Saturday, December 12, 2009

दुनिया के सभी पिता अपनी बेटियों से सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं

दुनिया के सभी पिता
अपनी बेटियों से
सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं
हालांकि इनमें से ज्‍यादातर
इसे शब्दों में बयान नहीं करते।

बेटी, मां की तरह होती है
पिता को पहचानती है
बेटी जानती है
न बोलकर भी
कुछ कहना चाहते हैं पिता।

बेटी हमेशा जान लेती है
उन शब्दों के अर्थ
जो कहे नहीं गए
भाव-भंगिमाओं से पहचान लेती है
पिता की विपन्नता और
अपनी इच्छाओं को दफ़न कर देती है।

बेटी, कभी अहसास नहीं होने देती
अपने दुखों का
हमेशा ख़ुश दिखती है
हालांकि पिता जानता है
भीतर से कितनी दुखी है
कभी फोन करती है
और चुपचाप सुनती है सांसे
बेटी, आते ही पूछती है
तबियत कैसी है
और पिता हंसते हुए कहता है
तुझे देखकर ठीक हूं
हालांकि दवाइयों से
कुछ आराम नहीं था।

- रविंदर बतरा
(दैनिक भास्‍कर जालंधर से साभार)

दुनिया के सभी पिता अपनी बेटियों से सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं

दुनिया के सभी पिता
अपनी बेटियों से
सबसे ज्‍यादा प्यार करते हैं
हालांकि इनमें से ज्‍यादातर
इसे शब्दों में बयान नहीं करते।

बेटी, मां की तरह होती है
पिता को पहचानती है
बेटी जानती है
न बोलकर भी
कुछ कहना चाहते हैं पिता।

बेटी हमेशा जान लेती है
उन शब्दों के अर्थ
जो कहे नहीं गए
भाव-भंगिमाओं से पहचान लेती है
पिता की विपन्नता और
अपनी इच्छाओं को दफ़न कर देती है।

बेटी, कभी अहसास नहीं होने देती
अपने दुखों का
हमेशा ख़ुश दिखती है
हालांकि पिता जानता है
भीतर से कितनी दुखी है
कभी फोन करती है
और चुपचाप सुनती है सांसे
बेटी, आते ही पूछती है
तबियत कैसी है
और पिता हंसते हुए कहता है
तुझे देखकर ठीक हूं
हालांकि दवाइयों से
कुछ आराम नहीं था।

- रविंदर बतरा
(दैनिक भास्‍कर जालंधर से साभार)

Friday, December 4, 2009

मछली जल की रानी 'थी'!

ग्लोबल वार्मिग के चलते पृथ्वी का समुद्रीय क्षेत्र तो लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन उसमें रहने वाले जलचरों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। हम बात कर रहे हैं समुद्रों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ खास किस्म की जलीय जीवों की जिनकी कई प्रजातियां इस समय विलुप्तता के कगार पर पहुंच गई हैं। यदि इसी रफ्तार से सागरीय प्रदूषण और इनका दोहन जारी रहा तो कई जलीय जीवों को सिर्फ एक्वेयरियमों में ही देखा जा सकेगा या फिर किताबों में उनके बारे में पढ़ा जाएगा।

अभी तक तो बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। जिस रफ्तार से उनकी संख्या कम हो रही है और जिस तरह मनुष्य उनका शिकार कर रहे हैं, उससे आने वाली पीढ़ी के लिए नई कविता गढ़ी जाएगी- मछली जली की थी रानी, जीवन उसका था पानी..।

दुनिया की काफी बड़ी आबादी का जीवन समुद्रों पर ही आधारित हैं। इस आबादी में मछुआरों से लेकर बड़े-बड़े उद्योग भी शामिल हैं। इन सभी के भरण-पोषण का मुख्य जरिया समद्र धीरे-धीरे कचराघर में तब्दील होता जा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों से लेकर घरेलू कचरे तक इसमें फेंके जा रहे हंै। इस वजह से मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची हैं। मसलन अटलांटिक सलोमन नाम की मछली अगले कुछ वर्षो में मिलना बंद हो जाएगी। इसकी वजह है समुद्रीय प्रदूषण और अत्यधिक मात्रा में इनका शिकार।

यदि भारत के समुद्रीय क्षेत्रों की बात करें तो पश्चिमी समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं और हमारे देश में मछलियों के शिकार को लेकर किसी भी तरह के कानून का पालन नहीं किया जाता है। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने यहां शिकार का मौसम तय कर दिया है। उस तय समय के बाद पूरे वर्ष तक कोई भी शिकार नहीं कर सकता है। इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। जबकि हमारे देश में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल के तट तक मछलियों का बेतहाशा शिकार किया जाता है। इस वजह से क्षेत्र में पाई जाने वाली ईल, धादा और करकरा मछलियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। इस कमी का एक और कारण प्रदूषण भी है।

एक दशक पहले तक इस क्षेत्र से शिकार के मौसम में लगभग 15 टन मछलियां पकड़ी जाती थीं, जो अब घटकर मात्र दो हजार टन रह गई है। इतना ही नहीं शिकार का मौसम तय न होने की वजह से पकड़ी गई मछलियों में अवयस्क मछलियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इनकी संख्या में कमी का एक कारण यह भी है। पिछली शताब्दी में समुद्री दुघर्टनाओं में भी खासा इजाफा हुआ है। इनमें से ज्यादातर जहाज ऐसे होते हैं जिनमें तेल लदा रहता है और इस तेल की परत समुद्री पानी की ऊपरी सतह पर फैल जाने से पानी में ऑक्सीजन का प्रवाह खत्म हो जाता है। नतीजा मछलियों समेत कई जलचरों की मृत्यु। राजधानी दिल्ली के यमुना किनारे के कई हिस्सों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मरी हुई मछलियां निकाली जाती हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारतीय केंद्रीय मत्स्य संस्थान भी इसके लिए कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके तहत अब से मछलियों के शिकार का मौसम और समय तय किया जाएगा और प्रदूषण कम करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। ऑस्ट्रेलिया ने इसको गंभीरता से लेते हुए उन मछलियों के शिकार पर रोक लगा दी है जिनकी संख्या कम हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक शोध के मुताबिक यदि इसी रफ्तार से समुद्री जीवों का दोहन होता रहा और प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सन् 2048 तक दुनिया के सभी महासागरों से मछलियां विलुप्त हो जाएंगी।

व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय व्हेल संस्थान ने व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा लिया है। 80 देशों के इस संगठन ने तय किया है कि भले ही शिकार पर से रोक हटा ली गई हो पर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रहेगी। इन मछलियों के शिकार पर पिछले 12 वर्षो से रोक लगी हुई थी। आईसलैंड, जापान और नॉर्वे शिकार से प्रतिबंध हटाने के सबसे बड़े पक्षधर थे।

जापान में हर वर्ष एक हजार व्हेल मछलियों का शिकार किया जाता है।

चिली ने अपने 2700 मील के समुद्री क्षेत्र को सेंचुरी घोषित कर दिया है। इस क्षेत्र में मछलियों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।

व्हेल भी खतरे में

फिन व्हेल - उत्तरी अटलांटिक के समुद्री क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मछली की आबादी लगभग 23000 रह गई है, जो खतरे का सूचक है।

बो-हेड व्हेल - बेरिंग सागर में पाई जाने वाली यह मछली की संख्या महज दस हजार रह गई है, जो कि विलुप्तता का संकेत है।

हम्पबैक व्हेल - दक्षिणी हेमिस्फेयर में पाई जाने वाली इस मछली की संख्या सिमटकर लगभग चालीस हजार रह गई है।

अटलांटिक सेलमन - पिछले बीस वर्षो में इतना ज्यादा शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या आधी रह गई है।

स्वोर्डफिश - नुकीली नाक वाली इन मछलियों की घटती संख्या का प्रमुख कारण इनका असमय शिकार है।

प्लाइस - अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या भी विलुप्ती के कगार पर पहुंच गई है।
मोंकफिश - इन मछलियों की वयस्कता उम्र काफी ज्यादा है और असमय शिकार की वजह से इनकी संख्या में कमी आ रही है।

दक्षिणी ब्लूफिन टूना - अत्यधिक शिकार की वजह से कई देशों ने इनके शिकार पर रोक लगा दी है।
शार्क व्हेल - दुनिया के सभी हिस्सों में पाई जाने वाली व्हेल शार्क की प्रजातियां सबसे अधिक खतरे में हैं।

बरकुडा - लगभग 6 फीट लंबी इस मछली की संख्या में भारी कमी पाई गई है।

सीयर फीस - यह मछली तेजी से तैरने और अपने शिकारी से लड़ने के लिए जानी जाती है। कई तरह के हुक्स और जालों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर इनका शिकार होने की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है।

मछली जल की रानी 'थी'!

ग्लोबल वार्मिग के चलते पृथ्वी का समुद्रीय क्षेत्र तो लगातार बढ़ता जा रहा है, लेकिन उसमें रहने वाले जलचरों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। हम बात कर रहे हैं समुद्रों और महासागरों में पाए जाने वाले कुछ खास किस्म की जलीय जीवों की जिनकी कई प्रजातियां इस समय विलुप्तता के कगार पर पहुंच गई हैं। यदि इसी रफ्तार से सागरीय प्रदूषण और इनका दोहन जारी रहा तो कई जलीय जीवों को सिर्फ एक्वेयरियमों में ही देखा जा सकेगा या फिर किताबों में उनके बारे में पढ़ा जाएगा।

अभी तक तो बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है- मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी। जिस रफ्तार से उनकी संख्या कम हो रही है और जिस तरह मनुष्य उनका शिकार कर रहे हैं, उससे आने वाली पीढ़ी के लिए नई कविता गढ़ी जाएगी- मछली जली की थी रानी, जीवन उसका था पानी..।

दुनिया की काफी बड़ी आबादी का जीवन समुद्रों पर ही आधारित हैं। इस आबादी में मछुआरों से लेकर बड़े-बड़े उद्योग भी शामिल हैं। इन सभी के भरण-पोषण का मुख्य जरिया समद्र धीरे-धीरे कचराघर में तब्दील होता जा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों से लेकर घरेलू कचरे तक इसमें फेंके जा रहे हंै। इस वजह से मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची हैं। मसलन अटलांटिक सलोमन नाम की मछली अगले कुछ वर्षो में मिलना बंद हो जाएगी। इसकी वजह है समुद्रीय प्रदूषण और अत्यधिक मात्रा में इनका शिकार।

यदि भारत के समुद्रीय क्षेत्रों की बात करें तो पश्चिमी समुद्री तट सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं और हमारे देश में मछलियों के शिकार को लेकर किसी भी तरह के कानून का पालन नहीं किया जाता है। जबकि दुनिया के कई देशों ने अपने यहां शिकार का मौसम तय कर दिया है। उस तय समय के बाद पूरे वर्ष तक कोई भी शिकार नहीं कर सकता है। इसे दंडनीय अपराध बना दिया गया है। जबकि हमारे देश में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल के तट तक मछलियों का बेतहाशा शिकार किया जाता है। इस वजह से क्षेत्र में पाई जाने वाली ईल, धादा और करकरा मछलियों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। इस कमी का एक और कारण प्रदूषण भी है।

एक दशक पहले तक इस क्षेत्र से शिकार के मौसम में लगभग 15 टन मछलियां पकड़ी जाती थीं, जो अब घटकर मात्र दो हजार टन रह गई है। इतना ही नहीं शिकार का मौसम तय न होने की वजह से पकड़ी गई मछलियों में अवयस्क मछलियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। इनकी संख्या में कमी का एक कारण यह भी है। पिछली शताब्दी में समुद्री दुघर्टनाओं में भी खासा इजाफा हुआ है। इनमें से ज्यादातर जहाज ऐसे होते हैं जिनमें तेल लदा रहता है और इस तेल की परत समुद्री पानी की ऊपरी सतह पर फैल जाने से पानी में ऑक्सीजन का प्रवाह खत्म हो जाता है। नतीजा मछलियों समेत कई जलचरों की मृत्यु। राजधानी दिल्ली के यमुना किनारे के कई हिस्सों से रोजाना सैकड़ों की तादाद में मरी हुई मछलियां निकाली जाती हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारतीय केंद्रीय मत्स्य संस्थान भी इसके लिए कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके तहत अब से मछलियों के शिकार का मौसम और समय तय किया जाएगा और प्रदूषण कम करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। ऑस्ट्रेलिया ने इसको गंभीरता से लेते हुए उन मछलियों के शिकार पर रोक लगा दी है जिनकी संख्या कम हो रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक शोध के मुताबिक यदि इसी रफ्तार से समुद्री जीवों का दोहन होता रहा और प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सन् 2048 तक दुनिया के सभी महासागरों से मछलियां विलुप्त हो जाएंगी।

व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय व्हेल संस्थान ने व्हेल के शिकार से प्रतिबंध हटा लिया है। 80 देशों के इस संगठन ने तय किया है कि भले ही शिकार पर से रोक हटा ली गई हो पर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रहेगी। इन मछलियों के शिकार पर पिछले 12 वर्षो से रोक लगी हुई थी। आईसलैंड, जापान और नॉर्वे शिकार से प्रतिबंध हटाने के सबसे बड़े पक्षधर थे।

जापान में हर वर्ष एक हजार व्हेल मछलियों का शिकार किया जाता है।

चिली ने अपने 2700 मील के समुद्री क्षेत्र को सेंचुरी घोषित कर दिया है। इस क्षेत्र में मछलियों के शिकार पर पूरी तरह से रोक लगी हुई है।

व्हेल भी खतरे में

फिन व्हेल - उत्तरी अटलांटिक के समुद्री क्षेत्र में पाई जाने वाली इस मछली की आबादी लगभग 23000 रह गई है, जो खतरे का सूचक है।

बो-हेड व्हेल - बेरिंग सागर में पाई जाने वाली यह मछली की संख्या महज दस हजार रह गई है, जो कि विलुप्तता का संकेत है।

हम्पबैक व्हेल - दक्षिणी हेमिस्फेयर में पाई जाने वाली इस मछली की संख्या सिमटकर लगभग चालीस हजार रह गई है।

अटलांटिक सेलमन - पिछले बीस वर्षो में इतना ज्यादा शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या आधी रह गई है।

स्वोर्डफिश - नुकीली नाक वाली इन मछलियों की घटती संख्या का प्रमुख कारण इनका असमय शिकार है।

प्लाइस - अत्यधिक शिकार की वजह से इनकी संख्या भी विलुप्ती के कगार पर पहुंच गई है।
मोंकफिश - इन मछलियों की वयस्कता उम्र काफी ज्यादा है और असमय शिकार की वजह से इनकी संख्या में कमी आ रही है।

दक्षिणी ब्लूफिन टूना - अत्यधिक शिकार की वजह से कई देशों ने इनके शिकार पर रोक लगा दी है।
शार्क व्हेल - दुनिया के सभी हिस्सों में पाई जाने वाली व्हेल शार्क की प्रजातियां सबसे अधिक खतरे में हैं।

बरकुडा - लगभग 6 फीट लंबी इस मछली की संख्या में भारी कमी पाई गई है।

सीयर फीस - यह मछली तेजी से तैरने और अपने शिकारी से लड़ने के लिए जानी जाती है। कई तरह के हुक्स और जालों का इस्तेमाल करके बड़े पैमाने पर इनका शिकार होने की वजह से इनकी संख्या में कमी आई है।

Thursday, December 3, 2009

कौन है भोपाल गैस त्रासदी का जिम्‍मेदार




आज यानी 3 दिसंबर को भोपाल समेत पूरा देश और कह सकते हैं कि दुनिया में भी भोपाल गैस त्रासदी को याद किया जा रहा है। आज इस घटना को हुए 25 वर्ष बीत चुके हैं। बड़े नेता, एनजीओ और मीडिया हाउस इस त्रासदी को भुनाने में पीछे नहीं रहे हैं। सभी ने इसे त्रासद और हृदयविदारक की संज्ञाएं दीं, पर क्‍या किसी ने ये जहमत उठाई कि पीडि़तों का क्‍या हाल है। उनकी सुनवाई हो रही है या नहीं, उनके पुनर्वास का क्‍या हो रहा है। यूका (यूनियन कार्बाइड) परिसर से जहरीले रसायन कब हटाए जाएंगे। ये सब वो सवाल हैं जो आज भी अनुत्‍तरित हैं।

हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में कोई न कोई बड़ी हस्‍ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्‍द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्‍वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्‍थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्‍थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।

गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्‍सक्‍लूसिव खोजने के चक्‍कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्‍वर्णिम मध्‍यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।

यहां वल्‍लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्‍वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्‍यवस्‍था से ही काम चल रहा है।

ऐसा ही हाल गैस राहत अस्‍पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राश‍ि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्‍यादा बंटी। हास्‍यापास्‍पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्‍थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।

सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्‍यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्‍वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्‍ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्‍या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्‍छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।

मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्‍शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।

यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्‍चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।

कौन है भोपाल गैस त्रासदी का जिम्‍मेदार




आज यानी 3 दिसंबर को भोपाल समेत पूरा देश और कह सकते हैं कि दुनिया में भी भोपाल गैस त्रासदी को याद किया जा रहा है। आज इस घटना को हुए 25 वर्ष बीत चुके हैं। बड़े नेता, एनजीओ और मीडिया हाउस इस त्रासदी को भुनाने में पीछे नहीं रहे हैं। सभी ने इसे त्रासद और हृदयविदारक की संज्ञाएं दीं, पर क्‍या किसी ने ये जहमत उठाई कि पीडि़तों का क्‍या हाल है। उनकी सुनवाई हो रही है या नहीं, उनके पुनर्वास का क्‍या हो रहा है। यूका (यूनियन कार्बाइड) परिसर से जहरीले रसायन कब हटाए जाएंगे। ये सब वो सवाल हैं जो आज भी अनुत्‍तरित हैं।

हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में कोई न कोई बड़ी हस्‍ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्‍द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्‍वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्‍थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्‍थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।

गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्‍सक्‍लूसिव खोजने के चक्‍कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्‍वर्णिम मध्‍यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।

यहां वल्‍लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्‍वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्‍थाई व्‍यवस्‍था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्‍यवस्‍था से ही काम चल रहा है।

ऐसा ही हाल गैस राहत अस्‍पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राश‍ि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्‍यादा बंटी। हास्‍यापास्‍पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्‍थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।

सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्‍यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्‍वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्‍ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्‍या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्‍छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।

मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्‍शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।

यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्‍चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।