आज यानी 3 दिसंबर को भोपाल समेत पूरा देश और कह सकते हैं कि दुनिया में भी भोपाल गैस त्रासदी को याद किया जा रहा है। आज इस घटना को हुए 25 वर्ष बीत चुके हैं। बड़े नेता, एनजीओ और मीडिया हाउस इस त्रासदी को भुनाने में पीछे नहीं रहे हैं। सभी ने इसे त्रासद और हृदयविदारक की संज्ञाएं दीं, पर क्या किसी ने ये जहमत उठाई कि पीडि़तों का क्या हाल है। उनकी सुनवाई हो रही है या नहीं, उनके पुनर्वास का क्या हो रहा है। यूका (यूनियन कार्बाइड) परिसर से जहरीले रसायन कब हटाए जाएंगे। ये सब वो सवाल हैं जो आज भी अनुत्तरित हैं।
हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्ताह में कोई न कोई बड़ी हस्ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।
गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्सक्लूसिव खोजने के चक्कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।
यहां वल्लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्यवस्था से ही काम चल रहा है।
ऐसा ही हाल गैस राहत अस्पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राशि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्यादा बंटी। हास्यापास्पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।
सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।
मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।
यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।
हर वर्ष नवंबर के आखिरी सप्ताह में कोई न कोई बड़ी हस्ती यहां आती है और सहानुभूति के शब्द कहकर चली जाती है। यहां रहने वालों को अब तक यदि कोई चीज बिना मांगे मिली है तो वो है आश्वासन, जिसकी हमारे देश में कोई कमी नहीं है। ऐसा लगता है कि शासन-प्रशासन और बाकी संस्थानों ने 3 दिसंबर को खानापूर्ति वाली तारीख मान लिया है, जिसे मनाना है। भोपाल मे स्थानीय अवकाश घोषित रहता है। तमाम सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं।
गैस त्रासदी की 20वीं बरसी वाले साल मैंने भी कमोबेश वही किया जो हर साल किया जाता है। सारे मीडियाकर्मियों की तरह मैं भी वहां मंडराया, कुछ एक्सक्लूसिव खोजने के चक्कर में। लेकिन उस नरक को देखकर लगा कि जो कोई भी स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने की बात कर रहा है, उसे एक बार यहां आकर लोगों से मिलना चाहिए और उनका दर्द जानना चाहिए।
यहां वल्लभ भवन के एअर कंडीशन कमरों में बैठकर गैस राहत एवं पुनर्वास की योजना बनाई जाती है, जो आजतक लागू ही नहीं हो पाई। उदाहरण विधवा कॉलोनी का है, जो यूका कारखाने से कुछ ही दूरी पर बसाई गई थी। यहां आजतक पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था नहीं हो पाई है। 20वीं बरसी पर मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री के श्रीमुख से यह आश्वासन सुना था कि अगले एक महीने (3 जनवरी 2005) में यहां नगर निगम द्वारा पीने के पानी की स्थाई व्यवस्था कर दी जाएगी। लेकिन आजतक टैंकरों और जुगाड़ू व्यवस्था से ही काम चल रहा है।
ऐसा ही हाल गैस राहत अस्पतालों का भी है। बदहाली का आलम यह है कि मरीजों को यहां न तो उचित इलाज मिल रहा है और न ही दवाएं। मुआवजे की राशि भी पीडि़तों को कम और गैर पीडि़तों को ज्यादा बंटी। हास्यापास्पद तो यह है कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर और देश के नामी विज्ञान संस्थान आजतक यह पता नहीं लगा सके कि गैस पीडि़तों का इलाज कैसे किया जाए। कौन सी दवा उनका इलाज कर पाएगी।
सबसे बुरा यह देखकर लगता है कि इस त्रासद दिन की बरसी भी राजनीति से अछूति नहीं रहती है। पिछले 25 वर्षों में कई मुख्यमंत्री आए और गए, कई प्रधानमंत्री आए और गए, पर आजतक सिर्फ आश्वासन ही मिला। भोपाल के बरकतउल्ला भोपाली भवन में एक सर्वधर्म सभा आयोजित करके, यूका के सामने प्रदर्शन करके और वारेन एंडरसन का पुतला जलाकर आखिर क्या हासिल हुआ है। ठोस नतीजों के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो यहां के लोगों में नहीं है।
मेरा मानना है कि जिस प्रकार 26/11 की घटना के बाद मुंबई समेत पूरे देश मे लोगों ने आवाज बुलंद की थी और सरकार को मजबूरन जनता की आवाज सुननी पड़ी थी, वैसा ही 3 दिसंबर पर एक्शन के लिए भी करना चाहिए। वरना 25 तो छोडि़ए 50वीं बरसी आने तक भी कोई हल नहीं निकलेगा और यूका में पड़ा रासायनिक कचरा यूं ही वातावरण और लोगों को प्रभावित करता रहेगा।
यदि आप में से किसी का भोपाल आना हो तो एक बार यूका तरफ जरूर जाएं। सारी सच्चाई से आप खुद ब खुद वाकिफ हो जाएंगे।
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