Thursday, July 22, 2010

देह के इर्द गिर्द घूमती नजर

पुराणों में स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है। यही वजह है कि आज भी हमारे समाज में नवरात्रि के दिनों में कन्या भोज की परंपरा है। लेकिन यही दर्जा उसे शोषित भी बना रहा है। नारी जो आज पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है, उसे महज देह से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। हाल की कुछ घटनाएं इसका प्रमाण हैं। यह घटनाएं तो ऐसी हैं, जो सामने आ गईं, वरना न जाने कितनी दास्तानें वक्त के अंधेरे में धूल धुसरित हो चुकी होंगी, कौन जानता है। महिला हॉकी में शोषण की बात सामने आई तो इसी तरह के और मामले भी सामने आने लगे।

स्कूल, घर, गली, मोहल्ले, कॉलेज, दफ्तर और खेल। कहीं भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें केवल देह की तरह ही देखा जाता है। इसे पुरुष की कुंठित मानसिकता भी कह सकते हैं या यूं कहिए कि जहां भी मौका मिलता है वो यह जताना चाहता है कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह पुरुष है। हो सकता है कि यहां पर मेरा शब्द चयन सही न हो। लेकिन मन की व्यथा है, जो बाहर आ रही है। हैदराबाद की घटना ने भी अंदर तक आघात किया है। एक प्रिंसिपल, यानी गुरु, जिसने अपनी ही छात्रा के साथ एक साल तक बलात्कार किया। कितने घृणित हैं, ऐसे लोग। पवित्र स्थलों और पदवी को भी हवस की भेंट चढ़ा रहे हैं।

आखिर इसकी वजह क्या है। क्या कारण है कि पुरुष पाशविकता की ओर जा रहे हैं। आखिर स्त्रियां कहां सुरक्षित हैं। यदि वो घर, स्कूल और अपने मोहल्ले मे ही सुरक्षित नहीं हैं, तो कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकती हैं। कब तक उसे सिर्फ देह के रूप मे देखा जाएगा।

इन कुकृत्यों में शामिल पुरुषों से तो उनके घर की बेटियां भी सुरक्षित नहीं होंगी। जो दूसरों की बेटी को बुरी नजर से देख सकता है, उसके लिए क्या घर, क्या बाहर। ऐसी घटनाएं तब तक कम नहीं होंगी, जब तक ऐसे हवसियों को सरेआम चौराहों पर बांधकर चप्पलों से मारा नहीं जाएगा। क्योंकि इनको मृत्युदंड देने का मतलब है सस्ते में सजा पूरी कर देना। इनको जलील करो और इतना जलील करो कि शर्म से खुद मर जाएं। तभी सबक मिलेगा ऐसे हरामखोरों को।

देह के इर्द गिर्द घूमती नजर

पुराणों में स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है। यही वजह है कि आज भी हमारे समाज में नवरात्रि के दिनों में कन्या भोज की परंपरा है। लेकिन यही दर्जा उसे शोषित भी बना रहा है। नारी जो आज पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है, उसे महज देह से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। हाल की कुछ घटनाएं इसका प्रमाण हैं। यह घटनाएं तो ऐसी हैं, जो सामने आ गईं, वरना न जाने कितनी दास्तानें वक्त के अंधेरे में धूल धुसरित हो चुकी होंगी, कौन जानता है। महिला हॉकी में शोषण की बात सामने आई तो इसी तरह के और मामले भी सामने आने लगे।

स्कूल, घर, गली, मोहल्ले, कॉलेज, दफ्तर और खेल। कहीं भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें केवल देह की तरह ही देखा जाता है। इसे पुरुष की कुंठित मानसिकता भी कह सकते हैं या यूं कहिए कि जहां भी मौका मिलता है वो यह जताना चाहता है कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह पुरुष है। हो सकता है कि यहां पर मेरा शब्द चयन सही न हो। लेकिन मन की व्यथा है, जो बाहर आ रही है। हैदराबाद की घटना ने भी अंदर तक आघात किया है। एक प्रिंसिपल, यानी गुरु, जिसने अपनी ही छात्रा के साथ एक साल तक बलात्कार किया। कितने घृणित हैं, ऐसे लोग। पवित्र स्थलों और पदवी को भी हवस की भेंट चढ़ा रहे हैं।

आखिर इसकी वजह क्या है। क्या कारण है कि पुरुष पाशविकता की ओर जा रहे हैं। आखिर स्त्रियां कहां सुरक्षित हैं। यदि वो घर, स्कूल और अपने मोहल्ले मे ही सुरक्षित नहीं हैं, तो कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकती हैं। कब तक उसे सिर्फ देह के रूप मे देखा जाएगा।

इन कुकृत्यों में शामिल पुरुषों से तो उनके घर की बेटियां भी सुरक्षित नहीं होंगी। जो दूसरों की बेटी को बुरी नजर से देख सकता है, उसके लिए क्या घर, क्या बाहर। ऐसी घटनाएं तब तक कम नहीं होंगी, जब तक ऐसे हवसियों को सरेआम चौराहों पर बांधकर चप्पलों से मारा नहीं जाएगा। क्योंकि इनको मृत्युदंड देने का मतलब है सस्ते में सजा पूरी कर देना। इनको जलील करो और इतना जलील करो कि शर्म से खुद मर जाएं। तभी सबक मिलेगा ऐसे हरामखोरों को।

Wednesday, July 21, 2010

मगर सेफ पैसेज देने का हक किसे है?

आखिरकार मंत्री समूह ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए ‘इंसाफ’ कर दिया। लेकिन कई पहलुओं को जानबूझकर अनछुआ भी छोड़ दिया गया है। इस त्रासदी के सबसे अहम पहलुओं में से एक है यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमैन वॉरेन एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ (बिना कानूनी प्रक्रिया के सुरक्षित जाने देना)।

तत्कालीन विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि भारत सरकार ने एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ करवाया था। रसगोत्रा ने अटकलें लगाते हुए कहा कि ‘संभवत:’ इसकी अनुमति तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पूर्व सहमति से दी होगी। उन्होंने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि एंडरसन को जाने देना ‘देशहित’ में था, क्योंकि उसे परेशान करने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय हमसे किनारा कर लेता और इससे भारत में विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित होता।

रसगोत्रा के इस बयान से कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि जिस संदर्भ में ‘सेफ पैसेज’ का उल्लेख किया गया है, उसमें इसके क्या मायने हैं? क्या इसमें कानूनी प्रक्रियाओं से बचाव भी शामिल है? क्या राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय की किसी बेंच को भी अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रियाओं से मुक्त कर दे? जिस देश में कानून सर्वोपरि है, वहां यह अधिकार किसे है? विदेश सचिव को? गृह मंत्री को? या प्रधानमंत्री को? क्या एंडरसन के मामले में सीआरपीसी को भी मुल्तवी कर दिया गया था?

नक्सल समस्या सहित कानून व्यवस्था से जुड़े हर मसले पर भारत सरकार द्वारा कहा जाता है कि यह राज्य से जुड़ा मामला है। फिर एंडरसन के मामले में न्यायिक प्रक्रियाओं को कैसे भुला दिया गया? यह अक्षम्य है। कानून तोड़ने के लिए देशहित का हवाला नहीं दिया जा सकता। हैरानी है कि प्रशासन में इतने ऊंचे ओहदों पर रहा कोई शख्स कानून के प्रति ऐसा गैरजिम्मेदाराना रुख अख्तियार कर सकता है।

सरकार को वॉरेन एंडरसन को ‘सेफ पैसेज’ देने का अधिकार ही नहीं था। यह ऐसा ही है जैसे किसी भोंदू खरीदार को हावड़ा ब्रिज बेचना। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि तत्कालीन गृह मंत्री बेहद चौकस व्यक्ति थे और इस मामले की सभी गतिविधियां गृह मंत्रालय, पीएमओ और यकीनन विदेश मंत्रालय के संबंधित दस्तावेजों या फाइलों में दर्ज होंगी। इस पर बहस की जा सकती है कि अमेरिकी अनुरोध की कितनी पड़ताल की गई थी। एमएफ हुसैन की कतर से भारत वापसी के सुझावों की इस मामले से तुलना की जा रही है। लेकिन यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हुसैन को भारत की अदालतों में लंबित आरोपों से कोई कानूनी राहत नहीं दी गई है।

हमारे यहां कानून का किस तरह मखौल बनाया जाता है, इसका एक और उदाहरण श्रीलंकाई राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान देखने को मिला। राष्ट्रपति के साथ आए एक मंत्री भारतीय न्याय प्रक्रिया के तहत कानूनी रूप से दोषी ठहराए जा चुके हैं। मीडिया द्वारा इस तथ्य को प्रकाश में लाने के बावजूद मंत्री महोदय की आवभगत जारी रही। उनकी औपचारिक गिरफ्तारी तक के प्रयास नहीं किए गए। क्या अमेरिका में ऐसी किसी घटना की कल्पना की जा सकती है? क्या कोई भारतीय, चाहे वह कितने ही ऊंचे ओहदे पर क्यों न हो, अमेरिकी कानून द्वारा दोषी पाए जाने पर उस देश में सम्मान के साथ प्रवेश पा सकता है? लगता है आजादी के 63 सालों बाद भी हम कानून का सम्मान करना नहीं सीखे हैं। जब देश के कर्ताधर्ता ही ऐसा करेंगे तो फिर आम आदमी से तो यह अपेक्षा रखना बेकार ही है कि वह कानून की इज्जत करेगा।

लेखकः एसआर सुब्रमण्यम (दैनिक भास्कर अखबार, नई दिल्ली से साभार)

मगर सेफ पैसेज देने का हक किसे है?

आखिरकार मंत्री समूह ने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए ‘इंसाफ’ कर दिया। लेकिन कई पहलुओं को जानबूझकर अनछुआ भी छोड़ दिया गया है। इस त्रासदी के सबसे अहम पहलुओं में से एक है यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन चेअरमैन वॉरेन एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ (बिना कानूनी प्रक्रिया के सुरक्षित जाने देना)।

तत्कालीन विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि भारत सरकार ने एंडरसन का ‘सेफ पैसेज’ करवाया था। रसगोत्रा ने अटकलें लगाते हुए कहा कि ‘संभवत:’ इसकी अनुमति तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिंह राव ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पूर्व सहमति से दी होगी। उन्होंने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि एंडरसन को जाने देना ‘देशहित’ में था, क्योंकि उसे परेशान करने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय हमसे किनारा कर लेता और इससे भारत में विदेशी पूंजी निवेश प्रभावित होता।

रसगोत्रा के इस बयान से कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि जिस संदर्भ में ‘सेफ पैसेज’ का उल्लेख किया गया है, उसमें इसके क्या मायने हैं? क्या इसमें कानूनी प्रक्रियाओं से बचाव भी शामिल है? क्या राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय की किसी बेंच को भी अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रियाओं से मुक्त कर दे? जिस देश में कानून सर्वोपरि है, वहां यह अधिकार किसे है? विदेश सचिव को? गृह मंत्री को? या प्रधानमंत्री को? क्या एंडरसन के मामले में सीआरपीसी को भी मुल्तवी कर दिया गया था?

नक्सल समस्या सहित कानून व्यवस्था से जुड़े हर मसले पर भारत सरकार द्वारा कहा जाता है कि यह राज्य से जुड़ा मामला है। फिर एंडरसन के मामले में न्यायिक प्रक्रियाओं को कैसे भुला दिया गया? यह अक्षम्य है। कानून तोड़ने के लिए देशहित का हवाला नहीं दिया जा सकता। हैरानी है कि प्रशासन में इतने ऊंचे ओहदों पर रहा कोई शख्स कानून के प्रति ऐसा गैरजिम्मेदाराना रुख अख्तियार कर सकता है।

सरकार को वॉरेन एंडरसन को ‘सेफ पैसेज’ देने का अधिकार ही नहीं था। यह ऐसा ही है जैसे किसी भोंदू खरीदार को हावड़ा ब्रिज बेचना। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि तत्कालीन गृह मंत्री बेहद चौकस व्यक्ति थे और इस मामले की सभी गतिविधियां गृह मंत्रालय, पीएमओ और यकीनन विदेश मंत्रालय के संबंधित दस्तावेजों या फाइलों में दर्ज होंगी। इस पर बहस की जा सकती है कि अमेरिकी अनुरोध की कितनी पड़ताल की गई थी। एमएफ हुसैन की कतर से भारत वापसी के सुझावों की इस मामले से तुलना की जा रही है। लेकिन यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हुसैन को भारत की अदालतों में लंबित आरोपों से कोई कानूनी राहत नहीं दी गई है।

हमारे यहां कानून का किस तरह मखौल बनाया जाता है, इसका एक और उदाहरण श्रीलंकाई राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान देखने को मिला। राष्ट्रपति के साथ आए एक मंत्री भारतीय न्याय प्रक्रिया के तहत कानूनी रूप से दोषी ठहराए जा चुके हैं। मीडिया द्वारा इस तथ्य को प्रकाश में लाने के बावजूद मंत्री महोदय की आवभगत जारी रही। उनकी औपचारिक गिरफ्तारी तक के प्रयास नहीं किए गए। क्या अमेरिका में ऐसी किसी घटना की कल्पना की जा सकती है? क्या कोई भारतीय, चाहे वह कितने ही ऊंचे ओहदे पर क्यों न हो, अमेरिकी कानून द्वारा दोषी पाए जाने पर उस देश में सम्मान के साथ प्रवेश पा सकता है? लगता है आजादी के 63 सालों बाद भी हम कानून का सम्मान करना नहीं सीखे हैं। जब देश के कर्ताधर्ता ही ऐसा करेंगे तो फिर आम आदमी से तो यह अपेक्षा रखना बेकार ही है कि वह कानून की इज्जत करेगा।

लेखकः एसआर सुब्रमण्यम (दैनिक भास्कर अखबार, नई दिल्ली से साभार)

Saturday, July 17, 2010

अपशब्दों का कौशल

इन दिनों भारतीय राजनीति बड़े ही रोचक मोड़ पर है। सारे के सारे नेता बेलगाम होकर जहां तहां अपने भाषा ज्ञान के कौशल का आलोक बिखेर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इसमें उन सभी स्यवंभू महान टाइप की पार्टियों के नेता शामिल हैं, जो खुद को संस्कारित कहते थकती नहीं हैं। एक राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुत्ता, दामाद, औरंगजेब की औलाद और न जाने किन किन शब्दों में प्रयोग अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए कर रहे हैं। वहीं दूसरे भी कम नहीं हैं, जो उन्हें औकात दिखा रहे हैं और उनसे उनके पिता के बारे में जानकारी पूछ रहे हैं।

ये हाल हैं हमारे लोकतांत्रिक देश भारत के। ये वही नेता हैं जो खुद को जनप्रतिनिधि मानते हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। जो एयरकंडीशन कमरों में बैठकर जनता के हाल पर मंथन करते हैं और देश की दिशा तय करते हैं। वो नेता जो हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर से जनता का हाल जानते हैं और फिर अपना फैसला थोप देते हैं।

रही बात इनके स्तर की तो वो आए दिन हम सभी देखते सुनते रहते हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में तो ये किसी से पीछे नहीं रहते हैं। छीछालेदर की हद तो कोई इनसे जाने।

वो नेता जो मौका लगते ही पाला बदलने में देर नहीं करते हैं। इसे आप मेरे मन की व्यथा कहें या देश की दुर्दशा पर सच तो यही है। नेता वाकई जनता को मूर्ख ही समझते हैं। तभी तो जब जो मन में आया कह दिया और प्रतिकूल परिस्थितियों में यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं, या इन्हें यह कहते हुए भी सुना जा सकता है कि उनके बयान का गलत अर्थ लगाया गया है। लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलाई जा रही है।

देश के हाल से तो आप सभी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। एक तरफ झारखंड जैसा राज्य है, जहां राजनीतिक स्थिरता नाम की कोई चिडिया दूर दूर तक नहीं दिख रही है, तो दूसरी ओर तेजी से पांव पसारता नक्सलवाद है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति का खामियाजा भुगत रहे हैं। आए दिन सीआरपीएफ और पुलिस के जवान काल के गाल में समा रहे हैं, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि आखिर क्या करें। कुर्सी के लिए जितनी कुरबानियां उतनी कम।

स्वार्थ सिद्धि के लिए तो देश को बेचने में भी ये लोग पीछे नहीं हटेंगे।

अपशब्दों का कौशल

इन दिनों भारतीय राजनीति बड़े ही रोचक मोड़ पर है। सारे के सारे नेता बेलगाम होकर जहां तहां अपने भाषा ज्ञान के कौशल का आलोक बिखेर रहे हैं। मजे की बात यह है कि इसमें उन सभी स्यवंभू महान टाइप की पार्टियों के नेता शामिल हैं, जो खुद को संस्कारित कहते थकती नहीं हैं। एक राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुत्ता, दामाद, औरंगजेब की औलाद और न जाने किन किन शब्दों में प्रयोग अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए कर रहे हैं। वहीं दूसरे भी कम नहीं हैं, जो उन्हें औकात दिखा रहे हैं और उनसे उनके पिता के बारे में जानकारी पूछ रहे हैं।

ये हाल हैं हमारे लोकतांत्रिक देश भारत के। ये वही नेता हैं जो खुद को जनप्रतिनिधि मानते हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। जो एयरकंडीशन कमरों में बैठकर जनता के हाल पर मंथन करते हैं और देश की दिशा तय करते हैं। वो नेता जो हवाई जहाज, हेलीकॉप्टर से जनता का हाल जानते हैं और फिर अपना फैसला थोप देते हैं।

रही बात इनके स्तर की तो वो आए दिन हम सभी देखते सुनते रहते हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में तो ये किसी से पीछे नहीं रहते हैं। छीछालेदर की हद तो कोई इनसे जाने।

वो नेता जो मौका लगते ही पाला बदलने में देर नहीं करते हैं। इसे आप मेरे मन की व्यथा कहें या देश की दुर्दशा पर सच तो यही है। नेता वाकई जनता को मूर्ख ही समझते हैं। तभी तो जब जो मन में आया कह दिया और प्रतिकूल परिस्थितियों में यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि उन्होंने तो ऐसा कहा ही नहीं, या इन्हें यह कहते हुए भी सुना जा सकता है कि उनके बयान का गलत अर्थ लगाया गया है। लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलाई जा रही है।

देश के हाल से तो आप सभी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। एक तरफ झारखंड जैसा राज्य है, जहां राजनीतिक स्थिरता नाम की कोई चिडिया दूर दूर तक नहीं दिख रही है, तो दूसरी ओर तेजी से पांव पसारता नक्सलवाद है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति का खामियाजा भुगत रहे हैं। आए दिन सीआरपीएफ और पुलिस के जवान काल के गाल में समा रहे हैं, लेकिन सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि आखिर क्या करें। कुर्सी के लिए जितनी कुरबानियां उतनी कम।

स्वार्थ सिद्धि के लिए तो देश को बेचने में भी ये लोग पीछे नहीं हटेंगे।

Monday, July 12, 2010

अहमदाबाद से मिंट का संस्करण शुरू

एचटी मीडिया लिमिटेड का बिजनेस अखबार मिंट अब अहमदाबाद से भी प्रकाशित होना शुरू हो गया है। अहमदाबाद संस्करण का पहला अंक आज यानी 13 जुलाई 2010 को प्रकाशित हुआ है। इसी के साथ मिंट के संस्करणों की संख्या बढ़कर छह हो गई है। मिंट दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर, कोलकाता और चेन्नई से प्रकाशित हो रहा है। यह अखबार चंडीगढ़ एवं पुणे में भी उपलब्ध है। अहमदाबाद संस्करण के जरिए मिंट को अब बड़ौदा, राजकोट, सूरत एवं गांधीनगर के पाठक भी पढ़ सकेंगे।

अहमदाबाद से मिंट का संस्करण शुरू

एचटी मीडिया लिमिटेड का बिजनेस अखबार मिंट अब अहमदाबाद से भी प्रकाशित होना शुरू हो गया है। अहमदाबाद संस्करण का पहला अंक आज यानी 13 जुलाई 2010 को प्रकाशित हुआ है। इसी के साथ मिंट के संस्करणों की संख्या बढ़कर छह हो गई है। मिंट दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर, कोलकाता और चेन्नई से प्रकाशित हो रहा है। यह अखबार चंडीगढ़ एवं पुणे में भी उपलब्ध है। अहमदाबाद संस्करण के जरिए मिंट को अब बड़ौदा, राजकोट, सूरत एवं गांधीनगर के पाठक भी पढ़ सकेंगे।

Friday, July 9, 2010

असंवेदनशीलता की हद


पुलिस, यह शब्द सुनकर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है? जहां तक मुझे लगता है, अच्छी बनने के आसार तो न्यूनतम ही होंगे। वैसे अगर आपने कुछ वर्षों पहले आई फिल्म गोलमाल देखी हो तो उसमें तुषार कपूर (जो फिल्म में एक गूंगे शख्स की भूमिका में हैं) बड़ी ही रोचकता तथा सरलता से पुलिस वाले के आने का संदेश देते हैं। खैर, विषयांतर होना ठीक नहीं है। हाल ही में पुलिस की असंवेदनशीलता के दो कारनामे सुनने और पढ़ने को मिले। हालांकि पुलिस वालों के पक्ष में अच्छा सुनने को तो कान तरसते ही रहते हैं। यहां मामला हमारे देश के हृदय स्थल मध्य प्रदेश का है। तीन दिनों पहले प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे शहर सीहोर में एक हृदयविदारक घटना घटी। एक दबंग शख्स ने एक व्यक्ति की जान फिल्मी गुंडे की तरह ले ली और पुलिस हमेशा की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।

इससे भी ज्यादा दुखदायी तो यह है कि यह घटना सरे बाजार, सरे राह हो रही थी और लोग यह तमाशा देख रहे थे, क्योंकि मरने वाला उनका कुछ नहीं लगता था। मामला यह है कि सीहोर का एक नामी गुंडा एक शख्स को अपनी कार के पीछे बांधकर तब तक पूरे शहर की सड़कों पर घसीटता रहा, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। पुलिसिया बेशर्मी की हद यह कि, सब कुछ पता होने के बावजूद आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया।

मामला भोपाल पहुंचा, तो अमला क्रियाशील होता प्रतीत हुआ। हैरत तो तब हुई जब भोपाल रेंज (सीहोर भी इसी के अंतर्गत आता है) के आईजी ने कहा कि आरोपी पुलिस की हिरासत में है, जबकि सीहोर के पुलिस कप्तान का बयान ठीक उनके उलट है। एसपी का कहना है कि आरोपी की तलाश जारी है और उसकी खबर देने वाले को पुलिस की तरफ से पांच हजार रुपए का नगद ईनाम भी दिया जाएगा।

अब बताइए, इसे क्या कहेंगे। एक तरफ तो सरकार सुशासन का दावा करती है और दूसरी तरफ राजधानी के पड़ोस में ही दिन दहाड़े ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनसे जनता का भरोसा कानून व्यवस्था से उठते देर नहीं लगेगी। रही बात नेताओं की तो वो पूरी बेशर्मी से मुस्तैदी का दावा करते हैं। पुलिस वाले तो उनके गुलाम हैं ही।

अब दूसरी घटना भी इससे कहीं कम नहीं है। इस बार भी मामला प्रदेश के ही पिपरिया जिले का है। यहां पुलिसिया बर्बरता के चलते एक महिला को अपने गर्भ के पल रहे बच्चों की जान से हाथ धोना पड़ा। घटना कुछ इस तरह है। पिपरिया की रहने वाली अनुराधा पर दहेज प्रताड़ना तथा हत्या मे साथी होने का आरोप है। अदालत ने जिस समय उसे सजा सुनाई, उस वक्त उसके पेट में छह माह का गर्भ था। पुलिस वालों ने इस बात को अनेदखा करते हुए उसे जीप से ही होशंगाबाद जेल ले जाना तय किया। जीप को पथरीले रास्ते पर भी फर्राटे से दौड़ाते रहे। नतीजा अनुराधा के पेट में दर्द होने लगा। काफी मनौतियों के बाद भी पुलिसवालों ने जीप की गति को धीमा नहीं किया। जेल पहुंचने के बाद भी अनुराधा की मेडिकल जांच नहीं करवाई गई। बाद में जेल के अस्पताल में जांच के दौरान उसने अपनी तकलीफ के बारे में बताया, जिसके बाद उसे अस्पताल ले जाने की तैयारी की गई, हालांकि इसमें भी जल्दबाजी नहीं की गई। नतीजा अस्पताल पहुंचते तक मामला हाथ से निकल चुका था।

असंवेदनशीलता की हद तो यह कि जब भोपाल के सुल्तानिया अस्पताल के डॉक्टरों ने अनुराधा को भर्ती करने के लिए कहा, तो जेल के गार्ड ने यह यह कहते हुए मना कर दिया कि उसे सिर्फ जांच के लिए लाया गया है। जेल पहुंचकर की गई घंटो लंबी कागजी कार्रवाई के बाद अनुराधा को दोबारा अस्पताल ले जाकर भर्ती कराया गया। लेकिन जब डिलीवरी हुई तो दो मृत शिशुओं को बाहर निकाला गया।

यह घटना निश्चय ही हृदय विदारक तो है ही साथ ही असंवेदनशीलता की चरमसीमा है। कानून व्यवस्था नागरिको के सहयोग और सुविधा के लिए होता है या उन्हें परेशान करने के लिए। इस तरह की घटनाओं से यह तो सिद्ध होता है कि मध्यप्रदेश पुलिस अपना ध्येय वाक्य “देशभक्ति जनसेवा” भूल चुकी है साथ ही प्रदेश की सरकार जो महिलाओं के उत्थान, सुरक्षा और हक की बात करती है वो भी दोगली है।

इस तरह की व्यवस्था से वाकई दिलो-दिमाग को ठेस तो पहुंचती ही है व्यवस्था से भरोसा भी डगमगा जाने के लिए मजबूर हो जाता है।

असंवेदनशीलता की हद


पुलिस, यह शब्द सुनकर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है? जहां तक मुझे लगता है, अच्छी बनने के आसार तो न्यूनतम ही होंगे। वैसे अगर आपने कुछ वर्षों पहले आई फिल्म गोलमाल देखी हो तो उसमें तुषार कपूर (जो फिल्म में एक गूंगे शख्स की भूमिका में हैं) बड़ी ही रोचकता तथा सरलता से पुलिस वाले के आने का संदेश देते हैं। खैर, विषयांतर होना ठीक नहीं है। हाल ही में पुलिस की असंवेदनशीलता के दो कारनामे सुनने और पढ़ने को मिले। हालांकि पुलिस वालों के पक्ष में अच्छा सुनने को तो कान तरसते ही रहते हैं। यहां मामला हमारे देश के हृदय स्थल मध्य प्रदेश का है। तीन दिनों पहले प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे शहर सीहोर में एक हृदयविदारक घटना घटी। एक दबंग शख्स ने एक व्यक्ति की जान फिल्मी गुंडे की तरह ले ली और पुलिस हमेशा की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।

इससे भी ज्यादा दुखदायी तो यह है कि यह घटना सरे बाजार, सरे राह हो रही थी और लोग यह तमाशा देख रहे थे, क्योंकि मरने वाला उनका कुछ नहीं लगता था। मामला यह है कि सीहोर का एक नामी गुंडा एक शख्स को अपनी कार के पीछे बांधकर तब तक पूरे शहर की सड़कों पर घसीटता रहा, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। पुलिसिया बेशर्मी की हद यह कि, सब कुछ पता होने के बावजूद आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया।

मामला भोपाल पहुंचा, तो अमला क्रियाशील होता प्रतीत हुआ। हैरत तो तब हुई जब भोपाल रेंज (सीहोर भी इसी के अंतर्गत आता है) के आईजी ने कहा कि आरोपी पुलिस की हिरासत में है, जबकि सीहोर के पुलिस कप्तान का बयान ठीक उनके उलट है। एसपी का कहना है कि आरोपी की तलाश जारी है और उसकी खबर देने वाले को पुलिस की तरफ से पांच हजार रुपए का नगद ईनाम भी दिया जाएगा।

अब बताइए, इसे क्या कहेंगे। एक तरफ तो सरकार सुशासन का दावा करती है और दूसरी तरफ राजधानी के पड़ोस में ही दिन दहाड़े ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनसे जनता का भरोसा कानून व्यवस्था से उठते देर नहीं लगेगी। रही बात नेताओं की तो वो पूरी बेशर्मी से मुस्तैदी का दावा करते हैं। पुलिस वाले तो उनके गुलाम हैं ही।

अब दूसरी घटना भी इससे कहीं कम नहीं है। इस बार भी मामला प्रदेश के ही पिपरिया जिले का है। यहां पुलिसिया बर्बरता के चलते एक महिला को अपने गर्भ के पल रहे बच्चों की जान से हाथ धोना पड़ा। घटना कुछ इस तरह है। पिपरिया की रहने वाली अनुराधा पर दहेज प्रताड़ना तथा हत्या मे साथी होने का आरोप है। अदालत ने जिस समय उसे सजा सुनाई, उस वक्त उसके पेट में छह माह का गर्भ था। पुलिस वालों ने इस बात को अनेदखा करते हुए उसे जीप से ही होशंगाबाद जेल ले जाना तय किया। जीप को पथरीले रास्ते पर भी फर्राटे से दौड़ाते रहे। नतीजा अनुराधा के पेट में दर्द होने लगा। काफी मनौतियों के बाद भी पुलिसवालों ने जीप की गति को धीमा नहीं किया। जेल पहुंचने के बाद भी अनुराधा की मेडिकल जांच नहीं करवाई गई। बाद में जेल के अस्पताल में जांच के दौरान उसने अपनी तकलीफ के बारे में बताया, जिसके बाद उसे अस्पताल ले जाने की तैयारी की गई, हालांकि इसमें भी जल्दबाजी नहीं की गई। नतीजा अस्पताल पहुंचते तक मामला हाथ से निकल चुका था।

असंवेदनशीलता की हद तो यह कि जब भोपाल के सुल्तानिया अस्पताल के डॉक्टरों ने अनुराधा को भर्ती करने के लिए कहा, तो जेल के गार्ड ने यह यह कहते हुए मना कर दिया कि उसे सिर्फ जांच के लिए लाया गया है। जेल पहुंचकर की गई घंटो लंबी कागजी कार्रवाई के बाद अनुराधा को दोबारा अस्पताल ले जाकर भर्ती कराया गया। लेकिन जब डिलीवरी हुई तो दो मृत शिशुओं को बाहर निकाला गया।

यह घटना निश्चय ही हृदय विदारक तो है ही साथ ही असंवेदनशीलता की चरमसीमा है। कानून व्यवस्था नागरिको के सहयोग और सुविधा के लिए होता है या उन्हें परेशान करने के लिए। इस तरह की घटनाओं से यह तो सिद्ध होता है कि मध्यप्रदेश पुलिस अपना ध्येय वाक्य “देशभक्ति जनसेवा” भूल चुकी है साथ ही प्रदेश की सरकार जो महिलाओं के उत्थान, सुरक्षा और हक की बात करती है वो भी दोगली है।

इस तरह की व्यवस्था से वाकई दिलो-दिमाग को ठेस तो पहुंचती ही है व्यवस्था से भरोसा भी डगमगा जाने के लिए मजबूर हो जाता है।

Monday, July 5, 2010

छह महीने में 59 पत्रकारों की हत्या

इस साल के पहले छह महीनों में दुनियाभर के 59 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है। मीडिया अधिकारों के लिए काम करने वाले समूह पीईसी के मुताबिक पिछले साल इसी अवधि में 56 पत्रकार मारे गए थे। जिनेवा स्थित इस गैर सरकारी संगठन ने एक बयान में बताया कि सबसे ज्यादा पत्रकारों की हत्या मैक्सिको में हुई, जहां संगठित अपराधी गिरोह पत्रकारों को निशाना बना रहे हैं।

इस मामले में दूसरा सबसे खतरनाक देश होंडुरास है, जहां आठ पत्रकारों की हत्या हुई है।

इस दौरान पाकिस्तान में 6, नाइजीरिया में 4 और फिलीपीन में 4 पत्रकारों की हत्या की गई। इनके अलावा जिन देशों में पत्रकारों की हत्या की गई हैं उनमें:

  • रूस (3)
  • कोलंबिया (3)
  • इराक (2)
  • नेपाल (2)
  • थाइलैंड (2)
  • वेनेजुएला (2) शामिल हैं।


अफगानिस्तान, अंगोला, बांग्लादेश, ब्राजील, बुल्गारिया, कैमरून, साइप्रस, एक्वाडोर, इजरायल, लोकतांत्रिक कांगो गणराज्य, रवांडा, तुर्की, सोमालिया और यमन में भी एक-एक पत्रकार की हत्या हुई है।

“पत्रकार उन देशों में सबसे ज्यादा खतरों से जूझते हैं जो आंतरिक समस्याओं से गुजर रहे हैं।“ - ब्लैस लेंपेन, पीईसी महासचिव

छह महीने में 59 पत्रकारों की हत्या

इस साल के पहले छह महीनों में दुनियाभर के 59 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है। मीडिया अधिकारों के लिए काम करने वाले समूह पीईसी के मुताबिक पिछले साल इसी अवधि में 56 पत्रकार मारे गए थे। जिनेवा स्थित इस गैर सरकारी संगठन ने एक बयान में बताया कि सबसे ज्यादा पत्रकारों की हत्या मैक्सिको में हुई, जहां संगठित अपराधी गिरोह पत्रकारों को निशाना बना रहे हैं।

इस मामले में दूसरा सबसे खतरनाक देश होंडुरास है, जहां आठ पत्रकारों की हत्या हुई है।

इस दौरान पाकिस्तान में 6, नाइजीरिया में 4 और फिलीपीन में 4 पत्रकारों की हत्या की गई। इनके अलावा जिन देशों में पत्रकारों की हत्या की गई हैं उनमें:

  • रूस (3)
  • कोलंबिया (3)
  • इराक (2)
  • नेपाल (2)
  • थाइलैंड (2)
  • वेनेजुएला (2) शामिल हैं।


अफगानिस्तान, अंगोला, बांग्लादेश, ब्राजील, बुल्गारिया, कैमरून, साइप्रस, एक्वाडोर, इजरायल, लोकतांत्रिक कांगो गणराज्य, रवांडा, तुर्की, सोमालिया और यमन में भी एक-एक पत्रकार की हत्या हुई है।

“पत्रकार उन देशों में सबसे ज्यादा खतरों से जूझते हैं जो आंतरिक समस्याओं से गुजर रहे हैं।“ - ब्लैस लेंपेन, पीईसी महासचिव

Saturday, July 3, 2010

अभी भी कहर ढा रहा है यूनियन कार्बाइड

यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के 346 टन रेडियोएक्टिव कचरे को ठिकाने लगाने का अभ्यास करते वक्त 6 कर्मचारियों की आंखों की रोशनी कुछ हद तक चली गई। यह हादसा इंदौर से 22 किमी दूर पीथमपुर में रैम्की एनवायरो इंजीनियर्स की फैक्ट्री में हुआ। यहीं पर यूनियन कार्बाइड के जहरीले मलबे को ठिकाने लगाए जाने की योजना है।

भोपाल में हजारों लोगों की जान लेने वाली यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री का जहरीला मलबा अब भी ऐसे ही पड़ा हुआ है। हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस जगह से खतरनाक केमिकलों को हटाकर सफाई कराने की योजना को मंजूरी दी है।

इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए पीठमपुर में इन्सिनरेटर लगाया गया है। फिलहाल इसका ट्रायल चल रहा है। इसी दौरान शुक्रवार रात को इस टॉक्सिक कचरे के संपर्क में आने से 6 कर्मचारियों की आंखों की रोशनी पर असर पड़ा है। उनके शरीर के दूसरे अंगों पर भी असर पड़ा है। केंदीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी इस हादसे पर चुप्पी साध ली।

कुछ एनजीओ पीठमपुर में यूनियन कार्बाइड के टॉक्सिक कचरे को ठिकाने लगाने का विरोध कर रहे हैं। इस हादसे के बाद उनका कहना है कि वह अपना आंदोलन तेज करेंगे।

नवभारत टाइम्स से साभार

अभी भी कहर ढा रहा है यूनियन कार्बाइड

यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के 346 टन रेडियोएक्टिव कचरे को ठिकाने लगाने का अभ्यास करते वक्त 6 कर्मचारियों की आंखों की रोशनी कुछ हद तक चली गई। यह हादसा इंदौर से 22 किमी दूर पीथमपुर में रैम्की एनवायरो इंजीनियर्स की फैक्ट्री में हुआ। यहीं पर यूनियन कार्बाइड के जहरीले मलबे को ठिकाने लगाए जाने की योजना है।

भोपाल में हजारों लोगों की जान लेने वाली यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री का जहरीला मलबा अब भी ऐसे ही पड़ा हुआ है। हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस जगह से खतरनाक केमिकलों को हटाकर सफाई कराने की योजना को मंजूरी दी है।

इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए पीठमपुर में इन्सिनरेटर लगाया गया है। फिलहाल इसका ट्रायल चल रहा है। इसी दौरान शुक्रवार रात को इस टॉक्सिक कचरे के संपर्क में आने से 6 कर्मचारियों की आंखों की रोशनी पर असर पड़ा है। उनके शरीर के दूसरे अंगों पर भी असर पड़ा है। केंदीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी इस हादसे पर चुप्पी साध ली।

कुछ एनजीओ पीठमपुर में यूनियन कार्बाइड के टॉक्सिक कचरे को ठिकाने लगाने का विरोध कर रहे हैं। इस हादसे के बाद उनका कहना है कि वह अपना आंदोलन तेज करेंगे।

नवभारत टाइम्स से साभार