Friday, April 3, 2009

भास्कर के ग्रुप एडिटर नवाजे जाएंगे राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवॉर्ड से


समाजसेवी व स्वतंत्रता सेनानी रामचंद्र रघुवंशी ‘काकाजी’ की पुण्य स्मृति में आयोजित होने वाले प्रतिष्ठित राष्ट्रीय क्रांतिवीर अवॉर्ड (११वां) से इस बार पत्रकार एवं दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर श्रवण गर्ग को अलंकृत किया जाएगा। उन्हें रजत मशाल, शॉल, श्रीफल व अभिनंदन पत्र प्रदान किया जाएगा। साथ ही अर्पित विजयवर्गीय स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जाएगा।

समारोह शिप्रा तट स्थित दत्तअखाड़ा पर शनिवार शाम 6.30 बजे होगा। महर्षि पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. मोहन गुप्त समारोह की अध्यक्षता करेंगे। मुख्य अतिथि विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शिवपालसिंह एहलावत होंगे। विशिष्ट अतिथि संस्कृतविद् महामहोपाध्याय आचार्य श्रीनिवास रथ, संत सुमनभाई, कलेक्टर अजातशत्रु, वरिष्ठ पत्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अवंतिलाल जैन, व अधिवक्ता नरेंद्र छाजेड़ रहेंगे।


काकाजी पुण्य स्मरण समारोह समिति के संयोजक ओमप्रकाश खत्री, डॉ. प्रकाश रघुवंशी ने बताया कि कार्यक्रम की शुरुआत शिप्रा तट पर जलघर बनाकर की गई थी। इस अवसर पर आयोजित सांस्कृतिक संध्या में गायक ज्वलंत शर्मा का गायन व उदीयमान नृत्यांगना प्रतिभा रघुवंशी व दल वंदना और समूह नृत्य प्रस्तुत करेगा। आयोजन समिति के सदस्य डॉ. बमशंकर जोशी व डॉ. शैलेंद्र पाराशर ने समारोह में उपस्थित होने का अनुरोध किया है।

Thursday, April 2, 2009

लोक पर हावी चुनावी तंत्र

इस बार के आम चुनावों के बाद देश में कैसी होगी राजनैतिक तस्‍वीर बता रहे हैं योगेंद्र यादव जी।

आप इस मुद्दे क्‍या विचार रखते हैं, हमें जरुर बताएं।

इन चुनावों के बाद नए-नए गठबंधन उभरेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।

इस चुनावी महासमर की आखिरी तस्वीर में अभी से ही आम वोटर हाशिए पर चला गया है। समय के पार खड़ी इन तस्वीरों में लुटियन सिटी के बंगलों के बाहर कैमरों की चकाचौंध है। यहां नेता एक घर से दूसरे घर में दाखिल होते हुए एक गांठ खोलकर दूसरा गठबंधन बना रहे हैं। यहां दलाल राजनेता से बड़ा है, लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत वोटर और उसके वोट से बड़ा है। लोकतंत्र में एक बार तंत्र लोक पर हावी है।

हम सभी की नजर में ये निराशाजनक तस्वीर गठबंधन की कोख से पैदा हुई है, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि राजनीति में गठबंधन अपने आप में गलत या अवसरवादिता का पर्याय है। इतने बड़े लोकतंत्र की राजनीति गठबंधन के सहारे ही चल सकती है। ये गठजोड़ अलग-अलग पार्टियों के एक मोर्चे की शक्ल में हो सकता है या फिर किसी राजनीतिक पार्टी के भीतर भी। आज की राजनीतिक पार्टियां गठजोड़ के इस बुनियादी सच को कबूलना नहीं चाहतीं। वे गठबंधन के लिए जरूरी सम्मान, सोच और लक्ष्य के धरातल पर खड़ी होकर वोटर के बीच नहीं जाना चाहतीं। वे वोटर के फैसले के बाद गठबंधन की ‘सेटिंग’ करना चाहती हैं। अगर हमें सिर्फ चुनावी गणित से आगे लोकतंत्र की चिंता है तो हमें समझना होगा कि आखिर सत्ताधारी यूपीए, एनडीए और तीसरी शक्ति सभी आधे-अधूरे गठबंधन के साथ चुनाव में क्यों कूद रहे हैं।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हमें सबसे पहले एक मोटी गिनती करना होगी कि हर गठबंधन ऐसी कितनी सीटों पर लड़ाई लड़ रहा है, जहां उसके जीत तक पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। ये वह सीटें हैं, जहां पिछले लोकसभा चुनावों में उसे जीत हासिल हुई थी या फिर वह दूसरे स्थान पर रहा था। इस लिहाज से 2004 के आम चुनाव में एनडीए ने 434 सीटों पर दांव आजमाया था। इनमें से भाजपा 271 और उसके सहयोगी 163 सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रहे थे, लेकिन इस बार नवीन पटनायक का बीजू जनता दल, जयललिता की एआईएडीएमके और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पीएमके समेत भाजपा के कई बड़े सहयोगियों ने उससे किनारा कर लिया है।

इसके बदले में भाजपा के हाथ में एजीपी, आईएनएलडी और आरएलडी जैसी बहुत छोटी पार्टियां ही आ पाई हैं। इसी का नतीजा है कि एनडीए इस बार ऐसी सिर्फ 356 सीटों पर किस्मत आजमा रहा है, जहां जीत की उम्मीद कर सकता है। यहां भी दिलचस्प है कि भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा 86 सीटों तक सिमट गया है। एनडीए का सिमटता दायरा भारतीय लोकतंत्र की सामाजिक विविधता को स्वीकार न करने का नतीजा है।

हालांकि 2002 में गुजरात के नरसंहार के बाद उसके किसी भी सहयोगी ने उससे अपना दामन नहीं छुड़ाया, लेकिन 2004 के आम चुनावों में मिली शिकस्त के बाद ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक सभी ने भाजपा को अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया। इन सबकी दलील थी कि गुजरात दंगों की वजह से इन्होंने मुस्लिम समुदाय के बीच अपना समर्थन गंवा दिया। इसी स्थिति से भाजपा को पहले तमिलनाडु में गुजरना पड़ा और अब उड़ीसा में। हो सकता है कि बिहार में भी उसका यही हश्र हो।
कांग्रेस की स्थिति भी भाजपा से बहुत अलग नहीं है। पिछले आम चुनावों में 425 सीटें ऐसी थीं, जहां कांग्रेस या उसके सहयोगी या तो जीत तक पहुंचे थे या दूसरे स्थान पर रहे थे। इसमें उसके सहयोगियों ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था। अगर कांग्रेस इन चुनावों में जीत को लेकर गंभीरता दिखाती तो वह चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी और जेडीएस के साथ दोस्ती कर लेती।

इस स्थिति में वह 500 सीटों पर मजबूती से लड़ सकती थी, लेकिन इसके उलट बीते पांच वर्षो में वह अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगियों को भी गंवा बैठी। आरजेडी और एलजेपी आज उसके साथ नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी को अपनी ओर कर लिया है, लेकिन वह भी इस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती। आज कांग्रेस और उसके सहयोगी महज 390 सीटों पर एक मजबूत लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस आंकड़े से सत्ता की चाबी हाथ नहीं लग सकती। कांग्रेस सहयोगियों के साथ खुले दिल से सत्ता में भागीदारी करना नहीं जानती। राजनीति की रस्सी भले ही जल जाए, लेकिन देश का खेवनहार होने की ऐंठ अभी भी बाकी है।

तीसरी शक्ति की स्थिति सबसे दिलचस्प है। एक पल सत्ता की चाबी इसके हाथ दिखती है और दूसरे ही पल ये खाली हाथ खड़ी नजर आती है। असल में किसी को भी नहीं मालूम कौन इसका हिस्सा है और कौन इसके बाहर खड़ा है, इसलिए इसे लेकर गुणा-भाग करना सबसे मुश्किल है। पिछले आम चुनाव में अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा उम्मीदवारों और सीटों के बीच इस तीसरी शक्ति की ताकत को पढ़ने की कोशिश करें तो एक बेहद सुहावनी तस्वीर सामने आती है।

देश में 50 फीसदी से ज्यादा वोट और सत्ता के लिए जरूरी आंकड़ों से यह शक्ति कुछ ही दूरी पर खड़ी दिखाई देती है। पिछले बीस वर्षो में राजनीति की तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है। जाहिर है अगर सभी गैरकांग्रेसी और गैरभाजपा दल एक साथ आ जाएं तो वे निश्चित तौर पर सबसे बड़ा राजनीतिक गठबंधन होंगे, लेकिन जैसे-जैसे तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है, तीसरा मोर्चा सिमटता गया है।
अभी तक चुनावी बिसात पर सजाई गोटियों के बीच 16 मई को नतीजों के बाद इस गठबंधन के बरकरार रहने का भरोसा नहीं जागता। सिर्फ एक ही सूरत में ये मुमकिन है, जबकि एनडीए और यूपीए दोनों मिलकर 200 सीटों का आंकड़ा पार न कर सकें। तीसरे मोर्चे के दलों की असली दिक्कत ये है कि तीसरी शक्ति की हर पार्टी देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग एजेंडों पर चलती है।

आधे-अधूरे गठबंधन का गणित चुनाव पूर्व से चुनाव बाद की मंत्रणाओं पर खिसक जाता है। चुनाव के परिणाम वोटर के हाथ से फिसलकर नेताओं और दलालों की जेब में कैद हो जाते हैं। इस ‘छठे दौर’ में नए समीकरण बनेंगे। नए गठबंधन उभार लेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही पूरी तरह हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।
जितने आधे-अधूरे ये गठबंधन हैं, उतनी ही आधी-अधूरी है लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी।
-लेखक जाने-माने चुनाव विश्लेषक हैं।

भास्‍कर डॉट कॉम से साभार

लोक पर हावी चुनावी तंत्र

इस बार के आम चुनावों के बाद देश में कैसी होगी राजनैतिक तस्‍वीर बता रहे हैं योगेंद्र यादव जी।

आप इस मुद्दे क्‍या विचार रखते हैं, हमें जरुर बताएं।

इन चुनावों के बाद नए-नए गठबंधन उभरेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।

इस चुनावी महासमर की आखिरी तस्वीर में अभी से ही आम वोटर हाशिए पर चला गया है। समय के पार खड़ी इन तस्वीरों में लुटियन सिटी के बंगलों के बाहर कैमरों की चकाचौंध है। यहां नेता एक घर से दूसरे घर में दाखिल होते हुए एक गांठ खोलकर दूसरा गठबंधन बना रहे हैं। यहां दलाल राजनेता से बड़ा है, लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत वोटर और उसके वोट से बड़ा है। लोकतंत्र में एक बार तंत्र लोक पर हावी है।

हम सभी की नजर में ये निराशाजनक तस्वीर गठबंधन की कोख से पैदा हुई है, लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि राजनीति में गठबंधन अपने आप में गलत या अवसरवादिता का पर्याय है। इतने बड़े लोकतंत्र की राजनीति गठबंधन के सहारे ही चल सकती है। ये गठजोड़ अलग-अलग पार्टियों के एक मोर्चे की शक्ल में हो सकता है या फिर किसी राजनीतिक पार्टी के भीतर भी। आज की राजनीतिक पार्टियां गठजोड़ के इस बुनियादी सच को कबूलना नहीं चाहतीं। वे गठबंधन के लिए जरूरी सम्मान, सोच और लक्ष्य के धरातल पर खड़ी होकर वोटर के बीच नहीं जाना चाहतीं। वे वोटर के फैसले के बाद गठबंधन की ‘सेटिंग’ करना चाहती हैं। अगर हमें सिर्फ चुनावी गणित से आगे लोकतंत्र की चिंता है तो हमें समझना होगा कि आखिर सत्ताधारी यूपीए, एनडीए और तीसरी शक्ति सभी आधे-अधूरे गठबंधन के साथ चुनाव में क्यों कूद रहे हैं।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हमें सबसे पहले एक मोटी गिनती करना होगी कि हर गठबंधन ऐसी कितनी सीटों पर लड़ाई लड़ रहा है, जहां उसके जीत तक पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। ये वह सीटें हैं, जहां पिछले लोकसभा चुनावों में उसे जीत हासिल हुई थी या फिर वह दूसरे स्थान पर रहा था। इस लिहाज से 2004 के आम चुनाव में एनडीए ने 434 सीटों पर दांव आजमाया था। इनमें से भाजपा 271 और उसके सहयोगी 163 सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रहे थे, लेकिन इस बार नवीन पटनायक का बीजू जनता दल, जयललिता की एआईएडीएमके और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी और पीएमके समेत भाजपा के कई बड़े सहयोगियों ने उससे किनारा कर लिया है।

इसके बदले में भाजपा के हाथ में एजीपी, आईएनएलडी और आरएलडी जैसी बहुत छोटी पार्टियां ही आ पाई हैं। इसी का नतीजा है कि एनडीए इस बार ऐसी सिर्फ 356 सीटों पर किस्मत आजमा रहा है, जहां जीत की उम्मीद कर सकता है। यहां भी दिलचस्प है कि भाजपा के सहयोगियों का आंकड़ा 86 सीटों तक सिमट गया है। एनडीए का सिमटता दायरा भारतीय लोकतंत्र की सामाजिक विविधता को स्वीकार न करने का नतीजा है।

हालांकि 2002 में गुजरात के नरसंहार के बाद उसके किसी भी सहयोगी ने उससे अपना दामन नहीं छुड़ाया, लेकिन 2004 के आम चुनावों में मिली शिकस्त के बाद ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक सभी ने भाजपा को अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया। इन सबकी दलील थी कि गुजरात दंगों की वजह से इन्होंने मुस्लिम समुदाय के बीच अपना समर्थन गंवा दिया। इसी स्थिति से भाजपा को पहले तमिलनाडु में गुजरना पड़ा और अब उड़ीसा में। हो सकता है कि बिहार में भी उसका यही हश्र हो।
कांग्रेस की स्थिति भी भाजपा से बहुत अलग नहीं है। पिछले आम चुनावों में 425 सीटें ऐसी थीं, जहां कांग्रेस या उसके सहयोगी या तो जीत तक पहुंचे थे या दूसरे स्थान पर रहे थे। इसमें उसके सहयोगियों ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था। अगर कांग्रेस इन चुनावों में जीत को लेकर गंभीरता दिखाती तो वह चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी और जेडीएस के साथ दोस्ती कर लेती।

इस स्थिति में वह 500 सीटों पर मजबूती से लड़ सकती थी, लेकिन इसके उलट बीते पांच वर्षो में वह अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगियों को भी गंवा बैठी। आरजेडी और एलजेपी आज उसके साथ नहीं हैं। हालांकि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में टीएमसी को अपनी ओर कर लिया है, लेकिन वह भी इस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती। आज कांग्रेस और उसके सहयोगी महज 390 सीटों पर एक मजबूत लड़ाई लड़ रहे हैं।

इस आंकड़े से सत्ता की चाबी हाथ नहीं लग सकती। कांग्रेस सहयोगियों के साथ खुले दिल से सत्ता में भागीदारी करना नहीं जानती। राजनीति की रस्सी भले ही जल जाए, लेकिन देश का खेवनहार होने की ऐंठ अभी भी बाकी है।

तीसरी शक्ति की स्थिति सबसे दिलचस्प है। एक पल सत्ता की चाबी इसके हाथ दिखती है और दूसरे ही पल ये खाली हाथ खड़ी नजर आती है। असल में किसी को भी नहीं मालूम कौन इसका हिस्सा है और कौन इसके बाहर खड़ा है, इसलिए इसे लेकर गुणा-भाग करना सबसे मुश्किल है। पिछले आम चुनाव में अगर गैरकांग्रेस, गैरभाजपा उम्मीदवारों और सीटों के बीच इस तीसरी शक्ति की ताकत को पढ़ने की कोशिश करें तो एक बेहद सुहावनी तस्वीर सामने आती है।

देश में 50 फीसदी से ज्यादा वोट और सत्ता के लिए जरूरी आंकड़ों से यह शक्ति कुछ ही दूरी पर खड़ी दिखाई देती है। पिछले बीस वर्षो में राजनीति की तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है। जाहिर है अगर सभी गैरकांग्रेसी और गैरभाजपा दल एक साथ आ जाएं तो वे निश्चित तौर पर सबसे बड़ा राजनीतिक गठबंधन होंगे, लेकिन जैसे-जैसे तीसरी जमीन का विस्तार हुआ है, तीसरा मोर्चा सिमटता गया है।
अभी तक चुनावी बिसात पर सजाई गोटियों के बीच 16 मई को नतीजों के बाद इस गठबंधन के बरकरार रहने का भरोसा नहीं जागता। सिर्फ एक ही सूरत में ये मुमकिन है, जबकि एनडीए और यूपीए दोनों मिलकर 200 सीटों का आंकड़ा पार न कर सकें। तीसरे मोर्चे के दलों की असली दिक्कत ये है कि तीसरी शक्ति की हर पार्टी देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग एजेंडों पर चलती है।

आधे-अधूरे गठबंधन का गणित चुनाव पूर्व से चुनाव बाद की मंत्रणाओं पर खिसक जाता है। चुनाव के परिणाम वोटर के हाथ से फिसलकर नेताओं और दलालों की जेब में कैद हो जाते हैं। इस ‘छठे दौर’ में नए समीकरण बनेंगे। नए गठबंधन उभार लेंगे। इस देश के आम आदमी के लिए बनने वाली सरकार में आम आदमी ही पूरी तरह हाशिए पर ढकेल दिया जाएगा। सत्ता की चाबी बिचौलियों के हाथ में होगी।
जितने आधे-अधूरे ये गठबंधन हैं, उतनी ही आधी-अधूरी है लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी।
-लेखक जाने-माने चुनाव विश्लेषक हैं।

भास्‍कर डॉट कॉम से साभार