पुराणों में स्त्री को देवी का दर्जा दिया गया है। यही वजह है कि आज भी हमारे समाज में नवरात्रि के दिनों में कन्या भोज की परंपरा है। लेकिन यही दर्जा उसे शोषित भी बना रहा है। नारी जो आज पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है, उसे महज देह से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। हाल की कुछ घटनाएं इसका प्रमाण हैं। यह घटनाएं तो ऐसी हैं, जो सामने आ गईं, वरना न जाने कितनी दास्तानें वक्त के अंधेरे में धूल धुसरित हो चुकी होंगी, कौन जानता है। महिला हॉकी में शोषण की बात सामने आई तो इसी तरह के और मामले भी सामने आने लगे।
स्कूल, घर, गली, मोहल्ले, कॉलेज, दफ्तर और खेल। कहीं भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें केवल देह की तरह ही देखा जाता है। इसे पुरुष की कुंठित मानसिकता भी कह सकते हैं या यूं कहिए कि जहां भी मौका मिलता है वो यह जताना चाहता है कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह पुरुष है। हो सकता है कि यहां पर मेरा शब्द चयन सही न हो। लेकिन मन की व्यथा है, जो बाहर आ रही है। हैदराबाद की घटना ने भी अंदर तक आघात किया है। एक प्रिंसिपल, यानी गुरु, जिसने अपनी ही छात्रा के साथ एक साल तक बलात्कार किया। कितने घृणित हैं, ऐसे लोग। पवित्र स्थलों और पदवी को भी हवस की भेंट चढ़ा रहे हैं।
आखिर इसकी वजह क्या है। क्या कारण है कि पुरुष पाशविकता की ओर जा रहे हैं। आखिर स्त्रियां कहां सुरक्षित हैं। यदि वो घर, स्कूल और अपने मोहल्ले मे ही सुरक्षित नहीं हैं, तो कहीं भी सुरक्षित नहीं हो सकती हैं। कब तक उसे सिर्फ देह के रूप मे देखा जाएगा।
इन कुकृत्यों में शामिल पुरुषों से तो उनके घर की बेटियां भी सुरक्षित नहीं होंगी। जो दूसरों की बेटी को बुरी नजर से देख सकता है, उसके लिए क्या घर, क्या बाहर। ऐसी घटनाएं तब तक कम नहीं होंगी, जब तक ऐसे हवसियों को सरेआम चौराहों पर बांधकर चप्पलों से मारा नहीं जाएगा। क्योंकि इनको मृत्युदंड देने का मतलब है सस्ते में सजा पूरी कर देना। इनको जलील करो और इतना जलील करो कि शर्म से खुद मर जाएं। तभी सबक मिलेगा ऐसे हरामखोरों को।
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