Sunday, August 8, 2010

खबरों से घबराता तंत्र

गिरीश मिश्र। आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे सिर चढ़कर बोल रहे हैं. मीडिया के हर रोज के खुलासे फिलहाल आरोपों की शक्ल में सुर्खियां बन रहे हैं. आईपीएल के ललित मोदी जैसी हालत सुरेश कलमाडी की भी हो गई है. संभव है कि मीडिया टनयल में कुछ ज्यादा ही प्रचार-दुष्प्रचार हो रहा हो, लेकिन लाखों-करोड़ों के स्पष्ट घोटाले जिस तरह से सामने आए हैं, उनमें से अनेक में तो कुछ कहने को भी नहीं रह जाता. जैसे एक लाख का टेन्ड मिल 10 लाख में, और वो भी किराए पर. चार हजार में टिश्यू पेपर का रोल, 40 हजार का एसी दो लाख रुपए में किराए पर, छह हजार में छतरी. आखिर ये क्या है? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़ी कुल सोलह परियोजनाओं की जांच की. पता चला है कि ज्यादातर में घटिया क्वालिटी का सामान लगा है. प्रोजेक्ट की लागत भी काफी बढाकर लगाई गई है. मजे की बात है कि पकड़े न जाएं, इसलिए परियोजना पूरी होने के जाली सर्टिफिकेट भी बनाए गए.

फर्जी विदेशी संस्थाओं को भी लाखों-करोड़ों का भुगतान किया गया है, जाहिर है नेता, नौकरशाह, दलाल, बिल्डर - सभी की विभिन्न स्तरों पर अनियमितता में मिलीभगत है. तो ये हालत है 50-55 दिनों बाद होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी की. मीडिया के खुलासे के बाद संसद में भी भारी हंगामा रहा. सरकार की ओर से सफाई पेश की जा रही है. शुक्रवार को जयपाल रेड्डी ने इसी क्रम में कहा कि वास्तविक खर्च साढे 11 हजार करोड़ का है, लाख या डेढ लाख का नहीं, जैसा कि मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है. शुक्र है कि रेड्डी साहब ने ये भी कहा कि सरकार इन मामलों की सीबीआई से भी जांच करा सकती है.

उधर, कलमाडी भी जांच की बात कर रहे हैं, लेकिन वो खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष पद को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उनका तर्क है कि ''इस खेल के आयोजन को दुनिया के सामने मैंने बच्चे की तरह पेश किया है. इसे किसी और की गलती के कारण मैं अधर में कैसे छोड़ सकता हूं. यह आयोजन मेरे लिए चुनौती जैसा है.'' लेकिन कलमाडीजी का ये भी कहना है कि यदि उनसे प्रधानमंत्री या पार्टी हाईकमान पद छोड़ने को कहेगा तो वो जरूर अध्यक्ष पद से हट जाएंगे. सवाल है कि जिस तरह के खुलासे हर रोज नई मिसाइल दागे जाने की तरह सामने आए हैं, उसके बाद कहने को क्या रह जाता है. वैसे भी राजनीति हो या सार्वजनिक जीवन, उसमें नैतिक संदर्भ को कहने की नहीं, समझने की जरूरत होती है. यह अलग बात है कि कोई इसे कितना समझता है और न समझने पर जनता को भी कभी-कभी समझाने की पहल करनी पड़ती है.

यह तो रही खेल, कलमाडी और उनसे जुडे़ लोगों को लेकर उठती सुर्खियों की चर्चा. लेकिन यहां गौरतलब ये है कि मीडिया, नई टेक्नोलॉजी और नई लोकतांत्रिक चाहत में बढता खबरों का दायरा अब उस माहौल की बात कर रहा है, जिसमें अब कुछ भी छिपा कर रखना मुश्किल होता जा रहा है. इधर बीच राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का लगातार खुलासा हुआ है, वह किसी से छुपा नहीं है.

करोड़ों-अरबों को पानी की तरह बहाने वाले ललित मोदी की सुर्खियों की स्याही सूखी भी न थी कि कर्नाटक-आंध्र में खनन माफिया रेड्डी बंधुओं और उनके सियासी, प्रशासनिक, व्यावसायिक गठजोड़ की परतें उघड़ने लगीं, लोग अभी दांतों तले उंगलियां दबा ही रहे थे कि राष्ट्रीय महिला हॉकी के कोच कौशिक का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया. रुचिका कांड में राठौड की संलिप्तता और कानून के शासन को ठेंगा चिढाते उनके सियासी-प्रशासनिक गठजोड़ के तार भी जब एक-एक कर उघड़ने लगे तो लोग चौंके ही नहीं थे, बल्कि लोगों का विश्वास बढा था जम्हूरियत में और उसकी रगों में रुधिर के रूप में दौड़ते उस मीडिया की ताकत में, जिसे अनेक बार बातचीत में बेसिर-पैर की खबरों को प्रचारित-प्रसारित करने वाला भी मान लिया जाता है.

आप क्या कहेंगे पिछले दिनों वेबसाइट विकीलीक्स द्वारा उजागर किए गए लगभग नब्बे हजार अमेरिकी रक्षा विभाग के दस्तावेजों के खुलासे पर. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तालिबानियों और दूसरे आतंकी संगठनों के रिश्तों की परतें तो उघड़ी ही है, साथ ही वाशिंगटन-इस्लामाबाद की उस गुप्त गठजोड़ की कलई भी खुली है, जिसकी ओर भारत लंबे समय से इशारा करता रहा है. दिलचस्प तो ये है कि इस खुलासे के बाद खुद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बयान दिया कि विकीलीक्स ने कुछ ऐसा नया नहीं कहा है, जो लोग पहले से न जानते हों.

सवाल है कि यदि अमेरिका पहले से ये सब जानता था तो औरों की छोड़ें, उसने खुद अपने राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में इसे रोका क्यों नहीं और दुनिया के सामने आतंक से लड़ने और उसके खिलाफ एकजुट होने की थोथी घोषणाएं क्यों कर रहा था? और, यदि वाशिंगटन इस खुलासे से वाकई चिंतित नहीं है तो क्यों उन 15 हजार दस्तावेजों को पेंटागन और एफबीआई अब विकीलीक्स से वापस मांग रहे हैं, जिनका खुलासा विकीलीक्स ने खुद व्यापक सुरक्षा के मद्देनजर नहीं किया था?

तो ये है खबरों की दुनिया की ताकत और सत्ता का चरित्र. जब दुनिया भर के अखबारों और मीडिया जगत में विकीलीक्स के हजारों दस्तावेजी खुलासे की चर्चा हो रही थी तो सत्ता में बैठे लोग इसे झुठलाने और बेकार की चीज बताने पर आमादा थे. लेकिन बाद में वही तंत्र अब इसकी वापसी की मांग कर रहा है और तर्क है कि इसके खुलासे से अफगानी जनता, वहां मौजूद अमेरिकी सेना और बहुतों की जान को खतरा हो सकता है तथा और भी व्यापक स्तर पर क्षति हो सकती है.

गौर करने की बात ये भी है कि अमेरिकी सरकार विकीलीक्स को धमका भी रही है कि यदि उसने 15 हजार दस्तावेजों को वापस नहीं किया तो सरकार उसे हासिल करने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार करेगी. गौर करने की बात है कि सत्ता का चरित्र कभी भी ऐसे खुलासे को बर्दाश्त नहीं कर पाता, जिसमें उसकी किसी भी कमी को उजागर किया गया हो. पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि यह गलत है, मनगढंत है. लेकिन जब सच्चाई की ताकत जोर पकड़ती है, तो झूठी अकड़ को भीगी बिल्ली बनते भी देखा जा सकता है. चाहे वो ललित मोदी हों, राठौड़ हों, कौशिक हों या फिर अमेरिकी सरकार और उस तंत्र पर काबिज शीर्षस्थ लोग.

लेकिन ऐसा लिखने का तात्पर्य ये भी नहीं है कि मीडिया कभी तिल का ताड़ नहीं बनाता या फिर गलत खबरें निहित स्वार्थ में नहीं उछालता. इस संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है कि मीडिया को खुद अपनी मर्यादा तय करनी होगी. विवेकजनित-संयम का परिचय भी देना होगा. और, यहां भी लोकतंत्र की अंतिम निर्णायक शक्ति जनता की चेतना को स्वीकार करना होगा, जो बहुत से मसलों पर अंतिम फैसले का हक रखने की तरह ही मीडिया पर भी मित्रवत नियंत्रण में सक्षम है. बात चूंकि मीडिया की हो रही है और हाल की खबरों के जरिए लोकतांत्रिक कलेवर की मजबूती की भी. ऐसे में एक और खबर का जिक्र करना चाहूंगा कि सेना में खराब राशन का मामला उजागर होने के तीन दिनों बाद ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने इसी शुक्रवार को तीन हजार करोड़ की अनियमितताओं का भी खुलासा किया है. यह घोटाला संवेदनशील हथियारों की खरीद में किया गया है.

तो बात चाहे सेना की हो या लाखों टन अनाज के गोदामों में सड़ने की, खेल की तैयारियों के नाम पर घोटालों की हो या फिर सत्ता मद में भ्रष्ट या किसी निर्दोष की जान से खेलने के आचरण की या फिर एक ध्रुवीय दुनिया के शिखर पर बैठे देश के झूठे प्रवचनों की कलई खोलने की - लोकतंत्र की जीवंतता के लिए खबरों की दुनिया का सचेत रहना उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी जीव के लिए ऑक्सीजन की अपरिहार्यता. काश! इस तथ्य को सत्ता मद का चरित्र भी समझ पाता. लेकिन बढती लोकतांत्रिक समझ और जागरूकता में इतनी कामना तो हम कर ही सकते हैं कि सभ्य और सुशिक्षित होती दुनिया वक्त के साथ जहां उच्श्रृंखलत छोड़ थोड़ी मर्यादा और संयम की ओर बढेगी, वहीं मीडिया की आलोचना को सुधारात्मक दवा समझ फ्रेंडली लेना भी सीख जाएगी.

और अंत में-

इस वास्ते उठाई है
तेरी बुराइयां
डरता हूं कि और न
तुझसे बुरा मिले.
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लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं। उनका यह लेख  'लोकमत समाचार' से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीशजी से girishmisra@lokmat.com पर संपर्क किया जा सकता है। आपका पन्ना ने यह लेख भड़ास4मीडिया डॉट कॉम से साभार लिया है।

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