।

रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..

बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।

नेताओं के वादों का डेटाबेस

सनी देओल का "तारीख पे तारीख...." वाला डायलाग शायद भारत के परिपेक्ष्य में हमेशा याद रखा जाएगा। मुझे लगता है कि हमारे देश के राजनेताओं की ही तरह फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी को भी पूर्वाभास हो गया था कि इस देश में तारीखों का बड़ा महत्व होगा।

हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।

लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।

महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।

रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।

लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।

पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।

यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।

रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..

बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।

Saturday, December 11, 2010

राजनीति बड़ी या देश

"लव के लिए साला कुछ भी करेगा...." यह फिल्मी गाना आपमें से अधिकांश लोगों ने तो सुना ही होगा। अगर "पॉलिटिक्स के लिए साला कुछ भी करेगा...." बोलों के साथ अगर इसे दोबारा बनाया जाए, तो यह गाना हमारे आज के नेताओं के लिए थीम सांग साबित हो सकता है।

वाकया मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जी से संबंधित है। शुक्रवार को दिग्गीराजा ने कहा कि हेमंत करकरे की मौत की वजह 26/11 के आतंकवादी नहीं बल्कि हिंदू आतंकी संगठन हैं। उन्होंने अपने बयान की पृष्ठभूमि बनाने के लिए यह तक कह डाला कि हमले के कुछ घंटे पहले ही उन्हें करकरे ने यह बताया था।

हालांकि करकरे की पत्नी की नाराजगी के बाद दिग्गी राजा अपने बयान से पलट गए। लेकिन हंसी वाली बात यह कि आखिर दिग्विजय सिंह को इस तरह का भद्दा झूठ बोलने की जरूरत क्या थी। यहां पर कुछ तकनीकी पहलू भी हैं, जिनको जाने बिना पूर्व सीएम साहब ने जबान की लगाम छोड़ दी थी। करकरे महाराष्ट्र एटीएस के अधिकारी थे, उनका दिग्गी से क्या लेना देना था। दूसरा यह कि दिग्गी के पास महाराष्ट्र कांग्रेस का प्रभार भी नहीं था। न ही वो देश के गृहमंत्री थे, तो फिर आखिर करकरे अपनी आशंका उनसे क्यों जताते।

खैर यह तो एक खालिस झूठ था, जो सही समय पर पकड़ा गया। लेकिन दूसरा कड़वा सच यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु्र्सी प्रेम में इस तरह आकंठ डूबी हैं कि अपने फायदे के लिए वो दिन को रात और रात को दिन भी कहने से पीछे नहीं हटेंगे। आपको याद होगा जब 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एआर एंतुले ने कहा था कि इस हमले के पीछे हिंदू आतंकी संगठनों का हाथ है।

इस बात का खुलासा विकीलीक्स ने भी किया है कि मुंबई हमले को कांग्रेस धर्म के आधार पर भुनाना चाह रही थी। यह सोचने वाली बात यह है कि आखिर कब हमारे नेता परिपक्व होंगे। इस तरह की ओछी हरकतों की वजह से ही देश में नेताओं की आए दिन भद पिटती रहती है। चुनावों में वोट देने वालों का प्रतिशत गिर रहा है। लोगों का सरकारी मशीनरी से भरोसा उठ रहा है। हालांकि हमारी मशीनरी भी विश्वसनीय नहीं है।

लेकिन यह समझ नहीं आता है कि हमारे नेता अपने स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर सकते हैं। संसद चलने नहीं देते, जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते हैं। कुर्सी मिलते ही अपनी जेबें गरम करने लगते हैं। सारी जांच एजेंसियां इनके आगे नतमस्तक रहती हैं। किसी भी मामले की जांच सच के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखकर की जाती है।

पुलिस और प्रशासन की हालत किसी से छिपी नहीं है। मामले को रफादफा करने के लिए वो लोग हरसंभव प्रयत्न करते हैं। लोकतंत्र के स्तंभों की नीवें हिल रही हैं। इनके हिलने की वजह का एकमात्र कारण गंदी राजनीति है। ऐसे देश का भविष्य क्या होगा। जब तक नेताओं की जमात मैं से ऊपर उठकर देश के बारे में नहीं सोचेगी, तब तक न तो जनहित ही हो सकेगा और न ही देश कोई शक्ति बन सकेगा।

केवल सभाओं और संसद में चिंता जाहिर कर देने से या भाषण दे देने भर से देश इस रोग से मुक्त नहीं हो पाएगा। इसके लिए चाहिए कठोर इच्छाशक्ति, जिसकी कमी किसी टॉनिक से पूरी नहीं की जा सकती है।

राजनीति बड़ी या देश

"लव के लिए साला कुछ भी करेगा...." यह फिल्मी गाना आपमें से अधिकांश लोगों ने तो सुना ही होगा। अगर "पॉलिटिक्स के लिए साला कुछ भी करेगा...." बोलों के साथ अगर इसे दोबारा बनाया जाए, तो यह गाना हमारे आज के नेताओं के लिए थीम सांग साबित हो सकता है।

वाकया मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जी से संबंधित है। शुक्रवार को दिग्गीराजा ने कहा कि हेमंत करकरे की मौत की वजह 26/11 के आतंकवादी नहीं बल्कि हिंदू आतंकी संगठन हैं। उन्होंने अपने बयान की पृष्ठभूमि बनाने के लिए यह तक कह डाला कि हमले के कुछ घंटे पहले ही उन्हें करकरे ने यह बताया था।

हालांकि करकरे की पत्नी की नाराजगी के बाद दिग्गी राजा अपने बयान से पलट गए। लेकिन हंसी वाली बात यह कि आखिर दिग्विजय सिंह को इस तरह का भद्दा झूठ बोलने की जरूरत क्या थी। यहां पर कुछ तकनीकी पहलू भी हैं, जिनको जाने बिना पूर्व सीएम साहब ने जबान की लगाम छोड़ दी थी। करकरे महाराष्ट्र एटीएस के अधिकारी थे, उनका दिग्गी से क्या लेना देना था। दूसरा यह कि दिग्गी के पास महाराष्ट्र कांग्रेस का प्रभार भी नहीं था। न ही वो देश के गृहमंत्री थे, तो फिर आखिर करकरे अपनी आशंका उनसे क्यों जताते।

खैर यह तो एक खालिस झूठ था, जो सही समय पर पकड़ा गया। लेकिन दूसरा कड़वा सच यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु्र्सी प्रेम में इस तरह आकंठ डूबी हैं कि अपने फायदे के लिए वो दिन को रात और रात को दिन भी कहने से पीछे नहीं हटेंगे। आपको याद होगा जब 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एआर एंतुले ने कहा था कि इस हमले के पीछे हिंदू आतंकी संगठनों का हाथ है।

इस बात का खुलासा विकीलीक्स ने भी किया है कि मुंबई हमले को कांग्रेस धर्म के आधार पर भुनाना चाह रही थी। यह सोचने वाली बात यह है कि आखिर कब हमारे नेता परिपक्व होंगे। इस तरह की ओछी हरकतों की वजह से ही देश में नेताओं की आए दिन भद पिटती रहती है। चुनावों में वोट देने वालों का प्रतिशत गिर रहा है। लोगों का सरकारी मशीनरी से भरोसा उठ रहा है। हालांकि हमारी मशीनरी भी विश्वसनीय नहीं है।

लेकिन यह समझ नहीं आता है कि हमारे नेता अपने स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर सकते हैं। संसद चलने नहीं देते, जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते हैं। कुर्सी मिलते ही अपनी जेबें गरम करने लगते हैं। सारी जांच एजेंसियां इनके आगे नतमस्तक रहती हैं। किसी भी मामले की जांच सच के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखकर की जाती है।

पुलिस और प्रशासन की हालत किसी से छिपी नहीं है। मामले को रफादफा करने के लिए वो लोग हरसंभव प्रयत्न करते हैं। लोकतंत्र के स्तंभों की नीवें हिल रही हैं। इनके हिलने की वजह का एकमात्र कारण गंदी राजनीति है। ऐसे देश का भविष्य क्या होगा। जब तक नेताओं की जमात मैं से ऊपर उठकर देश के बारे में नहीं सोचेगी, तब तक न तो जनहित ही हो सकेगा और न ही देश कोई शक्ति बन सकेगा।

केवल सभाओं और संसद में चिंता जाहिर कर देने से या भाषण दे देने भर से देश इस रोग से मुक्त नहीं हो पाएगा। इसके लिए चाहिए कठोर इच्छाशक्ति, जिसकी कमी किसी टॉनिक से पूरी नहीं की जा सकती है।

Thursday, December 9, 2010

देश बड़ा या नेता

आप सबने यह खबर तो जरूर देखी, सुनी और पढ़ी ही होगी कि अमेरिका में भारत की राजदूत के साथ पैट डाउन सुरक्षा जांच की गई। जब यह खबर मीडिया के जरिए आई तो तुरंत प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गईं। लगभग सभी ने इसे देश की आन-बान-शान और न जाने किस-किस से इसे जोड़कर रख दिया साथ ही अमेरिका की आलोचना भी की। हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने यहां तक कह डाला कि इस तरह से भारतीय अधिकारियों की बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वो अमेरिका से अपनी नाराजगी जरूर जताएंगे।

लेकिन असल मुद्दा यह है कि जैसे हम हैं क्या वैसा दूसरों का होना जरूरी है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम खुद को कानून से ऊपर मानते हैं, लेकिन दूसरे देशों में भी ऐसा हो यह जरूरी तो नहीं है। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि "जैसा देश वैसा भेष"। यदि उनकी इस बात को अमल में लाते तो ऐसी परेशानी ही नहीं आती। यही कारण है कि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था को हमने आन पर ले लिया है। अधिकांश यह सुनने को मिल रहा है कि अमेरिका जिनिवा समझौते को दरकिनार करता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इसी सुरक्षा व्यवस्था का फायदा उसे आज मिल रहा है, जबकि इसकी कमी का खामियाजा हम भुगत ही रहे हैं। हमारे देश में सरकारी अंगरक्षक तथा लाल पीली बत्तियों का काफिला लेकर शान समझा जाता है। यही वजह है कि कानून के रखवाले इन रंगों की बत्ती वाले वाहन में बैठे हुए लोगों को बिना किसी और पूछताछ के कहीं भी जाने देते हैं।

आपको याद ही होगा कि जब भी कोई नेता जेल जाता है, तो उसके लिए वहां पर हर तरफ की वीआईपी सुरक्षा मौजूद रहती है। मसलन, वो जेल जाते ही बीमार हो जाता है और तुरंत उसे किसी अस्पताल में प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। जहां वो पूरी अय्याशी के साथ अपना इलाज करवाता है।

एक सच यह भी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या फिर उनसे सांठगांठ रखने वालों पर कानून के लंबे हाथ कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं। यदा कदा किसी मोहरे को यदि कानून ने सजा दे दी तो उसका गुणगान ऐसे किया जाता है, जैसे स्वयं धर्मराज ने इंसाफ किया हो, तथा इसके बाद कोई अपराधी बनेगा ही नहीं। यहां पर मुझे विनोद दुआ (वरिष्ठ पत्रकार, एनडीटीवी समाचार चैनल) जी की कही हुई बात एकदम सही लगती है कि हमारे देश में सबसे पहले नेता हैं उसके बाद देश की बारी आती है। जबकि अमेरिका और यूरोप जैसे देश में कानून और देश शीर्ष पर हैं, नेता या आम आदमी एक समान हैं। मगर अफसोस कि यह समानता हमारे देश के लिए शायद दिवा स्वप्न है।

असल हमारे देश में देश जैसा कंसेप्ट तो बचा ही नहीं है। यहां हम नहीं बल्कि मैं का प्रभाव ज्यादा बड़ा हो गया है। यही वजह है कि नेता या आला अफसर हमारे लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करते हैं। यदि उदाहरण गिनाने बैंठूं तो महीनों लग जाएंगे गिनती पूरी होने में।

हमारे देश में, क्षमा चाहूंगा, मेरे देश में नेता और अफसर सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। यहां पर मैं तनख्वाह की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि टेबल के ऊपर और नीचे से आने वाले लिफाफों और सूटकेसों का जिक्र कर रहा हूं। हो सकता है कि कई लोग मेरी बातों से सहमत न भी हों, पर सच तो यही है कि हमारा देश तरक्की तो कर रहा है लेकिन इस तरक्की का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो आप सभी लोग ने देख, सुन और पढ़ रहे होंगे। कहीं कोई राजा बन रहा है तो कोई भ्रष्टाचार के नए आदर्श स्थापित कर रहा है।

खैर यह तो हमारे देश के लिए आम बात हो चुकी है।

वैसे हमारे देश के नेता आजकल अपने प्रोटोकॉल को लेकर भी काफी परेशान हो रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से भारत में उनकी मेहमान नवाजी होती है, वैसी अमेरिका में नही होती है। लेकिन उनको कौन समझाए कि हर देश में भारत की तरह व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में नेताओं और बड़े अधिकारियों को कई अलिखित अधिकार भी प्राप्त हैं। जिनमें सुरक्षा जांच न करवाना सबसे बड़ा अधिकार है। यदि गलती से किसी के साथ जांच जैसा कुछ हुआ तो जांच करने वाली की शामत आना अटल है। वहीं अगर अमेरिका में कोई जांच अधिकारी अपनी ड्यूटी से चूक जाए तो उसकी शामत आ जाती है। यही वजह है कि अमेरिका में 26/11 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हो पाई है। जबकि हमारे देश में नेता, अफसर और सुरक्षा एजेंसियां कुंभकरण से भी गहरी नींद में सोती हैं या फिर शायद कान में तेल डालकर बैठी हैं।

यही वजह है कि पहले कारगिल के रास्ते हमला किया गया उसके बाद संसद भवन में घुसकर हमला किया गया। इतने से भी संतुष्टि नहीं मिली तो मुंबई में 26 नवंबर का हमला किया गया। वैसे भी मुंबई में हुए हमलों को तारीख से ही याद किया जा सकता है क्योंकि वहां हर एक दो वर्ष में कोई न कोई आतंकवादी घटना होती ही रहती है और सबको याद रखने के लिए तारीख याद रखना जरूरी है। क्योंकि आतंकवादियों के लिए हमारे देश में आतंकी हमला करना किसी बच्चे के खेल से ज्यादा कठिन नहीं है।

और जहां तक बात है भ्रष्टाचार की, तो उसमें हम नोबेल के हकदार हैं। साल दर साल हम इसमें अपने अंक बढ़ाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस वर्ष की रिपोर्ट में तो हमारे देश को दुनिया का सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश होने का खिताब भी हासिल हो गया है। हमारा देश भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लचर कानून व्यवस्था के मामले पर टॉप में है। यदि विश्वास न हो तो इस वर्ष और पिछले कई वर्षों की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट्स को देख सकते हैं।

लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार हैं हमारे नेता, अफसर और जनता भी। व्यवस्थाएं इतनी सड़ चुकी हैं कि जनता को इन पर भरोसा बचा ही नहीं है। रही सही कसर पूरा कर देते हैं ये हमारे माननीय टाइप के लोग। जो इन्हें धता बताकर अपना हर काम कर लेते हैं।

देश बड़ा या नेता

आप सबने यह खबर तो जरूर देखी, सुनी और पढ़ी ही होगी कि अमेरिका में भारत की राजदूत के साथ पैट डाउन सुरक्षा जांच की गई। जब यह खबर मीडिया के जरिए आई तो तुरंत प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गईं। लगभग सभी ने इसे देश की आन-बान-शान और न जाने किस-किस से इसे जोड़कर रख दिया साथ ही अमेरिका की आलोचना भी की। हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने यहां तक कह डाला कि इस तरह से भारतीय अधिकारियों की बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वो अमेरिका से अपनी नाराजगी जरूर जताएंगे।

लेकिन असल मुद्दा यह है कि जैसे हम हैं क्या वैसा दूसरों का होना जरूरी है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम खुद को कानून से ऊपर मानते हैं, लेकिन दूसरे देशों में भी ऐसा हो यह जरूरी तो नहीं है। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि "जैसा देश वैसा भेष"। यदि उनकी इस बात को अमल में लाते तो ऐसी परेशानी ही नहीं आती। यही कारण है कि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था को हमने आन पर ले लिया है। अधिकांश यह सुनने को मिल रहा है कि अमेरिका जिनिवा समझौते को दरकिनार करता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इसी सुरक्षा व्यवस्था का फायदा उसे आज मिल रहा है, जबकि इसकी कमी का खामियाजा हम भुगत ही रहे हैं। हमारे देश में सरकारी अंगरक्षक तथा लाल पीली बत्तियों का काफिला लेकर शान समझा जाता है। यही वजह है कि कानून के रखवाले इन रंगों की बत्ती वाले वाहन में बैठे हुए लोगों को बिना किसी और पूछताछ के कहीं भी जाने देते हैं।

आपको याद ही होगा कि जब भी कोई नेता जेल जाता है, तो उसके लिए वहां पर हर तरफ की वीआईपी सुरक्षा मौजूद रहती है। मसलन, वो जेल जाते ही बीमार हो जाता है और तुरंत उसे किसी अस्पताल में प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। जहां वो पूरी अय्याशी के साथ अपना इलाज करवाता है।

एक सच यह भी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या फिर उनसे सांठगांठ रखने वालों पर कानून के लंबे हाथ कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं। यदा कदा किसी मोहरे को यदि कानून ने सजा दे दी तो उसका गुणगान ऐसे किया जाता है, जैसे स्वयं धर्मराज ने इंसाफ किया हो, तथा इसके बाद कोई अपराधी बनेगा ही नहीं। यहां पर मुझे विनोद दुआ (वरिष्ठ पत्रकार, एनडीटीवी समाचार चैनल) जी की कही हुई बात एकदम सही लगती है कि हमारे देश में सबसे पहले नेता हैं उसके बाद देश की बारी आती है। जबकि अमेरिका और यूरोप जैसे देश में कानून और देश शीर्ष पर हैं, नेता या आम आदमी एक समान हैं। मगर अफसोस कि यह समानता हमारे देश के लिए शायद दिवा स्वप्न है।

असल हमारे देश में देश जैसा कंसेप्ट तो बचा ही नहीं है। यहां हम नहीं बल्कि मैं का प्रभाव ज्यादा बड़ा हो गया है। यही वजह है कि नेता या आला अफसर हमारे लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करते हैं। यदि उदाहरण गिनाने बैंठूं तो महीनों लग जाएंगे गिनती पूरी होने में।

हमारे देश में, क्षमा चाहूंगा, मेरे देश में नेता और अफसर सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। यहां पर मैं तनख्वाह की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि टेबल के ऊपर और नीचे से आने वाले लिफाफों और सूटकेसों का जिक्र कर रहा हूं। हो सकता है कि कई लोग मेरी बातों से सहमत न भी हों, पर सच तो यही है कि हमारा देश तरक्की तो कर रहा है लेकिन इस तरक्की का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो आप सभी लोग ने देख, सुन और पढ़ रहे होंगे। कहीं कोई राजा बन रहा है तो कोई भ्रष्टाचार के नए आदर्श स्थापित कर रहा है।

खैर यह तो हमारे देश के लिए आम बात हो चुकी है।

वैसे हमारे देश के नेता आजकल अपने प्रोटोकॉल को लेकर भी काफी परेशान हो रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से भारत में उनकी मेहमान नवाजी होती है, वैसी अमेरिका में नही होती है। लेकिन उनको कौन समझाए कि हर देश में भारत की तरह व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में नेताओं और बड़े अधिकारियों को कई अलिखित अधिकार भी प्राप्त हैं। जिनमें सुरक्षा जांच न करवाना सबसे बड़ा अधिकार है। यदि गलती से किसी के साथ जांच जैसा कुछ हुआ तो जांच करने वाली की शामत आना अटल है। वहीं अगर अमेरिका में कोई जांच अधिकारी अपनी ड्यूटी से चूक जाए तो उसकी शामत आ जाती है। यही वजह है कि अमेरिका में 26/11 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हो पाई है। जबकि हमारे देश में नेता, अफसर और सुरक्षा एजेंसियां कुंभकरण से भी गहरी नींद में सोती हैं या फिर शायद कान में तेल डालकर बैठी हैं।

यही वजह है कि पहले कारगिल के रास्ते हमला किया गया उसके बाद संसद भवन में घुसकर हमला किया गया। इतने से भी संतुष्टि नहीं मिली तो मुंबई में 26 नवंबर का हमला किया गया। वैसे भी मुंबई में हुए हमलों को तारीख से ही याद किया जा सकता है क्योंकि वहां हर एक दो वर्ष में कोई न कोई आतंकवादी घटना होती ही रहती है और सबको याद रखने के लिए तारीख याद रखना जरूरी है। क्योंकि आतंकवादियों के लिए हमारे देश में आतंकी हमला करना किसी बच्चे के खेल से ज्यादा कठिन नहीं है।

और जहां तक बात है भ्रष्टाचार की, तो उसमें हम नोबेल के हकदार हैं। साल दर साल हम इसमें अपने अंक बढ़ाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस वर्ष की रिपोर्ट में तो हमारे देश को दुनिया का सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश होने का खिताब भी हासिल हो गया है। हमारा देश भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लचर कानून व्यवस्था के मामले पर टॉप में है। यदि विश्वास न हो तो इस वर्ष और पिछले कई वर्षों की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट्स को देख सकते हैं।

लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार हैं हमारे नेता, अफसर और जनता भी। व्यवस्थाएं इतनी सड़ चुकी हैं कि जनता को इन पर भरोसा बचा ही नहीं है। रही सही कसर पूरा कर देते हैं ये हमारे माननीय टाइप के लोग। जो इन्हें धता बताकर अपना हर काम कर लेते हैं।

Friday, November 26, 2010

शिव के राज में जलाई जा रही हैं बहनें

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह स्वयं को प्रदेश भर की महिलाओं का भाई कहते नहीं थकते हैं। महिलाओं और बेटियों के कल्याण के लिए उन्होंने योजनाएं भी चलाईं हैं। लेकिन इन योजनाओं का फायदा सबसे ज्यादा किसे हो रहा है, यह तो जमीन पर उतरने पर ही मालूम पड़ता है। प्रदेश में बलात्कार की घटनाओं पर लगाम नहीं लगाई जा पा रही है। हवस में अंधे लोग अबोध बच्चियों तक को अपना निशाना बना रहे हैं। देशभक्ति जनसेवा का ढोल पीटने वाली पुलिस को तो जितना कोसो उतना कम। पुलिस कितनी सक्रिय है यह आप प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी से भी जान सकते हैं, जिन्हें अपने घर पर हुई एक लूट की रिपोर्ट लिखवाने में पसीना आ गया था।

खैर, मुद्दे की बात तो यह है कि दमोह जिले के पथरिया ब्लॉक में एक महिला पर कुछ दबंगों ने केरोसीन तेल डालकर उसे जलाने का प्रयत्न किया। सभी दबंग अपने कारनामे को अंजाम देने के बाद से फरार हैं तथा पुलिस सांप निकलने के बाद लकीर पीट रही है। अब बताइए यह हालात उस जिले के हैं, जहां से जयंत मलैया कैबीनेट मंत्री हैं तथा उनकी पत्नी सुधा मलैया राष्ट्रीय महिला अधिकार आयोग की सदस्य रह चुकी हैं।

वैसे महिलाओं के प्रति केवल मध्यप्रदेश में ही अपराध नहीं हो रहे हैं, बल्कि दिल्ली इसमें भी राष्ट्रीय दर्जा हासिल किए हुए है। दिल्ली हाफ मैराथन के दौरान अभिनेत्री एवं मॉडल गुल पनाग के साथ हुई बदतमीजी का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि चलते ऑटो में सामूहिक बलात्कार किया गया। पूरी दिल्ली और एनसीआर के लिए महिला अपराध कोई बात नहीं रह गए हैं। अफसोस तो इस बात का है कि देश की राजधानी के हालातों से ही बाकी देश के बारे में पता लगाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है।

एक देश जहां की राष्ट्रपति महिला है, राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश की मुख्यमंत्री भी महिला है, महिला सशक्तिकरण का ढोल आए दिन संसद से सड़क तक पीटा जाता है। वहां पर कानून महिलाओं की सुरक्षा कर पाने में लाचार क्या हैं।

शिव के राज में जलाई जा रही हैं बहनें

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह स्वयं को प्रदेश भर की महिलाओं का भाई कहते नहीं थकते हैं। महिलाओं और बेटियों के कल्याण के लिए उन्होंने योजनाएं भी चलाईं हैं। लेकिन इन योजनाओं का फायदा सबसे ज्यादा किसे हो रहा है, यह तो जमीन पर उतरने पर ही मालूम पड़ता है। प्रदेश में बलात्कार की घटनाओं पर लगाम नहीं लगाई जा पा रही है। हवस में अंधे लोग अबोध बच्चियों तक को अपना निशाना बना रहे हैं। देशभक्ति जनसेवा का ढोल पीटने वाली पुलिस को तो जितना कोसो उतना कम। पुलिस कितनी सक्रिय है यह आप प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी से भी जान सकते हैं, जिन्हें अपने घर पर हुई एक लूट की रिपोर्ट लिखवाने में पसीना आ गया था।

खैर, मुद्दे की बात तो यह है कि दमोह जिले के पथरिया ब्लॉक में एक महिला पर कुछ दबंगों ने केरोसीन तेल डालकर उसे जलाने का प्रयत्न किया। सभी दबंग अपने कारनामे को अंजाम देने के बाद से फरार हैं तथा पुलिस सांप निकलने के बाद लकीर पीट रही है। अब बताइए यह हालात उस जिले के हैं, जहां से जयंत मलैया कैबीनेट मंत्री हैं तथा उनकी पत्नी सुधा मलैया राष्ट्रीय महिला अधिकार आयोग की सदस्य रह चुकी हैं।

वैसे महिलाओं के प्रति केवल मध्यप्रदेश में ही अपराध नहीं हो रहे हैं, बल्कि दिल्ली इसमें भी राष्ट्रीय दर्जा हासिल किए हुए है। दिल्ली हाफ मैराथन के दौरान अभिनेत्री एवं मॉडल गुल पनाग के साथ हुई बदतमीजी का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि चलते ऑटो में सामूहिक बलात्कार किया गया। पूरी दिल्ली और एनसीआर के लिए महिला अपराध कोई बात नहीं रह गए हैं। अफसोस तो इस बात का है कि देश की राजधानी के हालातों से ही बाकी देश के बारे में पता लगाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है।

एक देश जहां की राष्ट्रपति महिला है, राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश की मुख्यमंत्री भी महिला है, महिला सशक्तिकरण का ढोल आए दिन संसद से सड़क तक पीटा जाता है। वहां पर कानून महिलाओं की सुरक्षा कर पाने में लाचार क्या हैं।

Wednesday, November 24, 2010

लद गए नारों के दिन

बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे एक ऎसी भाषा बोल रहे हैं जिससे राहुल गांधी और लालू प्रसाद यादव को सीख लेनी चाहिए। न राहुल का व्यापारिक/ पेशेवर, भर्ती-प्रशिक्षण का फार्मूला काम आया, न ही लालू के जातिगत समीकरण। उनकी पत्नी और वर्तमान विधानसभा में विपक्ष की नेता राबड़ी देवी दो स्थानों से खड़ी होकर भी हार गई। आने वाले समय की राजनीति के लिए बिहार के चुनाव बड़े परिवर्तनों की ओर इशारा कर रहे हैं। तीन-चौथाई बहुमत का अर्थ है प्रदेश का एकमत हो जाना। जाति-पाति, धर्म-सम्प्रदाय से ऊपर उठकर विकासवाद को समर्थन देना। न हिन्दू-मुसलमान, न दलित-सवर्ण। पहली बार ऎसा नजारा चुनावों में युवाशक्ति ने पैदा करके दिखा दिया।

 भारतीय लोकतंत्र नीतीश कुमार को अपनी दूरदर्शिता के लिए भी याद रखेगा। नरेन्द्र मोदी के प्रचार करने के मुद्दे पर जो रूख अपनाया और अन्तत: भाजपा ने भी माना, उस कारण इस बार भाजपा को अच्छी बढ़त मिली। यह भी सत्य है कि यह सीटें नीतीश की जद यू को ही मिली हैं। भाजपा को विनम्रता से इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। नई पीढ़ी की भी अपनी भाषा है। उसे नकारात्मक आलोचना करने वाले नेता नहीं चाहिए।

कुछ कर दिखाने वाले नेता चाहिए। पूर्व में बिहार की छवि क्या थी? स्वयं लालू की क्या थी? बिहार को उस छवि से बाहर निकाल कर लाना तलवार की धार पर ही चलना था। आज इस दृष्टि से लोगों में नए विश्वास का संचार हुआ है। सूर्यास्त के बाद जिस बिहार में यात्रा करने में डर लगता था, उसके कर्णधार किनारे लगा दिए गए। नागरिकों में विश्वास के कारण ही मतदान आठ प्रतिशत बढ़ गया। बिहार में बूथ केप्चरिंग आम बात थी। दलितों पर अत्याचार देश में चर्चा का विषय था। नीतीश ने महादलित श्रेणी बनाकर उनको अलग से सुविधाएं उपलब्ध करवाई। उन्होंने शायद मतदान भी पहली बार किया होगा।

 महिला सशक्तिकरण दूसरा क्षेत्र रहा विकास का। पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण कर दिया। महिलाओं के मन में भय भी कम हुआ। गुण्डाराज चला गया। सारी पार्टियों के दिग्गज अपना-अपना जोर लगाकर भी खाली हाथ लौटे।

 मुद्दे की बात यह भी है कि इस चुनाव का प्रभाव यू.पी., राजस्थान जैसे प्रदेशों के भावी चुनावों पर भी पड़ेगा। इस दृष्टि से दोनों बड़े दलों को अपनी नीतियों के साथ अपने नेताओं के आचरण का भी आकलन समय रहते कर लेना चाहिए। पार्टियां भले ही लिहाजवश पुराने नेताओं को और अपराघियों को टिकिट दे दें, युवा शक्ति की विकास वाद एवं गुड गवर्नेन्स की इच्छाशक्ति उनको नकार देगी।

युवा शक्ति का दम भरने वाले और आधुनिक प्रबन्ध कौशल के लिए प्रचारित राहुल गांधी को भी धूल क्यों चाटनी पड़ी? क्या कांग्रेस अपने पार्टी शासित राज्यों में तैयारी दिखाएगी? क्या भाजपा राष्ट्रीय हिन्दुवाद और भारतीय हिन्दुवाद के मुलम्मों को हटा पाएगी? जिस प्रकार नीतीश ने भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति जब्त करने जैसे आश्वासन लोगों को दिए हैं, वे वास्तव में अपना असर छोड़ गए।

 सबसे अहम बात जो इस चुनाव में सामने आई वह यह कि आज देश स्तर का नेता किसी पार्टी में नहीं है। या तो वे प्रदेश स्तर के हैं अथवा पार्टी स्तर के। अभी तो स्वयं सोनिया गांधी को लिखे हुए भाषण देने होते हैं। न तो ऎसे नेता देश की नब्ज ही पहचान सकते हैं, न ही नागरिकों का दिल ही छू सकते हैं। अटल जी के बाद भाजपा शीर्ष भी जिस प्रकार पद लोलुपता एवं भ्रष्टाचार के लिए प्रकाशित हुआ इससे पार्टी की छवि धूमिल हुई है।

झारखण्ड में झामुमो के साथ गठबन्धन की सरकार बनाने पर भाजपा की देशभर में किरकिरी भी हो चुकी है। यह दूसरी बात है कि सत्ता के लालच में सब जायज मान लिया गया। बिहार चुनाव कह रहे हैं कि जल्दी से जल्दी भाजपा अपने को झामुमो से अलग करे और नया जनादेश मांगे। जद यू के साथ वहां भी बिहार का प्रभाव दिखाई देगा। अपनी खोई छवि को भी पुन: प्रतिष्ठित किया जा सकता है।

साथ ही चुनाव ने यह संकेत भी दिया है कि अच्छी पार्टी के साथ जुड़ना भी अच्छे परिणाम दे सकता है। बशर्ते कि अहंकार छोड़कर, आलोचना की भाषा छोड़कर, सकारात्मक भाव से आगे आएं। युवा शक्ति के मन में अपने ब्राण्ड को प्रतिष्ठित करना पड़ेगा। पुरानी पीढ़ी की तरह यह बार-बार अवसर नहीं देने वाली। पार्टियों को इस गलतफहमी में भी अब नहीं रहना चाहिए कि कांग्रेस हारेगी तो भाजपा की सरकार अपने आप ही बन जाएगी अथवा भाजपा हारी तो कांग्रेस का राज आ ही जाएगा। रास्ता नीतीश ने दिखा दिया है, चलना या न चलना दलों की मर्जी। युवा शक्ति ने तो अपना असली परिचय दिखा दिया है।

गुलाब कोठारी (राजस्थान पत्रिका डॉट कॉम से साभार)

लद गए नारों के दिन

बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजे एक ऎसी भाषा बोल रहे हैं जिससे राहुल गांधी और लालू प्रसाद यादव को सीख लेनी चाहिए। न राहुल का व्यापारिक/ पेशेवर, भर्ती-प्रशिक्षण का फार्मूला काम आया, न ही लालू के जातिगत समीकरण। उनकी पत्नी और वर्तमान विधानसभा में विपक्ष की नेता राबड़ी देवी दो स्थानों से खड़ी होकर भी हार गई। आने वाले समय की राजनीति के लिए बिहार के चुनाव बड़े परिवर्तनों की ओर इशारा कर रहे हैं। तीन-चौथाई बहुमत का अर्थ है प्रदेश का एकमत हो जाना। जाति-पाति, धर्म-सम्प्रदाय से ऊपर उठकर विकासवाद को समर्थन देना। न हिन्दू-मुसलमान, न दलित-सवर्ण। पहली बार ऎसा नजारा चुनावों में युवाशक्ति ने पैदा करके दिखा दिया।

 भारतीय लोकतंत्र नीतीश कुमार को अपनी दूरदर्शिता के लिए भी याद रखेगा। नरेन्द्र मोदी के प्रचार करने के मुद्दे पर जो रूख अपनाया और अन्तत: भाजपा ने भी माना, उस कारण इस बार भाजपा को अच्छी बढ़त मिली। यह भी सत्य है कि यह सीटें नीतीश की जद यू को ही मिली हैं। भाजपा को विनम्रता से इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। नई पीढ़ी की भी अपनी भाषा है। उसे नकारात्मक आलोचना करने वाले नेता नहीं चाहिए।

कुछ कर दिखाने वाले नेता चाहिए। पूर्व में बिहार की छवि क्या थी? स्वयं लालू की क्या थी? बिहार को उस छवि से बाहर निकाल कर लाना तलवार की धार पर ही चलना था। आज इस दृष्टि से लोगों में नए विश्वास का संचार हुआ है। सूर्यास्त के बाद जिस बिहार में यात्रा करने में डर लगता था, उसके कर्णधार किनारे लगा दिए गए। नागरिकों में विश्वास के कारण ही मतदान आठ प्रतिशत बढ़ गया। बिहार में बूथ केप्चरिंग आम बात थी। दलितों पर अत्याचार देश में चर्चा का विषय था। नीतीश ने महादलित श्रेणी बनाकर उनको अलग से सुविधाएं उपलब्ध करवाई। उन्होंने शायद मतदान भी पहली बार किया होगा।

 महिला सशक्तिकरण दूसरा क्षेत्र रहा विकास का। पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण कर दिया। महिलाओं के मन में भय भी कम हुआ। गुण्डाराज चला गया। सारी पार्टियों के दिग्गज अपना-अपना जोर लगाकर भी खाली हाथ लौटे।

 मुद्दे की बात यह भी है कि इस चुनाव का प्रभाव यू.पी., राजस्थान जैसे प्रदेशों के भावी चुनावों पर भी पड़ेगा। इस दृष्टि से दोनों बड़े दलों को अपनी नीतियों के साथ अपने नेताओं के आचरण का भी आकलन समय रहते कर लेना चाहिए। पार्टियां भले ही लिहाजवश पुराने नेताओं को और अपराघियों को टिकिट दे दें, युवा शक्ति की विकास वाद एवं गुड गवर्नेन्स की इच्छाशक्ति उनको नकार देगी।

युवा शक्ति का दम भरने वाले और आधुनिक प्रबन्ध कौशल के लिए प्रचारित राहुल गांधी को भी धूल क्यों चाटनी पड़ी? क्या कांग्रेस अपने पार्टी शासित राज्यों में तैयारी दिखाएगी? क्या भाजपा राष्ट्रीय हिन्दुवाद और भारतीय हिन्दुवाद के मुलम्मों को हटा पाएगी? जिस प्रकार नीतीश ने भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति जब्त करने जैसे आश्वासन लोगों को दिए हैं, वे वास्तव में अपना असर छोड़ गए।

 सबसे अहम बात जो इस चुनाव में सामने आई वह यह कि आज देश स्तर का नेता किसी पार्टी में नहीं है। या तो वे प्रदेश स्तर के हैं अथवा पार्टी स्तर के। अभी तो स्वयं सोनिया गांधी को लिखे हुए भाषण देने होते हैं। न तो ऎसे नेता देश की नब्ज ही पहचान सकते हैं, न ही नागरिकों का दिल ही छू सकते हैं। अटल जी के बाद भाजपा शीर्ष भी जिस प्रकार पद लोलुपता एवं भ्रष्टाचार के लिए प्रकाशित हुआ इससे पार्टी की छवि धूमिल हुई है।

झारखण्ड में झामुमो के साथ गठबन्धन की सरकार बनाने पर भाजपा की देशभर में किरकिरी भी हो चुकी है। यह दूसरी बात है कि सत्ता के लालच में सब जायज मान लिया गया। बिहार चुनाव कह रहे हैं कि जल्दी से जल्दी भाजपा अपने को झामुमो से अलग करे और नया जनादेश मांगे। जद यू के साथ वहां भी बिहार का प्रभाव दिखाई देगा। अपनी खोई छवि को भी पुन: प्रतिष्ठित किया जा सकता है।

साथ ही चुनाव ने यह संकेत भी दिया है कि अच्छी पार्टी के साथ जुड़ना भी अच्छे परिणाम दे सकता है। बशर्ते कि अहंकार छोड़कर, आलोचना की भाषा छोड़कर, सकारात्मक भाव से आगे आएं। युवा शक्ति के मन में अपने ब्राण्ड को प्रतिष्ठित करना पड़ेगा। पुरानी पीढ़ी की तरह यह बार-बार अवसर नहीं देने वाली। पार्टियों को इस गलतफहमी में भी अब नहीं रहना चाहिए कि कांग्रेस हारेगी तो भाजपा की सरकार अपने आप ही बन जाएगी अथवा भाजपा हारी तो कांग्रेस का राज आ ही जाएगा। रास्ता नीतीश ने दिखा दिया है, चलना या न चलना दलों की मर्जी। युवा शक्ति ने तो अपना असली परिचय दिखा दिया है।

गुलाब कोठारी (राजस्थान पत्रिका डॉट कॉम से साभार)

Thursday, October 21, 2010

प्रेस स्वतंत्रता में भारत 122वें स्थान पर

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया भारत में हांलाकि बहुत स्वतंत्र है लेकिन अपने दायित्वों को पूरा करते समय मीडिया को हजार तरह की बंदिशों का भी सामना करना पड़ता है। पत्रकार संगठन रिपोर्टर विदाउट बोर्डर्स ने कुछ यूरोपीय देशों में प्रेस पर बढ़ते नियंत्रण की आलोचना की है, लेकिन छह देशों की प्रेस स्वतंत्रता के लिए सराहना की है। जिसमें भारत को 122 स्थान प्राप्त किया है।

प्रेस की आजादी पर न्यूयॉर्क में अपनी ताजा सूची जारी करते हुए रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर्स ने कहा है कि फिनलैंड, आइसलैंड, नीडरलैंड, नॉर्वे, स्वीडन और स्विट्जरलैंड 2002 में सूची की शुरू होने के बाद से ही चोटी पर है।

पत्रकार संगठन का कहना है कि इसके साथ वे पत्रकारों के सम्मान और मीडिया की सुरक्षा में अनुकरणीय उदाहरण हैं।

पत्रकार संगठन का कहना है कि इसके विपरीत यूरोपीय संघ मीडिया की आजादी के सवाल पर नेतृत्व खोने के खतरे में है। हालाँकि यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों में से 13 रिपोर्टर विदाउट बोर्डर्स की सूची में पहले 20 में शामिल हैं, लेकिन बाकी 14 सूची में बहुत नीचे हैं।

यूरोपीय संघ के महत्वपूर्ण सदस्यों में शामिल फ्रांस 44वें, इटली 49वें, रुमानिया 52वें और ग्रीस तथा बुल्गारिया बेनिनकेन्या और कोमोरोन के साथ 70वें स्थान पर हैं। जर्मनी की स्थिति पिछले साल के मुकाबले सुधरी है और वह 17वें स्थान पर पहुँच गया है जबकि अमेरिका 20वें स्थान पर है। भारत 17 स्थान गिरकर 122वें स्थान पर पहुँच गया है। 178 देशों की सूची में चीन 171वें स्थान पर है।

प्रेस स्वतंत्रता में भारत 122वें स्थान पर

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया भारत में हांलाकि बहुत स्वतंत्र है लेकिन अपने दायित्वों को पूरा करते समय मीडिया को हजार तरह की बंदिशों का भी सामना करना पड़ता है। पत्रकार संगठन रिपोर्टर विदाउट बोर्डर्स ने कुछ यूरोपीय देशों में प्रेस पर बढ़ते नियंत्रण की आलोचना की है, लेकिन छह देशों की प्रेस स्वतंत्रता के लिए सराहना की है। जिसमें भारत को 122 स्थान प्राप्त किया है।

प्रेस की आजादी पर न्यूयॉर्क में अपनी ताजा सूची जारी करते हुए रिपोर्टर विदाउट बॉर्डर्स ने कहा है कि फिनलैंड, आइसलैंड, नीडरलैंड, नॉर्वे, स्वीडन और स्विट्जरलैंड 2002 में सूची की शुरू होने के बाद से ही चोटी पर है।

पत्रकार संगठन का कहना है कि इसके साथ वे पत्रकारों के सम्मान और मीडिया की सुरक्षा में अनुकरणीय उदाहरण हैं।

पत्रकार संगठन का कहना है कि इसके विपरीत यूरोपीय संघ मीडिया की आजादी के सवाल पर नेतृत्व खोने के खतरे में है। हालाँकि यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों में से 13 रिपोर्टर विदाउट बोर्डर्स की सूची में पहले 20 में शामिल हैं, लेकिन बाकी 14 सूची में बहुत नीचे हैं।

यूरोपीय संघ के महत्वपूर्ण सदस्यों में शामिल फ्रांस 44वें, इटली 49वें, रुमानिया 52वें और ग्रीस तथा बुल्गारिया बेनिनकेन्या और कोमोरोन के साथ 70वें स्थान पर हैं। जर्मनी की स्थिति पिछले साल के मुकाबले सुधरी है और वह 17वें स्थान पर पहुँच गया है जबकि अमेरिका 20वें स्थान पर है। भारत 17 स्थान गिरकर 122वें स्थान पर पहुँच गया है। 178 देशों की सूची में चीन 171वें स्थान पर है।

Thursday, October 14, 2010

नए ट्रेंड के साथ तिवारी जी

दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान के तेजतर्रार संपादक में गिने जाने वाले राजेंद्र तिवारी के बारे में लगाए जा रहे कयासों का बाजार खत्म अब हो गया है। खबर आ रही है कि वे अब अमर उजाला का पार्ट नहीं बनने जा रहे हैं। वे अपने प्रोजेक्ट के साथ विनिंग स्टोक्स के साथ जुड़ने जा रहे हैं।

विनिंग स्टोक्स एक मीडिया एचआर कंसल्टेंसी कंपनी है जो देशभर के कई बड़े मीडिया घरानों (जिसमें न्यूज एक्स और प्रभात खबर शामिल हैं) को अपनी सेवाएं उपलब्ध कराती है। इस कंपनी के मालिक हैं विप्लव बनर्जी। विप्लव बनर्जी के बारे में आपको बता दें कि वे वहीं विप्लव बनर्जी हैं जो कुछ समय पहले दैनिक भास्कर समूह के एचआर हेड हुआ करते थे। विप्लव दैनिक भास्कर के आलावा जी समूह के भी एचआर हेड रह चुके हैं। इन दोनों मीडिया संस्थानों के आलावा भी वे हिंदुस्तान लीवर में अपनी काबिलियत का लोहा मनवा चुके हैं।

सूत्रों ने बताया कि इसी विनिंग स्टोक्स के साथ राजेंद्र तिवारी भी अपने नए प्रोजेक्ट के साथ जुड़ने जा रहे हैं। वे वहां संपादकीय प्रभारी होंगे। यानी कंपनी में उनकी हैसियत संपादक की होगी। कंपनी अब नए नवेले और पुराने लोगों को तकनीक के इस्तेमाल के साथ संपादकीय के गुर सिखाएगी। जिसकी कमान राजेंद्र तिवारी के हाथ में होगी। यह कंपनी न्यूज रूम ट्रेनिंग देगी। देश में इस तरह की ट्रेनिंग देने वाली यह पहली कंपनी है। क्योंकि अभी तक आडियो वीडियो और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के साथ कोई भी इस प्रकार की ट्रेनिंग नहीं देता। राजेंद्र तिवारी कई मीडिया हाउसों में संपादकीय प्रभारी के रूम में काम कर चुके हैं। वे सहारा और अमर उजाला में भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उनके बारे में कयास लगाया जा रहा था कि वे हिंदुस्तान के बाद अमर उजाला जा सकते हैं पर उन्होंने पत्रकारिता में कुछ नया करने की ठानी और अब वे नए नवेले और पुराने लोगों को अपने न्यूज रूम ट्रेनिंग के माध्यम से संपादकीय के गुर सिखाएंगे।

जनसत्ता एक्सप्रेस डॉट नेट से साभार

नए ट्रेंड के साथ तिवारी जी

दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान के तेजतर्रार संपादक में गिने जाने वाले राजेंद्र तिवारी के बारे में लगाए जा रहे कयासों का बाजार खत्म अब हो गया है। खबर आ रही है कि वे अब अमर उजाला का पार्ट नहीं बनने जा रहे हैं। वे अपने प्रोजेक्ट के साथ विनिंग स्टोक्स के साथ जुड़ने जा रहे हैं।

विनिंग स्टोक्स एक मीडिया एचआर कंसल्टेंसी कंपनी है जो देशभर के कई बड़े मीडिया घरानों (जिसमें न्यूज एक्स और प्रभात खबर शामिल हैं) को अपनी सेवाएं उपलब्ध कराती है। इस कंपनी के मालिक हैं विप्लव बनर्जी। विप्लव बनर्जी के बारे में आपको बता दें कि वे वहीं विप्लव बनर्जी हैं जो कुछ समय पहले दैनिक भास्कर समूह के एचआर हेड हुआ करते थे। विप्लव दैनिक भास्कर के आलावा जी समूह के भी एचआर हेड रह चुके हैं। इन दोनों मीडिया संस्थानों के आलावा भी वे हिंदुस्तान लीवर में अपनी काबिलियत का लोहा मनवा चुके हैं।

सूत्रों ने बताया कि इसी विनिंग स्टोक्स के साथ राजेंद्र तिवारी भी अपने नए प्रोजेक्ट के साथ जुड़ने जा रहे हैं। वे वहां संपादकीय प्रभारी होंगे। यानी कंपनी में उनकी हैसियत संपादक की होगी। कंपनी अब नए नवेले और पुराने लोगों को तकनीक के इस्तेमाल के साथ संपादकीय के गुर सिखाएगी। जिसकी कमान राजेंद्र तिवारी के हाथ में होगी। यह कंपनी न्यूज रूम ट्रेनिंग देगी। देश में इस तरह की ट्रेनिंग देने वाली यह पहली कंपनी है। क्योंकि अभी तक आडियो वीडियो और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के साथ कोई भी इस प्रकार की ट्रेनिंग नहीं देता। राजेंद्र तिवारी कई मीडिया हाउसों में संपादकीय प्रभारी के रूम में काम कर चुके हैं। वे सहारा और अमर उजाला में भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उनके बारे में कयास लगाया जा रहा था कि वे हिंदुस्तान के बाद अमर उजाला जा सकते हैं पर उन्होंने पत्रकारिता में कुछ नया करने की ठानी और अब वे नए नवेले और पुराने लोगों को अपने न्यूज रूम ट्रेनिंग के माध्यम से संपादकीय के गुर सिखाएंगे।

जनसत्ता एक्सप्रेस डॉट नेट से साभार

Tuesday, October 5, 2010

इस हूटिंग की गूंज सुनें

कॉमनवेल्थ खेलों का भव्य और रंगारंग शुभारंभ हुआ और हमने अपनी लोक-शास्त्रीय शैली की कलाओं के साथ ही अत्याधुनिक तकनीक का प्रदर्शन कर पूरी दुनिया का मन मोह लिया। लेकिन इस अवसर पर एक और महत्वपूर्ण बात हुई। भारत के कॉमनवेल्थ दल का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत करने वाले दर्शकों ने आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी का नाम पुकारे जाने पर उनकी हूटिंग की। इस हूटिंग के आश्य स्पष्ट हैं। यह हमारे तंत्र के लिए अवाम का साफ संदेश है कि अब वह भ्रष्टाचार और अनियमितता को बर्दाश्त नहीं करेगी। हमारे हुक्मरान इस हूटिंग की गूंज सुन रहे हैं?


साभारः दैनिक भास्कर अखबार

इस हूटिंग की गूंज सुनें

कॉमनवेल्थ खेलों का भव्य और रंगारंग शुभारंभ हुआ और हमने अपनी लोक-शास्त्रीय शैली की कलाओं के साथ ही अत्याधुनिक तकनीक का प्रदर्शन कर पूरी दुनिया का मन मोह लिया। लेकिन इस अवसर पर एक और महत्वपूर्ण बात हुई। भारत के कॉमनवेल्थ दल का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत करने वाले दर्शकों ने आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी का नाम पुकारे जाने पर उनकी हूटिंग की। इस हूटिंग के आश्य स्पष्ट हैं। यह हमारे तंत्र के लिए अवाम का साफ संदेश है कि अब वह भ्रष्टाचार और अनियमितता को बर्दाश्त नहीं करेगी। हमारे हुक्मरान इस हूटिंग की गूंज सुन रहे हैं?


साभारः दैनिक भास्कर अखबार

Saturday, August 21, 2010

भारतीय रुपए की विकास यात्रा

भारतीय रुपए के लिए 15 जुलाई, 2010 का दिन एक ऐतिहासिक दिन कहलाएगा। इसी दिन भारतीय रुपये को भी विष्व की अन्य प्रमुख मुद्राओं की भांति अलग पहचान मिली। डॉलर, यूरो, पौंड और येन की तरह अब रुपये को भी नया प्रतीक मिल गया है। रुपये का नया प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' को मिला कर बना है। अभी तक रुपये की अभिव्यक्ति विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग संक्षिप्ताक्षरों में की जाती थी।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई आई टी), मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट श्री डी. उदय कुमार द्वारा रचित रुपये के नए प्रतीक का अनुमोदन केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने 15 जुलाई को कर दिया। मंत्रिमंडल के निर्णय के बारे में पत्रकारों को जानकारी देते हुए केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने कहा कि भारतीय मुद्रा के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। यह प्रतीक भारतीय मुद्रा को एक विषिष्ट पहचान और चरित्र प्रदान करेगा। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया वैष्विक चेहरा पेष करने के अतिरिक्त उसे सुदृढ़ता भी प्रदान करेगा।

नया प्रतीक न तो नोटों पर छापा जाएगा और न ही उसे सिक्कों में ढाला जाएगा। इसे यूनिकोड स्टैंडर्ड' में शामिल किया जाएगा, ताकि यह सुनिष्चित किया जा सके कि इसे इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में आसानी से प्रदर्षित और मुद्रित किया जा सके। भारतीय मानक में रुपये के प्रतीक की इनकोडिंग (कूटांकन) में संभवत: 6 महीने का समय लगेगा, जबकि यूनिकोड और आई एस ओ#आई ई सी 10646 में इनकोडिंग के लिए डेढ़ से दो साल गने का अनुमान है। भारत में प्रयुक्त कीबोर्डों और साफ्टवेयर पैकेजों में इसे समाविष्ट किया जाएगा।

पांच मार्च 2009 को सरकार ने रुपये का प्रतीक चिह्न तैयार करने के लिए एक प्रतियोगिता की घोषणा की। भारतीय संस्कृति और स्वभाव को परिलक्षित और प्रतिबिम्बित करने वाली प्रविष्टियां देष भर से आमंत्रित की गईं। तीन हजार से अधिक प्रविष्टियां प्राप्त हुईं। जिनका मूल्यांकन भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर की अध्यक्षता वाले एक निर्णायक मंडल ने किया। निर्णायक मंडल में कला और अभिकल्पन संस्थाओं के तीन प्रतिष्ठित विशेषज्ञ भी शामिल थे। उसने पांच प्रविष्टियों का चुनाव कर अपनी टिप्पणियों के साथ अंतिम निर्णय के लिए सरकार के पास भेज दिया।

श्री उदय कुमार की प्रविष्टि को इन पांचों में सर्वश्रेष्ठ पाया गया। उन्हें ढाई लाख रुपये का पुरस्कार तो मिलेगा ही, बल्कि उससे भी अधिक रुपये के प्रतीक चिह्न की रचना करने वाले व्यक्ति के तौर पर भारी प्रसिध्दि भी मिलेगी। अपनी प्रविष्टि के चयन से प्रसन्न उदय ने कहा कि 'मेरी डिजाइन (रूपांकन) भारतीय (देवनागरी) लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' का आदर्श मिश्रण है। भारतीय रुपये का प्रतिनिधित्व करने वाला यह प्रतीक भारतीय और अन्तर्राष्ट्रीय (गुण ग्राहको) सभी को अपील करेगा। यह भारतीय तिरंगे से प्रेरित है। ऊपर दो लाइनें दी गई हैं और बीच में रिक्त स्थान रखा गया है।'

रुपया शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द 'रौप्य' से हुई है, जिसका अर्थ होता है, चांदी। भारतीय रुपये को हिंदी में 'रुपया,' गुजराती में रुपयों, तेलगू और कन्नड़ में 'रूपई', तमिल में 'रुबाई' और संस्कृत में 'रुप्यकम' कहा जाता है, परन्तु पूर्वी भारत में, बंगाल और असमिया में टका#टॉका और तथा ओड़िया में 'टंका' कहा जाता है।

भारत की गिनती उन गिने चुने देशों में होती है जिसने सबसे पहले सिक्के जारी किए। परिणामत: इसके इतिहास में अनेक मौद्रिक इकाइयों (मुद्राओं) का उल्लेख मिलता है। इस बात के कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं कि पहले सिक्के 2500 और 1750 ईसा पूर्व के बीच कभी जारी किए गए थे। परन्तु दस्तावेजी प्रभाव सातवीं#छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच सिक्कों की ढलाई के ही मिले हैं। इन सिक्कों के निर्माण की विशिष्ट तकनीक के कारण इन्हें पंच मार्क्ड सिक्के कहा जाता है।

अगली कुछ सदियों के दौरान जैसे-जैसे साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ तथा परम्पराओं का विकास हुआ, देश की मुद्राओं में इसका प्रगति-क्रम दिखाई देने लगा। इन मुद्राओं से प्राय: तत्कालीन राजवंश, सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं, आराहय देवों और प्रकृति का परिचय मिलता था। इनमें इंडो-ग्रीक (भारत-यूनान) काल के यूनानी देवताओं और उसके बाद के पश्चिमी क्षत्रप वाली तांबे की मुद्रायें शामिल हैं जो पहली और चौथी शताब्दी (ईसवीं) के दौरान जारी की गई थी।

अरबों ने 712 ईसवीं में भारत के सिंघ प्रांत को जीत कर उस पर अपना प्रमुख स्थापित किया। बारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के तुर्क सुल्तानों ने लंबे समय से चली आ रही अरबी डिजाइन को हटाकर उनके स्थान पर इस्लामी लिखावटों को मुद्रित कराया। इस मुद्रा को 'टंका' कहा जाता था। दिल्ली के सुल्तानों ने इस मौद्रिक प्रणाली का मानकीकरण करने का प्रयास किया और फिर बाद में सोने, चांदी और तांबे की मुद्राओं का प्रचलन शुरू हो गया।

सन् 1526 में मुगलों का शासन काल शुरू होने के बाद समूचे साम्राज्य में एकीकृत और सुगठित मौद्रिक प्रणाली की शुरूआत हुई। अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी (1540 से 1545) ने चांदी के 'रुपैये' अथवा रुपये के सिक्के की शुरूआत की। पूर्व-उपनिवेशकाल के भारत के राजे-रजवाड़ों ने अपनी अलग मुद्राओं की ढलाई करवाई, जो मुख्यत: चांदी के रुपये जैसे ही दिखती थीं, केवल उन पर उनके मूल स्थान (रियासतों) की क्षेत्रीय विशेषतायें भर अंकित होती थीं।

अट्ठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में, एजेंसी घरानों ने बैंको का विकास किया। बैंक ऑफ बंगाल, दि बैंक ऑफ हिन्दुस्तान, ओरियंटल बैंक कार्पोरेशन और दि बैंक ऑफ वेस्टर्न इंडिया इनमें प्रमुख थे। इन बैंकों ने अपनी अलग-अलग कागजी मुद्रायें-उर्दू, बंगला और देवनागरी लिपियों में मुद्रित करवाई।

लगभग सौ वर्षों तक निजी और प्रेसीडेंसी बैंकों द्वारा जारी बैंक नोटों का प्रचलन बना रहा, परन्तु 1961 के पेपर करेंसी कानून बनने के बाद इस पर केवल सरकार का एकाधिकार रह गया। ब्रिटिश सरकार ने बैंक नोटों के वितरण में मदद के लिए पहले तो प्रेसीडेंसी बैंकों को ही अपने एजेंट के रूप में नियुक्त किया, क्योंकि एक बड़े भू-भाग में सामान्य नोटों के इस्तेमाल को बढ़ाया देना एक दुष्कर कार्य था। महारानी विक्टोरिया के सम्मान में 1867 में पहली बार उनके चित्र की श्रृंखला वाले बैंक नोट जारी किए गए। ये नोट एक ही ओर छापे गए (यूनीफेस्ड) थे और पांच मूल्यों में जारी किए गए थे।

बैंक नोटों के मुद्रण और वितरण का दायित्व 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक के हाथ में आ गया। जार्ज पंचम के चित्र वाले नोटों के स्थान पर 1938 में जार्ज षष्ठम के चित्र वाले नोट जारी किए गए, जो 1947 तक प्रचलन में रहे। भारत की स्वतंत्रता के बाद उनकी छपाई बंद हो गई और सारनाथ के सिंहों के स्तम्भ वाले नोटों ने इन का स्थान ले लिया।

भारतीय रुपया 1957 तक तो 16 आनों में विभाजित रहा, परन्तु उसके बाद (1957) में ही उसने मुद्रा की दशमलव प्रणाली अपना ली और एक रुपये का पुनर्गन 100 समान पैसों में किया गया। महात्मा गांधी वाले कागजी नोटों की श्रृंखला की शुरूआत 1996 में हुई, जो आज तक चलन में है।

नकली मुद्रा की चुनौती से निपटने के लिए भारतीय रुपये के नोटों में सुरक्षा संबंधी अनेक विशेषताओं को समाहित किया गया है। नोटों के एक ओर सफेद वाले भाग में महात्मा गांधी का जल चिन्ह् (वाटर मार्क) बना हुआ है। सभी नोटों में चांदी का सुरक्षा धागा लगा हुआ है जिस पर अंग्रेजी में आर बी आई और हिंदी में भारत अंकित है। प्रकाष के सामने लाने पर इनको देखा जा सकता है। पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों में उनका मूल्य प्रकाष में परिवर्तनीय स्याही से लिखा हुआ है। धरती के समानान्तर रखने पर ये संख्या हरी दिखाई देती हैं परन्तु तिरछे या कोण से देखने पर नीले रंग में लिखी हुई दिखाई देती हैं।

भारतीय रुपये के नोट के भाषा पटल पर भारत की 22 सरकारी भाषााओं में से 15 में उनका मूल्य मुद्रित है। ऊपर से नीचे इनका क्रम इस प्रकार है-असमिया, बंगला, गुजराती, कन्नड़, कष्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी संस्कृत, तमिल, तेलुगु और उर्दू।

सरकारी मुद्रा को रुपया कहा जाता है, जो भारत, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, मॉरिषस, मालदीव और इंडोनेषिया सहित कई देषों में प्रचलित हैं। इन सभी देषों में भारतीय रुपया, मूल्य, स्वीकार्यता और लोकप्रियता के हिसाब से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

नया प्रतीक चिन्ह पाने के साथ ही भारतीय रुपया अब विष्व की प्रमुख मुद्राओं-डॉलर, यूरो, पौंड और येन के साथ आ खड़ा हुआ है। नया प्रतीक आत्मविष्वास से परिपूर्ण नए भारत के अभ्युदय का भी प्रतीक है, जो अब वैष्विक अर्थव्यवस्था में एक विषेष जगह बना चुका है।

पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट से साभार

भारतीय रुपए की विकास यात्रा

भारतीय रुपए के लिए 15 जुलाई, 2010 का दिन एक ऐतिहासिक दिन कहलाएगा। इसी दिन भारतीय रुपये को भी विष्व की अन्य प्रमुख मुद्राओं की भांति अलग पहचान मिली। डॉलर, यूरो, पौंड और येन की तरह अब रुपये को भी नया प्रतीक मिल गया है। रुपये का नया प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' को मिला कर बना है। अभी तक रुपये की अभिव्यक्ति विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग संक्षिप्ताक्षरों में की जाती थी।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई आई टी), मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट श्री डी. उदय कुमार द्वारा रचित रुपये के नए प्रतीक का अनुमोदन केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने 15 जुलाई को कर दिया। मंत्रिमंडल के निर्णय के बारे में पत्रकारों को जानकारी देते हुए केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने कहा कि भारतीय मुद्रा के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। यह प्रतीक भारतीय मुद्रा को एक विषिष्ट पहचान और चरित्र प्रदान करेगा। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया वैष्विक चेहरा पेष करने के अतिरिक्त उसे सुदृढ़ता भी प्रदान करेगा।

नया प्रतीक न तो नोटों पर छापा जाएगा और न ही उसे सिक्कों में ढाला जाएगा। इसे यूनिकोड स्टैंडर्ड' में शामिल किया जाएगा, ताकि यह सुनिष्चित किया जा सके कि इसे इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में आसानी से प्रदर्षित और मुद्रित किया जा सके। भारतीय मानक में रुपये के प्रतीक की इनकोडिंग (कूटांकन) में संभवत: 6 महीने का समय लगेगा, जबकि यूनिकोड और आई एस ओ#आई ई सी 10646 में इनकोडिंग के लिए डेढ़ से दो साल गने का अनुमान है। भारत में प्रयुक्त कीबोर्डों और साफ्टवेयर पैकेजों में इसे समाविष्ट किया जाएगा।

पांच मार्च 2009 को सरकार ने रुपये का प्रतीक चिह्न तैयार करने के लिए एक प्रतियोगिता की घोषणा की। भारतीय संस्कृति और स्वभाव को परिलक्षित और प्रतिबिम्बित करने वाली प्रविष्टियां देष भर से आमंत्रित की गईं। तीन हजार से अधिक प्रविष्टियां प्राप्त हुईं। जिनका मूल्यांकन भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर की अध्यक्षता वाले एक निर्णायक मंडल ने किया। निर्णायक मंडल में कला और अभिकल्पन संस्थाओं के तीन प्रतिष्ठित विशेषज्ञ भी शामिल थे। उसने पांच प्रविष्टियों का चुनाव कर अपनी टिप्पणियों के साथ अंतिम निर्णय के लिए सरकार के पास भेज दिया।

श्री उदय कुमार की प्रविष्टि को इन पांचों में सर्वश्रेष्ठ पाया गया। उन्हें ढाई लाख रुपये का पुरस्कार तो मिलेगा ही, बल्कि उससे भी अधिक रुपये के प्रतीक चिह्न की रचना करने वाले व्यक्ति के तौर पर भारी प्रसिध्दि भी मिलेगी। अपनी प्रविष्टि के चयन से प्रसन्न उदय ने कहा कि 'मेरी डिजाइन (रूपांकन) भारतीय (देवनागरी) लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' का आदर्श मिश्रण है। भारतीय रुपये का प्रतिनिधित्व करने वाला यह प्रतीक भारतीय और अन्तर्राष्ट्रीय (गुण ग्राहको) सभी को अपील करेगा। यह भारतीय तिरंगे से प्रेरित है। ऊपर दो लाइनें दी गई हैं और बीच में रिक्त स्थान रखा गया है।'

रुपया शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द 'रौप्य' से हुई है, जिसका अर्थ होता है, चांदी। भारतीय रुपये को हिंदी में 'रुपया,' गुजराती में रुपयों, तेलगू और कन्नड़ में 'रूपई', तमिल में 'रुबाई' और संस्कृत में 'रुप्यकम' कहा जाता है, परन्तु पूर्वी भारत में, बंगाल और असमिया में टका#टॉका और तथा ओड़िया में 'टंका' कहा जाता है।

भारत की गिनती उन गिने चुने देशों में होती है जिसने सबसे पहले सिक्के जारी किए। परिणामत: इसके इतिहास में अनेक मौद्रिक इकाइयों (मुद्राओं) का उल्लेख मिलता है। इस बात के कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं कि पहले सिक्के 2500 और 1750 ईसा पूर्व के बीच कभी जारी किए गए थे। परन्तु दस्तावेजी प्रभाव सातवीं#छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच सिक्कों की ढलाई के ही मिले हैं। इन सिक्कों के निर्माण की विशिष्ट तकनीक के कारण इन्हें पंच मार्क्ड सिक्के कहा जाता है।

अगली कुछ सदियों के दौरान जैसे-जैसे साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ तथा परम्पराओं का विकास हुआ, देश की मुद्राओं में इसका प्रगति-क्रम दिखाई देने लगा। इन मुद्राओं से प्राय: तत्कालीन राजवंश, सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं, आराहय देवों और प्रकृति का परिचय मिलता था। इनमें इंडो-ग्रीक (भारत-यूनान) काल के यूनानी देवताओं और उसके बाद के पश्चिमी क्षत्रप वाली तांबे की मुद्रायें शामिल हैं जो पहली और चौथी शताब्दी (ईसवीं) के दौरान जारी की गई थी।

अरबों ने 712 ईसवीं में भारत के सिंघ प्रांत को जीत कर उस पर अपना प्रमुख स्थापित किया। बारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के तुर्क सुल्तानों ने लंबे समय से चली आ रही अरबी डिजाइन को हटाकर उनके स्थान पर इस्लामी लिखावटों को मुद्रित कराया। इस मुद्रा को 'टंका' कहा जाता था। दिल्ली के सुल्तानों ने इस मौद्रिक प्रणाली का मानकीकरण करने का प्रयास किया और फिर बाद में सोने, चांदी और तांबे की मुद्राओं का प्रचलन शुरू हो गया।

सन् 1526 में मुगलों का शासन काल शुरू होने के बाद समूचे साम्राज्य में एकीकृत और सुगठित मौद्रिक प्रणाली की शुरूआत हुई। अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी (1540 से 1545) ने चांदी के 'रुपैये' अथवा रुपये के सिक्के की शुरूआत की। पूर्व-उपनिवेशकाल के भारत के राजे-रजवाड़ों ने अपनी अलग मुद्राओं की ढलाई करवाई, जो मुख्यत: चांदी के रुपये जैसे ही दिखती थीं, केवल उन पर उनके मूल स्थान (रियासतों) की क्षेत्रीय विशेषतायें भर अंकित होती थीं।

अट्ठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में, एजेंसी घरानों ने बैंको का विकास किया। बैंक ऑफ बंगाल, दि बैंक ऑफ हिन्दुस्तान, ओरियंटल बैंक कार्पोरेशन और दि बैंक ऑफ वेस्टर्न इंडिया इनमें प्रमुख थे। इन बैंकों ने अपनी अलग-अलग कागजी मुद्रायें-उर्दू, बंगला और देवनागरी लिपियों में मुद्रित करवाई।

लगभग सौ वर्षों तक निजी और प्रेसीडेंसी बैंकों द्वारा जारी बैंक नोटों का प्रचलन बना रहा, परन्तु 1961 के पेपर करेंसी कानून बनने के बाद इस पर केवल सरकार का एकाधिकार रह गया। ब्रिटिश सरकार ने बैंक नोटों के वितरण में मदद के लिए पहले तो प्रेसीडेंसी बैंकों को ही अपने एजेंट के रूप में नियुक्त किया, क्योंकि एक बड़े भू-भाग में सामान्य नोटों के इस्तेमाल को बढ़ाया देना एक दुष्कर कार्य था। महारानी विक्टोरिया के सम्मान में 1867 में पहली बार उनके चित्र की श्रृंखला वाले बैंक नोट जारी किए गए। ये नोट एक ही ओर छापे गए (यूनीफेस्ड) थे और पांच मूल्यों में जारी किए गए थे।

बैंक नोटों के मुद्रण और वितरण का दायित्व 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक के हाथ में आ गया। जार्ज पंचम के चित्र वाले नोटों के स्थान पर 1938 में जार्ज षष्ठम के चित्र वाले नोट जारी किए गए, जो 1947 तक प्रचलन में रहे। भारत की स्वतंत्रता के बाद उनकी छपाई बंद हो गई और सारनाथ के सिंहों के स्तम्भ वाले नोटों ने इन का स्थान ले लिया।

भारतीय रुपया 1957 तक तो 16 आनों में विभाजित रहा, परन्तु उसके बाद (1957) में ही उसने मुद्रा की दशमलव प्रणाली अपना ली और एक रुपये का पुनर्गन 100 समान पैसों में किया गया। महात्मा गांधी वाले कागजी नोटों की श्रृंखला की शुरूआत 1996 में हुई, जो आज तक चलन में है।

नकली मुद्रा की चुनौती से निपटने के लिए भारतीय रुपये के नोटों में सुरक्षा संबंधी अनेक विशेषताओं को समाहित किया गया है। नोटों के एक ओर सफेद वाले भाग में महात्मा गांधी का जल चिन्ह् (वाटर मार्क) बना हुआ है। सभी नोटों में चांदी का सुरक्षा धागा लगा हुआ है जिस पर अंग्रेजी में आर बी आई और हिंदी में भारत अंकित है। प्रकाष के सामने लाने पर इनको देखा जा सकता है। पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों में उनका मूल्य प्रकाष में परिवर्तनीय स्याही से लिखा हुआ है। धरती के समानान्तर रखने पर ये संख्या हरी दिखाई देती हैं परन्तु तिरछे या कोण से देखने पर नीले रंग में लिखी हुई दिखाई देती हैं।

भारतीय रुपये के नोट के भाषा पटल पर भारत की 22 सरकारी भाषााओं में से 15 में उनका मूल्य मुद्रित है। ऊपर से नीचे इनका क्रम इस प्रकार है-असमिया, बंगला, गुजराती, कन्नड़, कष्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी संस्कृत, तमिल, तेलुगु और उर्दू।

सरकारी मुद्रा को रुपया कहा जाता है, जो भारत, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, मॉरिषस, मालदीव और इंडोनेषिया सहित कई देषों में प्रचलित हैं। इन सभी देषों में भारतीय रुपया, मूल्य, स्वीकार्यता और लोकप्रियता के हिसाब से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

नया प्रतीक चिन्ह पाने के साथ ही भारतीय रुपया अब विष्व की प्रमुख मुद्राओं-डॉलर, यूरो, पौंड और येन के साथ आ खड़ा हुआ है। नया प्रतीक आत्मविष्वास से परिपूर्ण नए भारत के अभ्युदय का भी प्रतीक है, जो अब वैष्विक अर्थव्यवस्था में एक विषेष जगह बना चुका है।

पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट से साभार

Sunday, August 8, 2010

खबरों से घबराता तंत्र

गिरीश मिश्र। आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे सिर चढ़कर बोल रहे हैं. मीडिया के हर रोज के खुलासे फिलहाल आरोपों की शक्ल में सुर्खियां बन रहे हैं. आईपीएल के ललित मोदी जैसी हालत सुरेश कलमाडी की भी हो गई है. संभव है कि मीडिया टनयल में कुछ ज्यादा ही प्रचार-दुष्प्रचार हो रहा हो, लेकिन लाखों-करोड़ों के स्पष्ट घोटाले जिस तरह से सामने आए हैं, उनमें से अनेक में तो कुछ कहने को भी नहीं रह जाता. जैसे एक लाख का टेन्ड मिल 10 लाख में, और वो भी किराए पर. चार हजार में टिश्यू पेपर का रोल, 40 हजार का एसी दो लाख रुपए में किराए पर, छह हजार में छतरी. आखिर ये क्या है? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़ी कुल सोलह परियोजनाओं की जांच की. पता चला है कि ज्यादातर में घटिया क्वालिटी का सामान लगा है. प्रोजेक्ट की लागत भी काफी बढाकर लगाई गई है. मजे की बात है कि पकड़े न जाएं, इसलिए परियोजना पूरी होने के जाली सर्टिफिकेट भी बनाए गए.

फर्जी विदेशी संस्थाओं को भी लाखों-करोड़ों का भुगतान किया गया है, जाहिर है नेता, नौकरशाह, दलाल, बिल्डर - सभी की विभिन्न स्तरों पर अनियमितता में मिलीभगत है. तो ये हालत है 50-55 दिनों बाद होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी की. मीडिया के खुलासे के बाद संसद में भी भारी हंगामा रहा. सरकार की ओर से सफाई पेश की जा रही है. शुक्रवार को जयपाल रेड्डी ने इसी क्रम में कहा कि वास्तविक खर्च साढे 11 हजार करोड़ का है, लाख या डेढ लाख का नहीं, जैसा कि मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है. शुक्र है कि रेड्डी साहब ने ये भी कहा कि सरकार इन मामलों की सीबीआई से भी जांच करा सकती है.

उधर, कलमाडी भी जांच की बात कर रहे हैं, लेकिन वो खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष पद को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उनका तर्क है कि ''इस खेल के आयोजन को दुनिया के सामने मैंने बच्चे की तरह पेश किया है. इसे किसी और की गलती के कारण मैं अधर में कैसे छोड़ सकता हूं. यह आयोजन मेरे लिए चुनौती जैसा है.'' लेकिन कलमाडीजी का ये भी कहना है कि यदि उनसे प्रधानमंत्री या पार्टी हाईकमान पद छोड़ने को कहेगा तो वो जरूर अध्यक्ष पद से हट जाएंगे. सवाल है कि जिस तरह के खुलासे हर रोज नई मिसाइल दागे जाने की तरह सामने आए हैं, उसके बाद कहने को क्या रह जाता है. वैसे भी राजनीति हो या सार्वजनिक जीवन, उसमें नैतिक संदर्भ को कहने की नहीं, समझने की जरूरत होती है. यह अलग बात है कि कोई इसे कितना समझता है और न समझने पर जनता को भी कभी-कभी समझाने की पहल करनी पड़ती है.

यह तो रही खेल, कलमाडी और उनसे जुडे़ लोगों को लेकर उठती सुर्खियों की चर्चा. लेकिन यहां गौरतलब ये है कि मीडिया, नई टेक्नोलॉजी और नई लोकतांत्रिक चाहत में बढता खबरों का दायरा अब उस माहौल की बात कर रहा है, जिसमें अब कुछ भी छिपा कर रखना मुश्किल होता जा रहा है. इधर बीच राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का लगातार खुलासा हुआ है, वह किसी से छुपा नहीं है.

करोड़ों-अरबों को पानी की तरह बहाने वाले ललित मोदी की सुर्खियों की स्याही सूखी भी न थी कि कर्नाटक-आंध्र में खनन माफिया रेड्डी बंधुओं और उनके सियासी, प्रशासनिक, व्यावसायिक गठजोड़ की परतें उघड़ने लगीं, लोग अभी दांतों तले उंगलियां दबा ही रहे थे कि राष्ट्रीय महिला हॉकी के कोच कौशिक का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया. रुचिका कांड में राठौड की संलिप्तता और कानून के शासन को ठेंगा चिढाते उनके सियासी-प्रशासनिक गठजोड़ के तार भी जब एक-एक कर उघड़ने लगे तो लोग चौंके ही नहीं थे, बल्कि लोगों का विश्वास बढा था जम्हूरियत में और उसकी रगों में रुधिर के रूप में दौड़ते उस मीडिया की ताकत में, जिसे अनेक बार बातचीत में बेसिर-पैर की खबरों को प्रचारित-प्रसारित करने वाला भी मान लिया जाता है.

आप क्या कहेंगे पिछले दिनों वेबसाइट विकीलीक्स द्वारा उजागर किए गए लगभग नब्बे हजार अमेरिकी रक्षा विभाग के दस्तावेजों के खुलासे पर. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तालिबानियों और दूसरे आतंकी संगठनों के रिश्तों की परतें तो उघड़ी ही है, साथ ही वाशिंगटन-इस्लामाबाद की उस गुप्त गठजोड़ की कलई भी खुली है, जिसकी ओर भारत लंबे समय से इशारा करता रहा है. दिलचस्प तो ये है कि इस खुलासे के बाद खुद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बयान दिया कि विकीलीक्स ने कुछ ऐसा नया नहीं कहा है, जो लोग पहले से न जानते हों.

सवाल है कि यदि अमेरिका पहले से ये सब जानता था तो औरों की छोड़ें, उसने खुद अपने राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में इसे रोका क्यों नहीं और दुनिया के सामने आतंक से लड़ने और उसके खिलाफ एकजुट होने की थोथी घोषणाएं क्यों कर रहा था? और, यदि वाशिंगटन इस खुलासे से वाकई चिंतित नहीं है तो क्यों उन 15 हजार दस्तावेजों को पेंटागन और एफबीआई अब विकीलीक्स से वापस मांग रहे हैं, जिनका खुलासा विकीलीक्स ने खुद व्यापक सुरक्षा के मद्देनजर नहीं किया था?

तो ये है खबरों की दुनिया की ताकत और सत्ता का चरित्र. जब दुनिया भर के अखबारों और मीडिया जगत में विकीलीक्स के हजारों दस्तावेजी खुलासे की चर्चा हो रही थी तो सत्ता में बैठे लोग इसे झुठलाने और बेकार की चीज बताने पर आमादा थे. लेकिन बाद में वही तंत्र अब इसकी वापसी की मांग कर रहा है और तर्क है कि इसके खुलासे से अफगानी जनता, वहां मौजूद अमेरिकी सेना और बहुतों की जान को खतरा हो सकता है तथा और भी व्यापक स्तर पर क्षति हो सकती है.

गौर करने की बात ये भी है कि अमेरिकी सरकार विकीलीक्स को धमका भी रही है कि यदि उसने 15 हजार दस्तावेजों को वापस नहीं किया तो सरकार उसे हासिल करने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार करेगी. गौर करने की बात है कि सत्ता का चरित्र कभी भी ऐसे खुलासे को बर्दाश्त नहीं कर पाता, जिसमें उसकी किसी भी कमी को उजागर किया गया हो. पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि यह गलत है, मनगढंत है. लेकिन जब सच्चाई की ताकत जोर पकड़ती है, तो झूठी अकड़ को भीगी बिल्ली बनते भी देखा जा सकता है. चाहे वो ललित मोदी हों, राठौड़ हों, कौशिक हों या फिर अमेरिकी सरकार और उस तंत्र पर काबिज शीर्षस्थ लोग.

लेकिन ऐसा लिखने का तात्पर्य ये भी नहीं है कि मीडिया कभी तिल का ताड़ नहीं बनाता या फिर गलत खबरें निहित स्वार्थ में नहीं उछालता. इस संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है कि मीडिया को खुद अपनी मर्यादा तय करनी होगी. विवेकजनित-संयम का परिचय भी देना होगा. और, यहां भी लोकतंत्र की अंतिम निर्णायक शक्ति जनता की चेतना को स्वीकार करना होगा, जो बहुत से मसलों पर अंतिम फैसले का हक रखने की तरह ही मीडिया पर भी मित्रवत नियंत्रण में सक्षम है. बात चूंकि मीडिया की हो रही है और हाल की खबरों के जरिए लोकतांत्रिक कलेवर की मजबूती की भी. ऐसे में एक और खबर का जिक्र करना चाहूंगा कि सेना में खराब राशन का मामला उजागर होने के तीन दिनों बाद ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने इसी शुक्रवार को तीन हजार करोड़ की अनियमितताओं का भी खुलासा किया है. यह घोटाला संवेदनशील हथियारों की खरीद में किया गया है.

तो बात चाहे सेना की हो या लाखों टन अनाज के गोदामों में सड़ने की, खेल की तैयारियों के नाम पर घोटालों की हो या फिर सत्ता मद में भ्रष्ट या किसी निर्दोष की जान से खेलने के आचरण की या फिर एक ध्रुवीय दुनिया के शिखर पर बैठे देश के झूठे प्रवचनों की कलई खोलने की - लोकतंत्र की जीवंतता के लिए खबरों की दुनिया का सचेत रहना उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी जीव के लिए ऑक्सीजन की अपरिहार्यता. काश! इस तथ्य को सत्ता मद का चरित्र भी समझ पाता. लेकिन बढती लोकतांत्रिक समझ और जागरूकता में इतनी कामना तो हम कर ही सकते हैं कि सभ्य और सुशिक्षित होती दुनिया वक्त के साथ जहां उच्श्रृंखलत छोड़ थोड़ी मर्यादा और संयम की ओर बढेगी, वहीं मीडिया की आलोचना को सुधारात्मक दवा समझ फ्रेंडली लेना भी सीख जाएगी.

और अंत में-

इस वास्ते उठाई है
तेरी बुराइयां
डरता हूं कि और न
तुझसे बुरा मिले.
-----------------------------------------------------------------------------------
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं। उनका यह लेख  'लोकमत समाचार' से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीशजी से girishmisra@lokmat.com पर संपर्क किया जा सकता है। आपका पन्ना ने यह लेख भड़ास4मीडिया डॉट कॉम से साभार लिया है।

खबरों से घबराता तंत्र

गिरीश मिश्र। आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे सिर चढ़कर बोल रहे हैं. मीडिया के हर रोज के खुलासे फिलहाल आरोपों की शक्ल में सुर्खियां बन रहे हैं. आईपीएल के ललित मोदी जैसी हालत सुरेश कलमाडी की भी हो गई है. संभव है कि मीडिया टनयल में कुछ ज्यादा ही प्रचार-दुष्प्रचार हो रहा हो, लेकिन लाखों-करोड़ों के स्पष्ट घोटाले जिस तरह से सामने आए हैं, उनमें से अनेक में तो कुछ कहने को भी नहीं रह जाता. जैसे एक लाख का टेन्ड मिल 10 लाख में, और वो भी किराए पर. चार हजार में टिश्यू पेपर का रोल, 40 हजार का एसी दो लाख रुपए में किराए पर, छह हजार में छतरी. आखिर ये क्या है? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़ी कुल सोलह परियोजनाओं की जांच की. पता चला है कि ज्यादातर में घटिया क्वालिटी का सामान लगा है. प्रोजेक्ट की लागत भी काफी बढाकर लगाई गई है. मजे की बात है कि पकड़े न जाएं, इसलिए परियोजना पूरी होने के जाली सर्टिफिकेट भी बनाए गए.

फर्जी विदेशी संस्थाओं को भी लाखों-करोड़ों का भुगतान किया गया है, जाहिर है नेता, नौकरशाह, दलाल, बिल्डर - सभी की विभिन्न स्तरों पर अनियमितता में मिलीभगत है. तो ये हालत है 50-55 दिनों बाद होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी की. मीडिया के खुलासे के बाद संसद में भी भारी हंगामा रहा. सरकार की ओर से सफाई पेश की जा रही है. शुक्रवार को जयपाल रेड्डी ने इसी क्रम में कहा कि वास्तविक खर्च साढे 11 हजार करोड़ का है, लाख या डेढ लाख का नहीं, जैसा कि मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है. शुक्र है कि रेड्डी साहब ने ये भी कहा कि सरकार इन मामलों की सीबीआई से भी जांच करा सकती है.

उधर, कलमाडी भी जांच की बात कर रहे हैं, लेकिन वो खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष पद को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उनका तर्क है कि ''इस खेल के आयोजन को दुनिया के सामने मैंने बच्चे की तरह पेश किया है. इसे किसी और की गलती के कारण मैं अधर में कैसे छोड़ सकता हूं. यह आयोजन मेरे लिए चुनौती जैसा है.'' लेकिन कलमाडीजी का ये भी कहना है कि यदि उनसे प्रधानमंत्री या पार्टी हाईकमान पद छोड़ने को कहेगा तो वो जरूर अध्यक्ष पद से हट जाएंगे. सवाल है कि जिस तरह के खुलासे हर रोज नई मिसाइल दागे जाने की तरह सामने आए हैं, उसके बाद कहने को क्या रह जाता है. वैसे भी राजनीति हो या सार्वजनिक जीवन, उसमें नैतिक संदर्भ को कहने की नहीं, समझने की जरूरत होती है. यह अलग बात है कि कोई इसे कितना समझता है और न समझने पर जनता को भी कभी-कभी समझाने की पहल करनी पड़ती है.

यह तो रही खेल, कलमाडी और उनसे जुडे़ लोगों को लेकर उठती सुर्खियों की चर्चा. लेकिन यहां गौरतलब ये है कि मीडिया, नई टेक्नोलॉजी और नई लोकतांत्रिक चाहत में बढता खबरों का दायरा अब उस माहौल की बात कर रहा है, जिसमें अब कुछ भी छिपा कर रखना मुश्किल होता जा रहा है. इधर बीच राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का लगातार खुलासा हुआ है, वह किसी से छुपा नहीं है.

करोड़ों-अरबों को पानी की तरह बहाने वाले ललित मोदी की सुर्खियों की स्याही सूखी भी न थी कि कर्नाटक-आंध्र में खनन माफिया रेड्डी बंधुओं और उनके सियासी, प्रशासनिक, व्यावसायिक गठजोड़ की परतें उघड़ने लगीं, लोग अभी दांतों तले उंगलियां दबा ही रहे थे कि राष्ट्रीय महिला हॉकी के कोच कौशिक का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया. रुचिका कांड में राठौड की संलिप्तता और कानून के शासन को ठेंगा चिढाते उनके सियासी-प्रशासनिक गठजोड़ के तार भी जब एक-एक कर उघड़ने लगे तो लोग चौंके ही नहीं थे, बल्कि लोगों का विश्वास बढा था जम्हूरियत में और उसकी रगों में रुधिर के रूप में दौड़ते उस मीडिया की ताकत में, जिसे अनेक बार बातचीत में बेसिर-पैर की खबरों को प्रचारित-प्रसारित करने वाला भी मान लिया जाता है.

आप क्या कहेंगे पिछले दिनों वेबसाइट विकीलीक्स द्वारा उजागर किए गए लगभग नब्बे हजार अमेरिकी रक्षा विभाग के दस्तावेजों के खुलासे पर. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तालिबानियों और दूसरे आतंकी संगठनों के रिश्तों की परतें तो उघड़ी ही है, साथ ही वाशिंगटन-इस्लामाबाद की उस गुप्त गठजोड़ की कलई भी खुली है, जिसकी ओर भारत लंबे समय से इशारा करता रहा है. दिलचस्प तो ये है कि इस खुलासे के बाद खुद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बयान दिया कि विकीलीक्स ने कुछ ऐसा नया नहीं कहा है, जो लोग पहले से न जानते हों.

सवाल है कि यदि अमेरिका पहले से ये सब जानता था तो औरों की छोड़ें, उसने खुद अपने राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में इसे रोका क्यों नहीं और दुनिया के सामने आतंक से लड़ने और उसके खिलाफ एकजुट होने की थोथी घोषणाएं क्यों कर रहा था? और, यदि वाशिंगटन इस खुलासे से वाकई चिंतित नहीं है तो क्यों उन 15 हजार दस्तावेजों को पेंटागन और एफबीआई अब विकीलीक्स से वापस मांग रहे हैं, जिनका खुलासा विकीलीक्स ने खुद व्यापक सुरक्षा के मद्देनजर नहीं किया था?

तो ये है खबरों की दुनिया की ताकत और सत्ता का चरित्र. जब दुनिया भर के अखबारों और मीडिया जगत में विकीलीक्स के हजारों दस्तावेजी खुलासे की चर्चा हो रही थी तो सत्ता में बैठे लोग इसे झुठलाने और बेकार की चीज बताने पर आमादा थे. लेकिन बाद में वही तंत्र अब इसकी वापसी की मांग कर रहा है और तर्क है कि इसके खुलासे से अफगानी जनता, वहां मौजूद अमेरिकी सेना और बहुतों की जान को खतरा हो सकता है तथा और भी व्यापक स्तर पर क्षति हो सकती है.

गौर करने की बात ये भी है कि अमेरिकी सरकार विकीलीक्स को धमका भी रही है कि यदि उसने 15 हजार दस्तावेजों को वापस नहीं किया तो सरकार उसे हासिल करने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार करेगी. गौर करने की बात है कि सत्ता का चरित्र कभी भी ऐसे खुलासे को बर्दाश्त नहीं कर पाता, जिसमें उसकी किसी भी कमी को उजागर किया गया हो. पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि यह गलत है, मनगढंत है. लेकिन जब सच्चाई की ताकत जोर पकड़ती है, तो झूठी अकड़ को भीगी बिल्ली बनते भी देखा जा सकता है. चाहे वो ललित मोदी हों, राठौड़ हों, कौशिक हों या फिर अमेरिकी सरकार और उस तंत्र पर काबिज शीर्षस्थ लोग.

लेकिन ऐसा लिखने का तात्पर्य ये भी नहीं है कि मीडिया कभी तिल का ताड़ नहीं बनाता या फिर गलत खबरें निहित स्वार्थ में नहीं उछालता. इस संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है कि मीडिया को खुद अपनी मर्यादा तय करनी होगी. विवेकजनित-संयम का परिचय भी देना होगा. और, यहां भी लोकतंत्र की अंतिम निर्णायक शक्ति जनता की चेतना को स्वीकार करना होगा, जो बहुत से मसलों पर अंतिम फैसले का हक रखने की तरह ही मीडिया पर भी मित्रवत नियंत्रण में सक्षम है. बात चूंकि मीडिया की हो रही है और हाल की खबरों के जरिए लोकतांत्रिक कलेवर की मजबूती की भी. ऐसे में एक और खबर का जिक्र करना चाहूंगा कि सेना में खराब राशन का मामला उजागर होने के तीन दिनों बाद ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने इसी शुक्रवार को तीन हजार करोड़ की अनियमितताओं का भी खुलासा किया है. यह घोटाला संवेदनशील हथियारों की खरीद में किया गया है.

तो बात चाहे सेना की हो या लाखों टन अनाज के गोदामों में सड़ने की, खेल की तैयारियों के नाम पर घोटालों की हो या फिर सत्ता मद में भ्रष्ट या किसी निर्दोष की जान से खेलने के आचरण की या फिर एक ध्रुवीय दुनिया के शिखर पर बैठे देश के झूठे प्रवचनों की कलई खोलने की - लोकतंत्र की जीवंतता के लिए खबरों की दुनिया का सचेत रहना उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी जीव के लिए ऑक्सीजन की अपरिहार्यता. काश! इस तथ्य को सत्ता मद का चरित्र भी समझ पाता. लेकिन बढती लोकतांत्रिक समझ और जागरूकता में इतनी कामना तो हम कर ही सकते हैं कि सभ्य और सुशिक्षित होती दुनिया वक्त के साथ जहां उच्श्रृंखलत छोड़ थोड़ी मर्यादा और संयम की ओर बढेगी, वहीं मीडिया की आलोचना को सुधारात्मक दवा समझ फ्रेंडली लेना भी सीख जाएगी.

और अंत में-

इस वास्ते उठाई है
तेरी बुराइयां
डरता हूं कि और न
तुझसे बुरा मिले.
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लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं। उनका यह लेख  'लोकमत समाचार' से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीशजी से girishmisra@lokmat.com पर संपर्क किया जा सकता है। आपका पन्ना ने यह लेख भड़ास4मीडिया डॉट कॉम से साभार लिया है।

Thursday, July 22, 2010

देह के इर्द गिर्द घूमती नजर

पुराणों में स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है। यही वजह है कि आज भी हमारे समाज में नवरात्रि के दिनों में कन्या भोज की परंपरा है। लेकिन यही दर्जा उसे शोषित भी बना रहा है। नारी जो आज पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है, उसे महज देह से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। हाल की कुछ घटनाएं इसका प्रमाण हैं। यह घटनाएं तो ऐसी हैं, जो सामने आ गईं, वरना न जाने कितनी दास्तानें वक्त के अंधेरे में धूल धुसरित हो चुकी होंगी, कौन जानता है। महिला हॉकी में शोषण की बात सामने आई तो इसी तरह के और मामले भी सामने आने लगे।

स्कूल, घर, गली, मोहल्ले, कॉलेज, दफ्तर और खेल। कहीं भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें केवल देह की तरह ही देखा जाता है। इसे पुरुष की कुंठित मानसिकता भी कह सकते हैं या यूं कहिए कि जहां भी मौका मिलता है वो यह जताना चाहता है कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह पुरुष है। हो सकता है कि यहां पर मेरा शब्द चयन सही न हो। लेकिन मन की व्यथा है, जो बाहर आ रही है। हैदराबाद की घटना ने भी अंदर तक आघात किया है। एक प्रिंसिपल, यानी गुरु, जिसने अपनी ही छात्रा के साथ एक साल तक बलात्कार किया। कितने घृणित हैं, ऐसे लोग। पवित्र स्थलों और पदवी को भी हवस की भेंट चढ़ा रहे हैं।

आखिर इसकी वजह क्या है। क्या कारण है कि पुरुष पाशविकता की ओर जा रहे हैं। आखिर स्त्रियां कहां सुरक्षित हैं। यदि वो घर, स्कूल और अपने मोहल्ले मे ही सुरक्षित नहीं हैं, तो कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकती हैं। कब तक उसे सिर्फ देह के रूप मे देखा जाएगा।

इन कुकृत्यों में शामिल पुरुषों से तो उनके घर की बेटियां भी सुरक्षित नहीं होंगी। जो दूसरों की बेटी को बुरी नजर से देख सकता है, उसके लिए क्या घर, क्या बाहर। ऐसी घटनाएं तब तक कम नहीं होंगी, जब तक ऐसे हवसियों को सरेआम चौराहों पर बांधकर चप्पलों से मारा नहीं जाएगा। क्योंकि इनको मृत्युदंड देने का मतलब है सस्ते में सजा पूरी कर देना। इनको जलील करो और इतना जलील करो कि शर्म से खुद मर जाएं। तभी सबक मिलेगा ऐसे हरामखोरों को।

देह के इर्द गिर्द घूमती नजर

पुराणों में स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है। यही वजह है कि आज भी हमारे समाज में नवरात्रि के दिनों में कन्या भोज की परंपरा है। लेकिन यही दर्जा उसे शोषित भी बना रहा है। नारी जो आज पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है, उसे महज देह से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। हाल की कुछ घटनाएं इसका प्रमाण हैं। यह घटनाएं तो ऐसी हैं, जो सामने आ गईं, वरना न जाने कितनी दास्तानें वक्त के अंधेरे में धूल धुसरित हो चुकी होंगी, कौन जानता है। महिला हॉकी में शोषण की बात सामने आई तो इसी तरह के और मामले भी सामने आने लगे।

स्कूल, घर, गली, मोहल्ले, कॉलेज, दफ्तर और खेल। कहीं भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें केवल देह की तरह ही देखा जाता है। इसे पुरुष की कुंठित मानसिकता भी कह सकते हैं या यूं कहिए कि जहां भी मौका मिलता है वो यह जताना चाहता है कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह पुरुष है। हो सकता है कि यहां पर मेरा शब्द चयन सही न हो। लेकिन मन की व्यथा है, जो बाहर आ रही है। हैदराबाद की घटना ने भी अंदर तक आघात किया है। एक प्रिंसिपल, यानी गुरु, जिसने अपनी ही छात्रा के साथ एक साल तक बलात्कार किया। कितने घृणित हैं, ऐसे लोग। पवित्र स्थलों और पदवी को भी हवस की भेंट चढ़ा रहे हैं।

आखिर इसकी वजह क्या है। क्या कारण है कि पुरुष पाशविकता की ओर जा रहे हैं। आखिर स्त्रियां कहां सुरक्षित हैं। यदि वो घर, स्कूल और अपने मोहल्ले मे ही सुरक्षित नहीं हैं, तो कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकती हैं। कब तक उसे सिर्फ देह के रूप मे देखा जाएगा।

इन कुकृत्यों में शामिल पुरुषों से तो उनके घर की बेटियां भी सुरक्षित नहीं होंगी। जो दूसरों की बेटी को बुरी नजर से देख सकता है, उसके लिए क्या घर, क्या बाहर। ऐसी घटनाएं तब तक कम नहीं होंगी, जब तक ऐसे हवसियों को सरेआम चौराहों पर बांधकर चप्पलों से मारा नहीं जाएगा। क्योंकि इनको मृत्युदंड देने का मतलब है सस्ते में सजा पूरी कर देना। इनको जलील करो और इतना जलील करो कि शर्म से खुद मर जाएं। तभी सबक मिलेगा ऐसे हरामखोरों को।

Wednesday, July 21, 2010

मगर सेफ पैसेज देने का हक किसे है?

आखिरकार मंत्री समूह ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए ‘इंसाफ’ कर दिया। लेकिन कई पहलुओं को जानबूझकर अनछुआ भी छोड़ दिया गया है। इस त्रासदी के सबसे अहम पहलुओं में से एक है यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमैन वॉरेन एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ (बिना कानूनी प्रक्रिया के सुरक्षित जाने देना)।

तत्कालीन विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि भारत सरकार ने एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ करवाया था। रसगोत्रा ने अटकलें लगाते हुए कहा कि ‘संभवत:’ इसकी अनुमति तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पूर्व सहमति से दी होगी। उन्होंने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि एंडरसन को जाने देना ‘देशहित’ में था, क्योंकि उसे परेशान करने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय हमसे किनारा कर लेता और इससे भारत में विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित होता।

रसगोत्रा के इस बयान से कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि जिस संदर्भ में ‘सेफ पैसेज’ का उल्लेख किया गया है, उसमें इसके क्या मायने हैं? क्या इसमें कानूनी प्रक्रियाओं से बचाव भी शामिल है? क्या राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय की किसी बेंच को भी अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रियाओं से मुक्त कर दे? जिस देश में कानून सर्वोपरि है, वहां यह अधिकार किसे है? विदेश सचिव को? गृह मंत्री को? या प्रधानमंत्री को? क्या एंडरसन के मामले में सीआरपीसी को भी मुल्तवी कर दिया गया था?

नक्सल समस्या सहित कानून व्यवस्था से जुड़े हर मसले पर भारत सरकार द्वारा कहा जाता है कि यह राज्य से जुड़ा मामला है। फिर एंडरसन के मामले में न्यायिक प्रक्रियाओं को कैसे भुला दिया गया? यह अक्षम्य है। कानून तोड़ने के लिए देशहित का हवाला नहीं दिया जा सकता। हैरानी है कि प्रशासन में इतने ऊंचे ओहदों पर रहा कोई शख्स कानून के प्रति ऐसा गैरजिम्मेदाराना रुख अख्तियार कर सकता है।

सरकार को वॉरेन एंडरसन को ‘सेफ पैसेज’ देने का अधिकार ही नहीं था। यह ऐसा ही है जैसे किसी भोंदू खरीदार को हावड़ा ब्रिज बेचना। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि तत्कालीन गृह मंत्री बेहद चौकस व्यक्ति थे और इस मामले की सभी गतिविधियां गृह मंत्रालय, पीएमओ और यकीनन विदेश मंत्रालय के संबंधित दस्तावेजों या फाइलों में दर्ज होंगी। इस पर बहस की जा सकती है कि अमेरिकी अनुरोध की कितनी पड़ताल की गई थी। एमएफ हुसैन की कतर से भारत वापसी के सुझावों की इस मामले से तुलना की जा रही है। लेकिन यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हुसैन को भारत की अदालतों में लंबित आरोपों से कोई कानूनी राहत नहीं दी गई है।

हमारे यहां कानून का किस तरह मखौल बनाया जाता है, इसका एक और उदाहरण श्रीलंकाई राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान देखने को मिला। राष्ट्रपति के साथ आए एक मंत्री भारतीय न्याय प्रक्रिया के तहत कानूनी रूप से दोषी ठहराए जा चुके हैं। मीडिया द्वारा इस तथ्य को प्रकाश में लाने के बावजूद मंत्री महोदय की आवभगत जारी रही। उनकी औपचारिक गिरफ्तारी तक के प्रयास नहीं किए गए। क्या अमेरिका में ऐसी किसी घटना की कल्पना की जा सकती है? क्या कोई भारतीय, चाहे वह कितने ही ऊंचे ओहदे पर क्यों न हो, अमेरिकी कानून द्वारा दोषी पाए जाने पर उस देश में सम्मान के साथ प्रवेश पा सकता है? लगता है आजादी के 63 सालों बाद भी हम कानून का सम्मान करना नहीं सीखे हैं। जब देश के कर्ताधर्ता ही ऐसा करेंगे तो फिर आम आदमी से तो यह अपेक्षा रखना बेकार ही है कि वह कानून की इज्जत करेगा।

लेखकः एसआर सुब्रमण्यम (दैनिक भास्कर अखबार, नई दिल्ली से साभार)

मगर सेफ पैसेज देने का हक किसे है?

आखिरकार मंत्री समूह ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए ‘इंसाफ’ कर दिया। लेकिन कई पहलुओं को जानबूझकर अनछुआ भी छोड़ दिया गया है। इस त्रासदी के सबसे अहम पहलुओं में से एक है यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमैन वॉरेन एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ (बिना कानूनी प्रक्रिया के सुरक्षित जाने देना)।

तत्कालीन विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि भारत सरकार ने एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ करवाया था। रसगोत्रा ने अटकलें लगाते हुए कहा कि ‘संभवत:’ इसकी अनुमति तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पूर्व सहमति से दी होगी। उन्होंने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि एंडरसन को जाने देना ‘देशहित’ में था, क्योंकि उसे परेशान करने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय हमसे किनारा कर लेता और इससे भारत में विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित होता।

रसगोत्रा के इस बयान से कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि जिस संदर्भ में ‘सेफ पैसेज’ का उल्लेख किया गया है, उसमें इसके क्या मायने हैं? क्या इसमें कानूनी प्रक्रियाओं से बचाव भी शामिल है? क्या राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय की किसी बेंच को भी अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रियाओं से मुक्त कर दे? जिस देश में कानून सर्वोपरि है, वहां यह अधिकार किसे है? विदेश सचिव को? गृह मंत्री को? या प्रधानमंत्री को? क्या एंडरसन के मामले में सीआरपीसी को भी मुल्तवी कर दिया गया था?

नक्सल समस्या सहित कानून व्यवस्था से जुड़े हर मसले पर भारत सरकार द्वारा कहा जाता है कि यह राज्य से जुड़ा मामला है। फिर एंडरसन के मामले में न्यायिक प्रक्रियाओं को कैसे भुला दिया गया? यह अक्षम्य है। कानून तोड़ने के लिए देशहित का हवाला नहीं दिया जा सकता। हैरानी है कि प्रशासन में इतने ऊंचे ओहदों पर रहा कोई शख्स कानून के प्रति ऐसा गैरजिम्मेदाराना रुख अख्तियार कर सकता है।

सरकार को वॉरेन एंडरसन को ‘सेफ पैसेज’ देने का अधिकार ही नहीं था। यह ऐसा ही है जैसे किसी भोंदू खरीदार को हावड़ा ब्रिज बेचना। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि तत्कालीन गृह मंत्री बेहद चौकस व्यक्ति थे और इस मामले की सभी गतिविधियां गृह मंत्रालय, पीएमओ और यकीनन विदेश मंत्रालय के संबंधित दस्तावेजों या फाइलों में दर्ज होंगी। इस पर बहस की जा सकती है कि अमेरिकी अनुरोध की कितनी पड़ताल की गई थी। एमएफ हुसैन की कतर से भारत वापसी के सुझावों की इस मामले से तुलना की जा रही है। लेकिन यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हुसैन को भारत की अदालतों में लंबित आरोपों से कोई कानूनी राहत नहीं दी गई है।

हमारे यहां कानून का किस तरह मखौल बनाया जाता है, इसका एक और उदाहरण श्रीलंकाई राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान देखने को मिला। राष्ट्रपति के साथ आए एक मंत्री भारतीय न्याय प्रक्रिया के तहत कानूनी रूप से दोषी ठहराए जा चुके हैं। मीडिया द्वारा इस तथ्य को प्रकाश में लाने के बावजूद मंत्री महोदय की आवभगत जारी रही। उनकी औपचारिक गिरफ्तारी तक के प्रयास नहीं किए गए। क्या अमेरिका में ऐसी किसी घटना की कल्पना की जा सकती है? क्या कोई भारतीय, चाहे वह कितने ही ऊंचे ओहदे पर क्यों न हो, अमेरिकी कानून द्वारा दोषी पाए जाने पर उस देश में सम्मान के साथ प्रवेश पा सकता है? लगता है आजादी के 63 सालों बाद भी हम कानून का सम्मान करना नहीं सीखे हैं। जब देश के कर्ताधर्ता ही ऐसा करेंगे तो फिर आम आदमी से तो यह अपेक्षा रखना बेकार ही है कि वह कानून की इज्जत करेगा।

लेखकः एसआर सुब्रमण्यम (दैनिक भास्कर अखबार, नई दिल्ली से साभार)

Saturday, July 17, 2010

अपशब्दों का कौशल

इन दिनों भारतीय राजनीति बड़े ही रोचक मोड़ पर है। सारे के सारे नेता बेलगाम होकर जहां तहां अपने भाषा ज्ञान के कौशल का आलोक बिखेर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इसमें उन सभी स्यवंभू महान टाइप की पार्टियों के नेता शामिल हैं, जो खुद को संस्कारित कहते थकती नहीं हैं। एक राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुत्ता, दामाद, औरंगजेब की औलाद और न जाने किन किन शब्दों में प्रयोग अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए कर रहे हैं। वहीं दूसरे भी कम नहीं हैं, जो उन्हें औकात दिखा रहे हैं और उनसे उनके पिता के बारे में जानकारी पूछ रहे हैं।

ये हाल हैं हमारे लोकतांत्रिक देश भारत के। ये वही नेता हैं जो खुद को जनप्रतिनिधि मानते हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। जो एयरकंडीशन कमरों में बैठकर जनता के हाल पर मंथन करते हैं और देश की दिशा तय करते हैं। वो नेता जो हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर से जनता का हाल जानते हैं और फिर अपना फैसला थोप देते हैं।

रही बात इनके स्तर की तो वो आए दिन हम सभी देखते सुनते रहते हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में तो ये किसी से पीछे नहीं रहते हैं। छीछालेदर की हद तो कोई इनसे जाने।

वो नेता जो मौका लगते ही पाला बदलने में देर नहीं करते हैं। इसे आप मेरे मन की व्यथा कहें या देश की दुर्दशा पर सच तो यही है। नेता वाकई जनता को मूर्ख ही समझते हैं। तभी तो जब जो मन में आया कह दिया और प्रतिकूल परिस्थितियों में यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं, या इन्हें यह कहते हुए भी सुना जा सकता है कि उनके बयान का गलत अर्थ लगाया गया है। लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलाई जा रही है।

देश के हाल से तो आप सभी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। एक तरफ झारखंड जैसा राज्य है, जहां राजनीतिक स्थिरता नाम की कोई चिडिया दूर दूर तक नहीं दिख रही है, तो दूसरी ओर तेजी से पांव पसारता नक्सलवाद है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति का खामियाजा भुगत रहे हैं। आए दिन सीआरपीएफ और पुलिस के जवान काल के गाल में समा रहे हैं, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि आखिर क्या करें। कुर्सी के लिए जितनी कुरबानियां उतनी कम।

स्वार्थ सिद्धि के लिए तो देश को बेचने में भी ये लोग पीछे नहीं हटेंगे।

अपशब्दों का कौशल

इन दिनों भारतीय राजनीति बड़े ही रोचक मोड़ पर है। सारे के सारे नेता बेलगाम होकर जहां तहां अपने भाषा ज्ञान के कौशल का आलोक बिखेर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इसमें उन सभी स्यवंभू महान टाइप की पार्टियों के नेता शामिल हैं, जो खुद को संस्कारित कहते थकती नहीं हैं। एक राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुत्ता, दामाद, औरंगजेब की औलाद और न जाने किन किन शब्दों में प्रयोग अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए कर रहे हैं। वहीं दूसरे भी कम नहीं हैं, जो उन्हें औकात दिखा रहे हैं और उनसे उनके पिता के बारे में जानकारी पूछ रहे हैं।

ये हाल हैं हमारे लोकतांत्रिक देश भारत के। ये वही नेता हैं जो खुद को जनप्रतिनिधि मानते हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। जो एयरकंडीशन कमरों में बैठकर जनता के हाल पर मंथन करते हैं और देश की दिशा तय करते हैं। वो नेता जो हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर से जनता का हाल जानते हैं और फिर अपना फैसला थोप देते हैं।

रही बात इनके स्तर की तो वो आए दिन हम सभी देखते सुनते रहते हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में तो ये किसी से पीछे नहीं रहते हैं। छीछालेदर की हद तो कोई इनसे जाने।

वो नेता जो मौका लगते ही पाला बदलने में देर नहीं करते हैं। इसे आप मेरे मन की व्यथा कहें या देश की दुर्दशा पर सच तो यही है। नेता वाकई जनता को मूर्ख ही समझते हैं। तभी तो जब जो मन में आया कह दिया और प्रतिकूल परिस्थितियों में यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं, या इन्हें यह कहते हुए भी सुना जा सकता है कि उनके बयान का गलत अर्थ लगाया गया है। लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलाई जा रही है।

देश के हाल से तो आप सभी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। एक तरफ झारखंड जैसा राज्य है, जहां राजनीतिक स्थिरता नाम की कोई चिडिया दूर दूर तक नहीं दिख रही है, तो दूसरी ओर तेजी से पांव पसारता नक्सलवाद है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति का खामियाजा भुगत रहे हैं। आए दिन सीआरपीएफ और पुलिस के जवान काल के गाल में समा रहे हैं, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि आखिर क्या करें। कुर्सी के लिए जितनी कुरबानियां उतनी कम।

स्वार्थ सिद्धि के लिए तो देश को बेचने में भी ये लोग पीछे नहीं हटेंगे।

Monday, July 12, 2010

अहमदाबाद से मिंट का संस्करण शुरू

एचटी मीडिया लिमिटेड का बिजनेस अखबार मिंट अब अहमदाबाद से भी प्रकाशित होना शुरू हो गया है। अहमदाबाद संस्करण का पहला अंक आज यानी 13 जुलाई 2010 को प्रकाशित हुआ है। इसी के साथ मिंट के संस्करणों की संख्या बढ़कर छह हो गई है। मिंट दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर, कोलकाता और चेन्नई से प्रकाशित हो रहा है। यह अखबार चंडीगढ़ एवं पुणे में भी उपलब्ध है। अहमदाबाद संस्करण के जरिए मिंट को अब बड़ौदा, राजकोट, सूरत एवं गांधीनगर के पाठक भी पढ़ सकेंगे।

अहमदाबाद से मिंट का संस्करण शुरू

एचटी मीडिया लिमिटेड का बिजनेस अखबार मिंट अब अहमदाबाद से भी प्रकाशित होना शुरू हो गया है। अहमदाबाद संस्करण का पहला अंक आज यानी 13 जुलाई 2010 को प्रकाशित हुआ है। इसी के साथ मिंट के संस्करणों की संख्या बढ़कर छह हो गई है। मिंट दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर, कोलकाता और चेन्नई से प्रकाशित हो रहा है। यह अखबार चंडीगढ़ एवं पुणे में भी उपलब्ध है। अहमदाबाद संस्करण के जरिए मिंट को अब बड़ौदा, राजकोट, सूरत एवं गांधीनगर के पाठक भी पढ़ सकेंगे।

Friday, July 9, 2010

असंवेदनशीलता की हद


पुलिस, यह शब्द सुनकर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है? जहां तक मुझे लगता है, अच्छी बनने के आसार तो न्यूनतम ही होंगे। वैसे अगर आपने कुछ वर्षों पहले आई फिल्म गोलमाल देखी हो तो उसमें तुषार कपूर (जो फिल्म में एक गूंगे शख्स की भूमिका में हैं) बड़ी ही रोचकता तथा सरलता से पुलिस वाले के आने का संदेश देते हैं। खैर, विषयांतर होना ठीक नहीं है। हाल ही में पुलिस की असंवेदनशीलता के दो कारनामे सुनने और पढ़ने को मिले। हालांकि पुलिस वालों के पक्ष में अच्छा सुनने को तो कान तरसते ही रहते हैं। यहां मामला हमारे देश के हृदय स्थल मध्य प्रदेश का है। तीन दिनों पहले प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे शहर सीहोर में एक हृदयविदारक घटना घटी। एक दबंग शख्स ने एक व्यक्ति की जान फिल्मी गुंडे की तरह ले ली और पुलिस हमेशा की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।

इससे भी ज्यादा दुखदायी तो यह है कि यह घटना सरे बाजार, सरे राह हो रही थी और लोग यह तमाशा देख रहे थे, क्योंकि मरने वाला उनका कुछ नहीं लगता था। मामला यह है कि सीहोर का एक नामी गुंडा एक शख्स को अपनी कार के पीछे बांधकर तब तक पूरे शहर की सड़कों पर घसीटता रहा, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। पुलिसिया बेशर्मी की हद यह कि, सब कुछ पता होने के बावजूद आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया।

मामला भोपाल पहुंचा, तो अमला क्रियाशील होता प्रतीत हुआ। हैरत तो तब हुई जब भोपाल रेंज (सीहोर भी इसी के अंतर्गत आता है) के आईजी ने कहा कि आरोपी पुलिस की हिरासत में है, जबकि सीहोर के पुलिस कप्तान का बयान ठीक उनके उलट है। एसपी का कहना है कि आरोपी की तलाश जारी है और उसकी खबर देने वाले को पुलिस की तरफ से पांच हजार रुपए का नगद ईनाम भी दिया जाएगा।

अब बताइए, इसे क्या कहेंगे। एक तरफ तो सरकार सुशासन का दावा करती है और दूसरी तरफ राजधानी के पड़ोस में ही दिन दहाड़े ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनसे जनता का भरोसा कानून व्यवस्था से उठते देर नहीं लगेगी। रही बात नेताओं की तो वो पूरी बेशर्मी से मुस्तैदी का दावा करते हैं। पुलिस वाले तो उनके गुलाम हैं ही।

अब दूसरी घटना भी इससे कहीं कम नहीं है। इस बार भी मामला प्रदेश के ही पिपरिया जिले का है। यहां पुलिसिया बर्बरता के चलते एक महिला को अपने गर्भ के पल रहे बच्चों की जान से हाथ धोना पड़ा। घटना कुछ इस तरह है। पिपरिया की रहने वाली अनुराधा पर दहेज प्रताड़ना तथा हत्या मे साथी होने का आरोप है। अदालत ने जिस समय उसे सजा सुनाई, उस वक्त उसके पेट में छह माह का गर्भ था। पुलिस वालों ने इस बात को अनेदखा करते हुए उसे जीप से ही होशंगाबाद जेल ले जाना तय किया। जीप को पथरीले रास्ते पर भी फर्राटे से दौड़ाते रहे। नतीजा अनुराधा के पेट में दर्द होने लगा। काफी मनौतियों के बाद भी पुलिसवालों ने जीप की गति को धीमा नहीं किया। जेल पहुंचने के बाद भी अनुराधा की मेडिकल जांच नहीं करवाई गई। बाद में जेल के अस्पताल में जांच के दौरान उसने अपनी तकलीफ के बारे में बताया, जिसके बाद उसे अस्पताल ले जाने की तैयारी की गई, हालांकि इसमें भी जल्दबाजी नहीं की गई। नतीजा अस्पताल पहुंचते तक मामला हाथ से निकल चुका था।

असंवेदनशीलता की हद तो यह कि जब भोपाल के सुल्तानिया अस्पताल के डॉक्टरों ने अनुराधा को भर्ती करने के लिए कहा, तो जेल के गार्ड ने यह यह कहते हुए मना कर दिया कि उसे सिर्फ जांच के लिए लाया गया है। जेल पहुंचकर की गई घंटो लंबी कागजी कार्रवाई के बाद अनुराधा को दोबारा अस्पताल ले जाकर भर्ती कराया गया। लेकिन जब डिलीवरी हुई तो दो मृत शिशुओं को बाहर निकाला गया।

यह घटना निश्चय ही हृदय विदारक तो है ही साथ ही असंवेदनशीलता की चरमसीमा है। कानून व्यवस्था नागरिको के सहयोग और सुविधा के लिए होता है या उन्हें परेशान करने के लिए। इस तरह की घटनाओं से यह तो सिद्ध होता है कि मध्यप्रदेश पुलिस अपना ध्येय वाक्य “देशभक्ति जनसेवा” भूल चुकी है साथ ही प्रदेश की सरकार जो महिलाओं के उत्थान, सुरक्षा और हक की बात करती है वो भी दोगली है।

इस तरह की व्यवस्था से वाकई दिलो-दिमाग को ठेस तो पहुंचती ही है व्यवस्था से भरोसा भी डगमगा जाने के लिए मजबूर हो जाता है।