Wednesday, February 17, 2016

अभिव्‍यक्ति की आजा़दी के नाम पर क्‍या कुछ भी किया जा सकता है

असहिष्‍णुता और अभिव्‍यक्ति दो ऐसे शब्‍द हैं, जिन्‍होंने पिछले दो वर्षों में हमारे देश में काफी ख्‍याति पाई है। ऐसी ख्‍याति जो पूरी दुनिया में चर्चित हुई। कभी धर्म के नाम पर तो कभी बोलने के नाम पर असहिष्‍णुता और अभिव्‍यक्ति की बात की गई। यह तो सच है कि हमारे संविधान ने बोलने की स्‍वतंत्रता दी है, लेकिन इसकी आड़ में आप किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाएं, या मान‍हानि करें तो क्‍या इसे सही कहा जाएगा। अभिव्‍यक्ति की आजादी के नाम पर आप पाकिस्‍तान जिंदाबाद कहें तो क्‍या यह सही है। अफज़ल गुरु एक ऐसा शख्‍स था, जिसने देश की संसद पर हमले की साजिश में आतंकियों की मदद की। उसे देश की सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई थी।
तो, जो लोग उसकी मौत पर ग़म मना रहे हैं या फिर इसे अन्‍याय कह रहे हैं, उन्‍हें क्‍या माना जाए। यहां पर मैं धर्म या जाजि की बात नहीं कर रहा हूं। मैं एक घटना की बात कर रहा हूं।
मेरा एक सवाल है सहिष्‍णुता और अभिव्‍यक्ति के झंडाबरदारों से, कि क्‍या वो लोग कभी पाकिस्‍तान जाकर सरबजीत की मौत के लिए पाकिस्‍तानी सरकार का विरोध करेंगे। क्‍या उस क्रिकेट प्रेमी के समर्थन में रैलियां निकालेंगे, जिसे केवल इसलिए पाकिस्‍तान ने जेल में डाल दिया क्‍योंकि वो विराट कोहली का फैन है और उसने अपने घर की छत पर तिरंगा फहरा दिया था।
क्‍या अमेरिका में जाकर ओसामा बिन लादेन की हत्‍या के लिए अमेरिकी सरकार और फौज के खिलाफ रैलियां, आंदोलन और भाषणबाजी करेंगे। अगर वो ऐसा भी करते हैं तो निश्चित तौर पर हर भारतवासी दिल से उनका समर्थन करेगा।
लेकिन इस प्रकार की घटनाएं एक ऐसे देश में हो रही हैं, जहां अभिव्‍यक्ति के नाम पर ऐसा करने की पाबंदियां कम हैं। क्‍योंकि जैसे ही उन पर कार्रवाई होगी, तो कई राजनीतिक दल उनका समर्थन करते हुए अपनी रोटियां सेकने के लिए पहुंच जाएंगे।
यह बेहद अफसोसजनक है कि हमारे देश के विश्‍वविद्यालय और कॉलेज पढ़ाई से ज्‍यादा नेतागिरी और राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं। इस स्थिति में तो भारत में कभी भी ऑक्‍सफोर्ड या एमआईटी जैसे संस्‍थान खड़े नहीं हो पाएंगे, क्‍योंकि वहां तो लोग पढ़ने जाते हैं और हमारे यहां नेता बनने के लिए। देश में कई ऐसे विश्‍वविद्यालय हैं, जो पूरे साल किसी न किसी मामले पर सुर्खियों में बने रहे हैं। कभी राजनीतिक नियुक्तियों की वजह से तो कभी बयानबाजी या फिर छात्रसंघ के नाम पर।
लगता है कि मानो अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि भारतीय शिक्षण संस्‍थान किसलिए बनाए गए हैं। ज्ञानार्जन के लिए या फिर राजनीति दलों को नए मुद्दे देने के लिए।
एक और सबसे मजे़दार बात। द वर्ल्‍ड यूनिसवर्सिटी रैंकिंग हर साल दुनिया के सर्वश्रेष्‍ठ 100 शिक्षण संस्‍थानों की एक सूची जारी करती है, जिसमें भारत का एक भी संस्‍थान नहीं है। क्‍या किसी ने कभी इस बात पर ध्‍यान दिया है कि आखिर क्‍या वजह है कि उक्‍त सूची की टॉप 100 में भारतीय संस्‍थान क्‍यों नहीं हैं।
दिल्‍ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में हुई ताज़ा घटना से यह तो स्‍पष्‍ट है कि भारतीय शिक्षण संस्‍थान पढ़ाई से इतर किन वजहों से दुनिया में चर्चित हो सकते हैं। यह तो हम पर निर्भर है कि हम नेकी में नाम चाहते हैं या फिर बदी में। देश हमारा है और हमें ही इसके बारे में सोचना होगा। सियासी दल और सियासतदां तो केवल मुद्दे को उछालने का मौका तलाशते हैं, क्‍योंकि उनके अस्तित्‍व के लिए यह जरूरी है, लेकिन हमारे लिए नहीं।

Wednesday, April 15, 2015

वोट के लिए तो जनहित किया ही जा सकता है

गूगल सर्च से साभार
देश में एक दशक तक एक ऐसी सरकार का राज रहा, जिसने योजनाएं तो खूब बनाईं, पर अमल तो चुनिंदा पर ही हो सका। हां, घोटाले जरूर एक से बढ़कर एक हुए। लाखों और करोड़ों लूटना तो अब पुरानी और शर्मनाक बात बन चुकी है। जब तक आंकड़ा 100 करोड़ से ऊपर न हो, इज्‍जत ही नहीं बनती है। सरकार बदली तो उम्‍मीद जगी कि शायद अब व्‍यवस्‍थाएं बदलें। लेकिन यह भी कोरी कल्‍पना साबित होती जा रही हैं।

भ्रष्‍टाचार अब भी बेलगाम है, हां यह कह सकते हैं कि अपनी पीठ थपथपाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। विश्‍व की सबसे तेज उभरती हुई अर्थव्‍यवस्‍था की एक सचाई यह भी है कि यहां अब भी करोड़ों लोग गरीब और भूखे हैं। अशिक्षित और बेरोजगार हैं। जिनके पास पेट भरने को नहीं है। उनको सरकारों से मतलब नहीं होता है, उन्‍हें तो दो वक्‍त की रोटी की चिंता होती है।

बड़े बुजुर्गों में कहा है, 'भूखे भजन न होई गोपाला'। गलत नही है। मौसम की मार ने किसानों के सामने मुसीबत खड़ी कर दी है। देश के कई राज्‍यों में हजारों एकड़ फसल खेत में ही नष्‍ट हो गई है। न जाने कितने किसानों ने आत्‍महत्‍या कर ली है। सरकारों ने उनके जख्‍मों पर राहत का मरहम लगाने के स्‍थान पर महज कुछ सौ रुपए या कुछ हजार रुपए का मुआवजा रूपी झुनझुना थमा दिया है। एक राज्‍य में तो जिला कलेक्‍टर ने किसान की आत्‍महत्‍या का मजाक ही बना दिया।

अजब-गजब मध्‍यप्रदेश की तो बात ही क्‍या है। यहां की राजधानी भोपाल में वीआईपी क्षेत्रों में रहने वालों के लिए विशेष वाटर ट्रीटमेंट प्‍लांट लगाया गया है, ताकि मंत्री और नौकरशाह आरओ क्‍वालिटी का पानी नल से ही पी सकें। लेकिन उन लोगों की सुध कोई नहीं ले रहा है जो नदी में खड़े रहकर आंदोलन कर रहे हैं। एक तरफ खबरें छपती हैं कि राज्‍य का खजाना सस्‍ता हो चुका है और तनख्‍वाहों के अलावा कोई और भुगतान नहीं किया जा सकता है। तो दूसरी ओर रोज नई-नई घोषणाएं हो रही हैं। मजे की बात यह है कि घोषणाएं करने और पूरी होने का अनुपात अपने आप में एक शोध का विषय बन सकता है।

भ्रष्‍टाचार में तो सब एक से बढ़कर एक हैं। यदि फलाने ने ढिमाके पर भ्रष्‍टाचार के आरोप लगाए तो ढिमाके ने उस पर कार्रवाई करने के बजाय फलाने के पाप गिनाना शुरू कर दिया। यानी लब्‍बोलुआब यह कि तुम्‍हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय।

सारा का सारा ध्‍यान केवल इस ओर है कि किस धर्म को कोसें और किसे अच्‍छा कहें। केंद्र में सत्‍ता परिवर्तन होते ही बचनवीर बुलंद हो गए हैं। आए दिन घर वापसी, लव जेहाद और नसबंदी जैसी बातें होने लगी हैं। क्‍या ऐसा करने से गरीब का पेट भर जाएगा। यदि कोई ईसाई अपना धर्म बदलकर हिंदू हो जाएगा, तो उसे रोजगार, रोटी और छत नसीब होगी। मेरी छोटी बुद्धि तो कहती है कि ऐसा शायद नहीं हो सकेगा।

हालांकि देवतातुल्‍य नेताओं की दृष्टि में ऐसा संभव हो सकता है, जो मेरी समझ में न आ रहा हो। लेकिन क्‍या करूं। आम इंसान जो ठहरा।

मेरे विचार से (शायद अधिकांश लोग इससे सहमत न हों) राजनीति को धर्म या पार्टी केंद्रित न होकर, जनकेंद्रित होना चाहिए। योजनाएं केवल बनाई न जाएं, उनको अमल में लाना भी सुनिश्चित किया जाए। शिक्षा की बात भर न की जाए, वाकई देश के अंतिम नागरिक तक उसे उपलब्‍ध कराया जाए। स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के लिए घोषणाएं भर न की जाएं, बल्कि उसे ऐसा बनाया जाए कि लोगों को सचमुच लाभ मिल सके।

चलिए एक विकल्‍प और बताता हूं। जनहित को यह सोचकर मत करिए कि इससे जनता का भला होगा। क्‍योंकि ऐसा सोचना भारत की राजनीतिज्ञों को शोभा नहीं देता है शायद। नेतागण यह सोचकर यह सब करें कि इससे उनका वोट बैंक मजबूत होगा। हां, शायद इस लालच में तो जनहित किया ही जा सकता है। बाकि देश और अभागी जनता का भाग्‍य। 

Saturday, October 25, 2014

सबके लिए मंगल है अंतरिक्ष अभियान?

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘विज्ञान से ही भूख और गरीबी की समस्या हल हो सकती है।‘ आज जब मंगलयान लाल ग्रह की कक्षा में प्रवेश करने जा रहा है और अमेरिका, चीन, जापान, रूस जैसे देश स्पेस मिशन्स पर अरबों रूपए खर्च कर रहे हैं, तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि इन अंतरिक्ष अभियानों की आम आदमी के लिए क्या उपयोगिता है?
भारत में अंतरिक्ष अभियान की शुरुआत करते समय डॉ. विक्रम साराभाई ने कहा था कि स्पेस साइंस और तकनीक का लाभ आम आदमी तक पहुंचना जरूरी है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (इसरो) में स्पेस विभाग के सचिव डॉ. के. राधाकृष्णन ने अपनी किताब ‘स्पेस टेक्नोलॉजी – बेनेफिट्स टू कॉमन मैन’ में लिखा है कि अंतरिक्ष में इसरो के 20 सेटेलाइट्स हैं, जो संचार, प्रसारण, प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन, पर्यावरण की निगरानी, मौसम का पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन में सहायक साबित हो रहे हैं।
उनके मुताबिक, इन अंतरिक्ष यानों से हर देशवासी के जीवन में सकारात्मक बदलाव आया है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक लाभ हुए हैं, सूचना तकनीक के माध्यम से त्वरित फैसले संभव हुए हैं, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान लाखों लोगों की जिंदगियां बचाई गई हैं।
भारत के लिए अंतरिक्ष अभियान की कामयाबी आर्थिक दृष्टि से भी अहम है। इस समय दुनिया का स्पेस बाजार करीब 300 अरब डॉलर का है। इसमें सैटेलाइट प्रक्षेपण, उपग्रह बनाना, जमीनी उपकरण बनाना और सैटेलाइट ट्रैकिंग शामिल हैं। टेलीकम्युनिकेशन के साथ-साथ यह दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता कारोबार है। भारत ने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सही समय से प्रवेश किया और आज दुनिया के लीडर हैं। स्पेस टेक्नॉलजी में भी हम सफलता हासिल कर सकते हैं। हमारा पीएसएलवी रॉकेट दुनिया के सबसे सफलतम रॉकेटों में एक है और उससे प्रक्षेपण कराना सबसे सस्ता पड़ता है।
पीने के पानी से लेकर मनोरंजन तक में फायदा

  • अस्सी के दशक में चुनिंदा शहरों में टीवी थे। आज लगभग हर घर में टीवी है और डायरेक्ट टू होम (डीटीएच) तकनीक किसी क्रांति से कम नहीं है।
  • देश के करीब 70 हजार एटीएम इनसैट सैटेलाइट्स से कनेक्ट होकर ग्राहकों को बेहतर सेवाएं दे रहे हैं।
  • फिशिंग जोन में समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है। इससे हर जहाज हर साल औसतन पांच लाख रूपए का ईंधन बचाता है। देश में इस समय पचास हजार से ज्यादा मछली पकड़ने के जहाज संचालित हो रहे हैं।
  • सैटलाइट डेटा जमीन के अंदर पानी के संसाधनों का पता लगाने में बहुत कारगर साबित हुए हैं। राजीव गांधी पेयजल अभियान में इस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। सैटेलाइट से मिले संकेतों के आधार पर तीन लाख कुएं खोदे गए। 95 फीसद में पानी निकला।
  • आज जीपीएस तकनीक आम बात हो चुकी है। जीपीएस की मदद से व्यक्ति तक राहत पहुंचाने के कई उदाहरण सामने हैं।

इनसान के स्पेस में जाने के बड़े कारण
अंतरिक्ष अभियानों की वकालत करने वालों से आमतौर पर पूछा जाता है कि जब धरती पर समस्याओं का अंबार लगा है तो दूसरे ग्रहों पर क्या चल रहा है, यह जानने के लिए हम अरबों रुपए क्यों खर्च करें? UniverseToday वेबसाइट ने यह सवाल अंतरिक्ष वैज्ञानिकों से पूछा, जो श्रेष्ठ जवाब मिले, वे इस प्रकार हैं :

धरती नष्ट हुई तो भी जिंदा रह सकेंगे : वर्तमान में जीवन सिर्फ धरती पर संभव है। यदि धरती को कुछ हो गया, मसलन- कोई विशाल ग्रह टकरा जाए, परमाणु युद्ध हो जाए, या प्राकृतिक आपदा सबकुछ बर्बाद कर जाए तो इनसान कहां जाएगा। दूसरे ग्रह पर जीवन तलाश लिया जाए, इसमें मानव जाति की भलाई है। चंद्रमा और मंगल पर जीवन मिलता है तो यह मानव जाति तथा धरती पर उसकी उपलब्धियों का बीमा होगा।
नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा : अपोलो मिशन की कामयाबी के बाद दुनियाभर के युवाओं में गणित तथा विज्ञान में करियर बनाने को लेकर जागरूकता बढ़ी है। समाज में तकनीक का इस्तेमाल बढ़ रहा है। ऐसे में यह जरूरी है कि नई पीढ़ी हमेशा कुछ नया करने को लेकर सोचती रहे। अंतरिक्ष मिशन जारी रहेंगे तो यह प्रेरणा कायम रहेगी।
दुनिया को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे : सभी अंतरिक्ष अभियानों का उद्देश्य ब्रह्मांड को समझना है। जीवन कैसे शुरू हुआ, ब्रह्मांड कैसे अस्तित्व में आया, क्या सिर्फ धरती पर ही जीवन संभव है...ऐसे सवालों के पुख्ता जवाब नई पीढ़ी को दे पाएंगे। बुध और मंगल ग्रह के अध्ययन से पता चलता है कि ग्रहों पर कितनी तेजी से परिस्थितियां बदल सकती हैं।
धन की बर्बादी नहीं : एक बड़ा तबका मानता है कि स्पेस मिशन्स धन की बर्बादी है, लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि सरकार जो धन आवंटित करती है, उससे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का वेतन दिया जाता है। वे अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरे ग्रहों पर जाते हैं।
नई तकनीक : अंतरिक्ष अभियानों के तहत दुनिया भर के जानकार लोग साथ काम कर रहे हैं। इस तरह इनसानों से जुड़ी सामान्य समस्याओं पर किए गए शोध बहुत कामयाब रहे हैं। हेल्दी बेबी फूड से लेकर कैंसर का पता लगाने की नई तकनीक और दूर जा रही गोल्फ की बॉल पर नजर रखने तक की तकनीक का संबंध स्पेस टेक्नोलॉजी से है।
एकता का संदेश : दुनियाभर के अंतरिक्ष अभियानों से यह संदेश मिलता है कि मानव जाति की बेहतरी के लिए सभी को मिलकर कार्य करना चाहिए। आज विभिन्न देशों के अंतरिक्ष वैज्ञानिक साथ काम करते हैं, अपनी उपलब्धियों को एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं।
एक पहलू यह भी
भारत : हमारा उद्देश्य जीवन की तलाश अमेरिका का अंतरिक्ष यान मावेन मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश कर चुका है। इसका मुख्य उद्देश्य लाल ग्रह के ऊपरी पर्यावरण, आयनमंडल, सूर्य और वहां से आ रही गर्म हवाओं के संबंध का पता लगाना है। वहीं भारतीय यान लाल ग्रह पर मिथेन की मौजूदगी का पता भी लगाएगा। इसरो स्पेस एप्लिकेशन सेंटर के सहायक निदेशक एएस किरण कुमार के मुताबिक, यदि मंगल ग्रह पर मिथेन की मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं तो वहां जीवन की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। मंगलवाय पर जो मिथेन सेंसर लगा है जो किरण कुमार ने ही बनाया है। इस तरह वहां बस्तियां बसाने का मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा।
अमेरिका : दुनिया पर राज करने की मंशा अमेरिका ने हाल में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं, जिन्हें भविष्य के अंतरिक्ष हथियार के रूप में देखा जा रहा है। अमेरिकी वायुसेना के एक्स-37बी रोबोटिक स्पेस प्लेन के परीक्षण और डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी के प्रोटोटाइप एचटीवी-3 ग्लाइडर के असफल परीक्षण को इसी श्रेणी में रखा जा रहा है। अमेरिका ने उपग्रहों को नष्ट करने वाली मिसाइलों का भी परीक्षण किया है। इस तरह कुछ देश अमेरिका के स्पेस प्रोग्राम को शक की निगाहों से देखते हैं। उनका कहना है कि अमेरिका दुनिया पर राज करना चाहता है।
चीन : सब्जियों के बहाने चांद पर मिसाइल बेस! चीन ने दावा किया था कि वह अंतरिक्ष में सब्जियां उगाएगा। हालांकि डेली मेल में छपी एक खबर के मुताबिक, वह चंद्रमा पर मिसाइल बेस बनाने की कोशिश कर रहा है। चीन के लुनार एक्सप्लोरेशन सेंटर के एक विशेषज्ञ के मुताबिक, इस तरह धरती के किसी भी कौन में हमला किया जा सकेगा। चीन की इस कवायद को स्टार वार्स फिल्म के डेथ स्टार से जोड़कर देखा जा रहा है।

Monday, September 15, 2014

हमेशा के लिए थम जाएगी 'देश की धड़कन' एचएमटी

90 के दशक तक आम लोगों के लिए हाथ घड़ी का मतलब केवल एचएमटी हुआ करता था। लेकिन पिछले 20-25 वर्षों से मानो यह नाम कहीं खो गया है। पचास वर्षों तक लोगों की कलाई पर सजने वाली यह घड़ी अब इतिहास में दर्ज होने जा रही है।

भारत सरकार का भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम विभाग अब इस कंपनी को बंद करने के आदेश पर अंतिम मुहर लगाने जा रहा है। विभाग का कहना है कि एचएमटी पिछले एक दशक से भी ज्‍यादा समय से नुकसान में जा रही है।

नुकसान के लिए जिम्‍मेदार

एचएमटी ने 1961 में देश में घड़ि‍यों का उत्‍पादन शुरू किया था। इसके लिए कंपनी ने जापानी की घड़ी निर्माता कंपनी सिटीजन से अनुबंध किया था। 1970 में एचएमटी ने सोना और विजय ब्रांड नाम के साथ क्‍वार्ट्ज घड़ि‍यों का निर्माण भी शुरू किया था।

लेकिन यह कंपनी का यह कदम समय से काफी पहले लिया गया निर्णय साबित हुआ। दरअसल, उस दौर में भारत में महंगी घड़ि‍यों के चुनिंदा खरीदार ही होते थे। इसलिए कंपनी का यह प्रयोग घाटे का सौदा साबित हुआ। जल्‍द ही कंपनी को अपनी गलती का अहसास हुआ और एचएमटी ने दोबारा मैकेनिकल घड़ि‍यों का उत्‍पादन शुरू कर दिया।

1987 में दूसरी निजी कंपनियों ने भारतीय बाजार में क्‍वार्ट्ज घड़ि‍यों को बेचना शुरू कर दिया। तब तक एचएमटी का पूरा ध्‍यान केवल मैकेनिकल घड़ि‍यों पर ही था और इसी के संयंत्र लगाए जा रहे थे।

देश की एक नामी घड़ी निर्माता कंपनी के प्रबंध संचालक भास्‍कर भट्ट के अनुसार एचएमटी के पास सफलता की सारी कुंजियां थी। उनके पास ऐसे इंजीनियर्स की फौज थी, जो बेहतरीन तकनीक वाली घड़ि‍यां बनाना जानते थे। उनका रिटेल नेटवर्क, सर्विस और वितरण तंत्र भी काफी मजबूत था। हालांकि प्रबंधकीय कमियों के चलते उनकी इस फौज के कई सिपाही दूसरी कंपनियों से जुड़ते चले गए।

भट्ट का कहना है कि एचएमटी की स्थिति रॉयल एनफील्‍ड मोटरसाइकिल की तरह है। इसकी छवि देश की क्‍लासिक घड़ी निर्माता कंपनी की है। देश की कई पीढ़ि‍यों ने एचएमटी की घड़ि‍यां पहनी हैं। इसलिए यदि यह कंपनी दोबारा बाजार में आती है तो लोग जरूर हाथों हाथ लेंगे।


  • लगभग ढाई दशक पहले तक परीक्षा में पास होने पर माता-पिता अपने बच्‍चों के तोहफे में एचएमटी की घड़ि‍यां देते थे।
  • शादियों में दूल्‍हे को घड़ी खासतौर पर एचएमटी देने का रिवाज था।
  • दफ्तरों से रिटायर होने वाले कर्मियों को भी स्‍मृति चिन्‍ह के रूप में इसी ब्रांड की घड़ी दी जाती थी।

भारत के कलाई घड़ी बाजार में 1991 तक एचएमटी का एकतरफा बोलबाला था। तीन दशकों तक भारत में घड़ी का मतलब एचएमटी हुआ करता था और यही वजह थी कि कंपनी ने अपनी टैगलाइन 'देश की धड़कन' रखी थी। 1993 में आर्थिक सुधारों के दौर में भारतीय बाजारों को दुनिया के लिए खोल दिया गया और यहीं से एचएमटी का बुरा वक्‍त शुरू हुआ।

घड़ी से फैशन तक

विशेषज्ञों का कहना है कि बदलते समय के साथ एचएमटी बदल नहीं सकी। कंपनी ने यह समझने में देर कर दी कि घड़ी अब, केवल वक्‍त देखने के लिए नहीं, बल्कि फैशन के लिए भी पहनी जाती है।

एचएमटी के पूर्व सीएमडी एन रामानुजन के अनुसार के 1990 तक को सबकुछ ठीक था। इसके बाद कंपनी की श्रीनगर स्थित फैक्‍टरी बंद हो गई और 500 कर्मचारियों को बिना काम के ही तनख्‍वाहें देनी पड़ीं, जिससे एचएमटी की माली हालत खराब होने लगी। यहीं से बुरे वक्‍त की शुरुआत मानी जा सकती है। कंपनी ने सरकार के सामने कई योजनाएं रखीं, लेकिन उन्‍हें नहीं माना गया और घाटा बढ़ता चला गया।

वित्‍तीय वर्ष 2013-14 में कंपनी का घाटा बढ़कर 233.08 करोड़ रुपए हो गया था, जो 2012-13 में 242.47 करोड़ था।

एक नजर कंपनी की शुरुआत पर


  • एचएमटी (हिंदुस्‍तान मशीन टूल्‍स) की स्‍थापना 1961 में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कहने पर की गई थी।
  • उस वक्‍त घड़ी ब्रांड का नाम जनता रखा गया था, जिसने अपने उत्‍पादन काल में 115 मिलियन से भी ज्‍यादा घड़ि‍यों का उत्‍पादन किया था।
  • कंपनी मैकेनिकल घड़ी, क्‍वार्ट्ज घड़ी, महिलाओं के लिए कलाई घड़ी, ऑटोमैटिक घड़ी और ब्रेल घड़ी का उत्‍पादन करती थी।
  • कंपनी की इकलौती घड़ी उत्‍पादन फैक्‍टरी कर्नाटक के तुमकुर में है, जिसकी प्रति वर्ष उत्‍पादन क्षमता 20 लाख घड़ि‍यां थीं।
  • एचएमटी की कंचन घड़ी का बाजार मूल्‍य 700 रुपए था, जबकि चोर बाजार में उसे 1000 रुपए तक में बेचा जाता था।

Friday, August 8, 2014

क्‍यों हुआ था ब्रिटिश भारत का बंटवारा

अगस्‍त 1947 से लगातार हर वर्ष दक्षिण एशिया के दो देश, भारत और पाकिस्‍तान अपना स्‍वतंत्रता दिवस मनाते हैं। 14 अगस्‍त को पाकिस्‍तान में यौम-ए-आजादी मनाई जाती है तो अगले दिन 15 अगस्‍त को भारत में स्‍वतंत्रता दिवस की धूम रहती है। लेकिन एक सवाल ऐसा है जो आज के युवाओं के मन-मस्तिष्‍क में रह-रहकर उठना चाहिए, वह यह है कि आखिर किन वजहों से भारत को दो (पूर्वी पाकिस्‍तान को मिलाकर 3) हिस्‍सों में बांट दिया।
बंटवारे को लेकर हमें जो ज्ञान किताबों और टीवी से मिलता है, वह यह है कि अंग्रेजों ने भारत से अपनी हुकूमत खत्‍म करने के पहले यह कदम उठाया था। इस बंटवारे की वजह से एक करोड़ से भी ज्‍यादा लोगों को अपनी-अपनी मातृभूमि छोड़कर जाना पड़ा था और आधिकारिक रूप से एक लाख से ज्‍यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था।
ब्रिटिश हुकूमत में मुस्लिम बाहुल्‍य क्षेत्र को पाकिस्‍तान और हिंदुओं के आधिक्‍य वाले क्षेत्र को भारत घोषित किया था। हालांकि माना तो यह भी जाता है कि इस बंटवारे के पीछे राजनीतिक महत्‍वकांक्षा सबसे बड़ी वजह थी। ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के अभिलेखों के मुताबिक भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के शीर्ष नेतृत्‍व की जिद के चलते बंटवारा किया गया और भारत और पाकिस्‍तान नाम से दो देश बनाए गए। इसमें से एक देश जिसे पूर्वी पाकिस्‍तान या पूर्वी बंगाल कहा जाता था (अब बांग्‍लादेश) वह पश्चिमी पाकिस्‍तान से 1700 किलोमीटर दूर था। इस तरह से कहा जाए तो धर्म के आधार पर भारत के तीन टुकड़े हुए थे।
यह संभव है कि मुस्लिम लीग के नेता मोहम्‍मद अली जिन्‍ना की यह ख्‍वाहिश रही हो कि मुस्लिमों को एक अलग आजाद देश दे दिया जाए, जहां वो अपने मुताबिक रह सकें। हालांकि पाकिस्‍तान का विचार सन 1930 से पहले तक अस्तित्‍व में ही नहीं था। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद आर्थिक रूप से जीर्ण होने पर ब्रिटिश सरकार ने यह तय किया कि भारत में औपनिवेश बनाए रखना अब उनके लिए फायदे का सौदा नहीं रह गया है। रही सही कसर तब पूरी हो गई, जब ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी, जिसने यह तय किया था कि 1948 तक भारत की सत्‍ता भारतीयो के हाथ में दे दी जाएगी। हालांकि इस पर अमल एक वर्ष पहले ही हो गया और वो भी आनन-फानन में।
ब्रिटिश सरकार ने जल्‍द से जल्‍द वो भारत से अपना बोरिया बिस्‍तर समेटनी की योजना बनाई और जल्‍दबाजी में बिना नतीजों की परवाह किए भारत का बंटवारा कर पाकिस्‍तान बना दिया गया।
आपको जानकर हैरत होगी कि 14 अगस्‍त 1947 को पाकिस्‍तान में आजादी का जश्‍न और भारत 15 अगस्‍त को भारत में स्‍वतंत्रता दिवस मनाया गया। लेकिन दोनों देशों के बीच सीमा रेखा का निर्धारण 17 अगस्‍त 1947 को किया गया। ब्रि‍टेन के वकील साइरिल रेडक्लिफ ने भारत और पाकिस्‍तान के बीच सीमा का निर्धारण किया था। उन्‍हें भारतीय परिस्थितियों की थोड़ी बहुत समझ थी। उन्‍होंने कुछ पुराने जर्जर नक्‍शों पर उन्‍होंने इस सीमा को तय किया था। बंटवारे की लकीर को खींचने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा 1940 में कराई गई जनगणना को आधार बनाया गया था। इसी से यह स्‍पष्‍ट होता है कि देश का बंटवारा किस कदर जल्‍दबाजी में किया गया होगा।
वहीं भारत के अंतिम वायसराय लुईस माउंटबेटन ने भी महत्‍वपूर्ण मसलों पर विमर्श किए बगैर ही ब्रिटिश शासन के अंत की घोषणा कर दी थी।
दुनिया के कई देशों ने भारत के बंटवारे पर आश्‍चर्य जाहिर किया था। यह सवाल भी उठे थे कि आखिर इस काम को बिना नतीजों का अनुमान लगाए हुए, जल्‍दबाली में क्‍यों किया गया। इसका जवाव भी भारत में ही छिपा हुआ है। दरअसल, 1947 से कुछ वर्ष पहले से ही ब्रिटिश हुकूमत को यह आभास होने लगा था कि उनके लिए भारत पर राज करना अब महंगा साबित हो रहा है। दूसरे विश्‍य युद्ध के बाद ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति बदतर हो रही थी। अंग्रेजी नेताओं को अपने ही देश में ही जवाब देना भारी पड़ रहा था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजी सेना की 55 बटालियनों को तैनात करने की वजह से दंगे भड़क गए थे। इसके बाद अलावा खाद्यान्‍न संकट, सूखा और बढ़ती बेरोजगारी ने अंग्रेजों के लिए भारत पर राज करना महंगा सौदा बना दिया था। 1942 के बंगाल के अकाल के बाद अंग्रेजों ने भारत में राशन प्रणाली शुरू कर दी थी। इससे भी भारतीय जनता में आक्रोश बढ़ गया था।
उस वक्‍त तक अंग्रेजों की तरफदारी करने वाली मुस्लिम लीग का मोह भी उनसे भंग हो गया था। 16 अगस्‍त 1947 को मोहम्‍मद अली जिन्‍ना ने डायरेक्‍ट एक्‍शन डे कहा था। उनकी मांग थी कि मुस्लिमों के लिए पाकिस्‍तान नाम से एक अलग मुल्‍क घोषित किया जाए। इस मांग ने जोर पकड़ा तो पूरा उत्‍तर भारत दंगे की आग में जल उठा। हजारों-हजार लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इस दंगे से ब्रिटिश हुकूमत की बंटवारे की योजना को बल मिल गया। उन्‍होंने यह तय किया कि हिंदू और मुस्लिम एक ही देश में मिलकर नहीं रह सकेंगे, इसलिए मुल्‍क का बंटवारा जरूरी है। जबकि सच यह था कि राजनीतिक नियंत्रण और पर्याप्‍त सैन्‍य बल न होने की वजह से दंगे फैले थे।
पंजाब और सिंध प्रांत में रहने वाले मुस्लिम भी पाकिस्‍तान के पक्षधर थे। दरअसल इस क्षेत्र में उन्‍हें हिंदु व्‍यापारियों से प्रतिस्‍पर्धा करनी पड़ती थी। इसलिए मुल्‍क के बंटवारे से उनकी यह समस्‍या खत्‍म होने वाली थी। वहीं पूर्वी पाकिस्‍तान (अब बांग्‍लादेश) के लोग भी गैर-मुस्लिम सूदखोरों के चंगुल से आजाद होना चाहते थे। हालांकि बंटवारे से सबसे ज्‍यादा व्‍यावसायिक फायदा भारत को ही हुआ। देश की आर्थिक तरक्‍की में 90 फीसदी भागीदारी वाले शहर और उद्योग भारत के हिस्‍से में ही थे। इसमें दिल्‍ली, मुंबई और कलकत्‍ता जैसे बड़ शहर भी शामिल थे। वहीं पाकिस्‍तान की अर्थव्‍यवस्‍था कृषि आधारित थी, जिस पर प्रभावशाली लोगों का एकाधिकार था।

Saturday, January 25, 2014

किस करवट बैठेगा 'आप' का ऊंट

आम आदमी पार्टी यानी 'आप' ने बहुत ही कम वक्त में वो शोहरत और कामयाबी हासिल की है, जो अब तक देश में किसी भी दूसरी पार्टी को नहीं मिली है। अपने गठन के महज एक वर्ष के अंदर उन्होंने दिल्ली के राज्य विधान सभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत हासिल की, समर्थन से ही सही दिल्ली में सरकार भी बनाई। इसके बाद शुरू हुआ विवादों का सिलसिला, जो अब तक जारी है।
दिल्ली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती की वजह से पार्टी को भारी फजीहत का सामना करना पड़ा है। दिल्ली सरकार ने दो पुलिसवालों के तबादले तथा निलंबन को लेकर सड़क पर आंदोलन किया। केंद्र सरकार के साथ सीधे आमना सामना भी हुआ, लेकिन अंततोगत्वा जीत केंद्र सरकार ही हुई।
केंद्रीय गृह मंत्रालय पुलिसवालों को छुट्टी पर भेज दिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपना धरना वापस ले लिया। दिल्ली के मुख्यमंत्री के इस कदम से यह तो स्पष्ट हो गया कि उनके पास प्रशासनिक अनुभव और दृष्ट‍ि की कमी है। दिल्ली में बिजली के दाम करने का उनका फैसला भी सराहा नहीं जा रहा है, क्योंकि इससे राज्य पर सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा। शुक्रवार को एक टीवी चैनल से बातचीत में पार्टी के शीर्ष नेता योगेंद्र यादव ने भी यह तो मान ही लिया कि उनकी पार्टी की सरकार के कुछ फैसले अनुभवहीनता की वजह से हुए हैं। यहां तक कि उनके मंत्रियों के बड़बोलेपन का खामियाजा भी पार्टी को ही उठाना पड़ रहा है। दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती पर जो आरोप लगे हैं, पार्टी उनपर ध्यान नहीं दे रही है। उलटा मीडिया के बिकाऊ होने की बात कही जा रही है।
पार्टी जिस तेजी से आगे बढ़ी है, संभव है उसी तेजी से उसकी ख्याति में सेंध भी लगे। दरअसल खुद को पाक साफ बताने वाली आम आदमी पार्टी की सदस्यता हासिल करना कठिन नहीं है। इसलिए इससे कोई भी शख्स जुड़ सकता है। पार्टी ने बताया कि उसके सदस्यों की संख्या का आंकड़ा 50 लाख तक पहुंच चुका है। इस आंकड़े के साथ ही विवादों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। कुछ दिनों पहले ही खबर आई थी, कि किसी ने दाऊद इब्राहिम के नाम से भी पार्टी की सदस्यता हासिल कर ली थी।
कहने का मतलब यह है कि पार्टी का सदस्य बनना काफी आसान है और कोई भी बन सकता है। लेकिन डर सिर्फ इस बात का है कि अपराधियों से लेकर हर वो आदमी पार्टी का सदस्य बन सकता जो विवादास्पद है। 'आप' की विरोधी पार्टियां भी अपने लोगों को पार्टी में शामिल करा सकती हैं ताकि पार्टी के अंदर अराजकता फैला सके। नई पार्टी के लिए ये सब चीजें एक गंभीर समस्या पैदा कर सकती हैं।
पार्टी के पास नए सदस्यों के बारे में जानकारी जुटाने का कोई तंत्र या व्यवस्था नहीं है। आम आदमी पार्टी के गठन के वक्त अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि उनकी पार्टी में केवल उन्हीं लोगों को शामिल किया जाएगा, जो पाक-साफ होंगे। यह कहा जा सकता है कि 'आप' एक फैशन भी बन गया है। लोगों को आम आदमी पार्टी ज्वॉइन करने और मैं हूं आम आदमी लिखी हुई टोपी पहनने में मजा आने लगा है। स्पष्ट नीतियों के अभाव में 'आप' के नाम पर अराजकता भी फैल रही है। कुछ दिनों पहले ही बिहार में कुछ लोगों ने आप के नाम पर हुड़दंग मचाया था। बाद में पता चला था कि आम आदमी पार्टी से उनको कोई लेनदेन नही था।
केवल स्वयंसेवकों के बूते पर आखिर यह पार्टी कब तक चलेगी। अगर भारत के राजनीतिक पटल पर इन्हें अपनी छाप छोड़नी है और वाकई बदलाव लाना है तो कई गंभीर और दूरगामी फैसले लेने होंगे। आम आदमी पार्टी से इन्हें ऐसे लोगों को भी जोड़ना होगा जो राजनीति को कीचड़ मानते हैं और इससे दूर ही रहना चाहते हैं। पेशेवरों को अपने साथ जोड़ना होगा तथा गुटबाजी फैलाने वालों एवं खुद को मठाधीश समझने वालों से पार पाना होगा।

किस करवट बैठेगा 'आप' का ऊंट

आम आदमी पार्टी यानी 'आप' ने बहुत ही कम वक्त में वो शोहरत और कामयाबी हासिल की है, जो अब तक देश में किसी भी दूसरी पार्टी को नहीं मिली है। अपने गठन के महज एक वर्ष के अंदर उन्होंने दिल्ली के राज्य विधान सभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत हासिल की, समर्थन से ही सही दिल्ली में सरकार भी बनाई। इसके बाद शुरू हुआ विवादों का सिलसिला, जो अब तक जारी है।
दिल्ली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती की वजह से पार्टी को भारी फजीहत का सामना करना पड़ा है। दिल्ली सरकार ने दो पुलिसवालों के तबादले तथा निलंबन को लेकर सड़क पर आंदोलन किया। केंद्र सरकार के साथ सीधे आमना सामना भी हुआ, लेकिन अंततोगत्वा जीत केंद्र सरकार ही हुई।
केंद्रीय गृह मंत्रालय पुलिसवालों को छुट्टी पर भेज दिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपना धरना वापस ले लिया। दिल्ली के मुख्यमंत्री के इस कदम से यह तो स्पष्ट हो गया कि उनके पास प्रशासनिक अनुभव और दृष्ट‍ि की कमी है। दिल्ली में बिजली के दाम करने का उनका फैसला भी सराहा नहीं जा रहा है, क्योंकि इससे राज्य पर सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा। शुक्रवार को एक टीवी चैनल से बातचीत में पार्टी के शीर्ष नेता योगेंद्र यादव ने भी यह तो मान ही लिया कि उनकी पार्टी की सरकार के कुछ फैसले अनुभवहीनता की वजह से हुए हैं। यहां तक कि उनके मंत्रियों के बड़बोलेपन का खामियाजा भी पार्टी को ही उठाना पड़ रहा है। दिल्ली के कानून मंत्री सोमनाथ भारती पर जो आरोप लगे हैं, पार्टी उनपर ध्यान नहीं दे रही है। उलटा मीडिया के बिकाऊ होने की बात कही जा रही है।
पार्टी जिस तेजी से आगे बढ़ी है, संभव है उसी तेजी से उसकी ख्याति में सेंध भी लगे। दरअसल खुद को पाक साफ बताने वाली आम आदमी पार्टी की सदस्यता हासिल करना कठिन नहीं है। इसलिए इससे कोई भी शख्स जुड़ सकता है। पार्टी ने बताया कि उसके सदस्यों की संख्या का आंकड़ा 50 लाख तक पहुंच चुका है। इस आंकड़े के साथ ही विवादों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। कुछ दिनों पहले ही खबर आई थी, कि किसी ने दाऊद इब्राहिम के नाम से भी पार्टी की सदस्यता हासिल कर ली थी।
कहने का मतलब यह है कि पार्टी का सदस्य बनना काफी आसान है और कोई भी बन सकता है। लेकिन डर सिर्फ इस बात का है कि अपराधियों से लेकर हर वो आदमी पार्टी का सदस्य बन सकता जो विवादास्पद है। 'आप' की विरोधी पार्टियां भी अपने लोगों को पार्टी में शामिल करा सकती हैं ताकि पार्टी के अंदर अराजकता फैला सके। नई पार्टी के लिए ये सब चीजें एक गंभीर समस्या पैदा कर सकती हैं।
पार्टी के पास नए सदस्यों के बारे में जानकारी जुटाने का कोई तंत्र या व्यवस्था नहीं है। आम आदमी पार्टी के गठन के वक्त अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि उनकी पार्टी में केवल उन्हीं लोगों को शामिल किया जाएगा, जो पाक-साफ होंगे। यह कहा जा सकता है कि 'आप' एक फैशन भी बन गया है। लोगों को आम आदमी पार्टी ज्वॉइन करने और मैं हूं आम आदमी लिखी हुई टोपी पहनने में मजा आने लगा है। स्पष्ट नीतियों के अभाव में 'आप' के नाम पर अराजकता भी फैल रही है। कुछ दिनों पहले ही बिहार में कुछ लोगों ने आप के नाम पर हुड़दंग मचाया था। बाद में पता चला था कि आम आदमी पार्टी से उनको कोई लेनदेन नही था।
केवल स्वयंसेवकों के बूते पर आखिर यह पार्टी कब तक चलेगी। अगर भारत के राजनीतिक पटल पर इन्हें अपनी छाप छोड़नी है और वाकई बदलाव लाना है तो कई गंभीर और दूरगामी फैसले लेने होंगे। आम आदमी पार्टी से इन्हें ऐसे लोगों को भी जोड़ना होगा जो राजनीति को कीचड़ मानते हैं और इससे दूर ही रहना चाहते हैं। पेशेवरों को अपने साथ जोड़ना होगा तथा गुटबाजी फैलाने वालों एवं खुद को मठाधीश समझने वालों से पार पाना होगा।