सनी देओल का "तारीख पे तारीख...." वाला डायलाग शायद भारत के परिपेक्ष्य में हमेशा याद रखा जाएगा। मुझे लगता है कि हमारे देश के राजनेताओं की ही तरह फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी को भी पूर्वाभास हो गया था कि इस देश में तारीखों का बड़ा महत्व होगा।
हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।
लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।
महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।
रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।
लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।
पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।
यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।
रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..
बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।
सर जी, आपने महंगाई और सरकार के हवा-हवाई वादे पर एक सटिक टिप्पणी के साथ इस बात का विश्लेषण भी बखूबी किया है कि महंगाई से नेताओं पर फर्क क्यों नहीं पड़ता। मुझे लगता है वास्तव में महंगाई पर काबू न पाना उस रणनीति का हिस्सा होता है जिसमें महंगाई पर काबू न पाकर बड़े व्यापारियों को फायदा पहुंचाना मुख्य उद्देश्य होता है क्योंकि ये बड़े व्यापारी राजनीतिक दलों के फंडिग के मुख्य पात्रों में से एक होते हैं। आखिर राजनेता उन्हें इस तरह से फायदा न पहुंचाएंगे तो अगली बार उनके सामने झोली फैलाने कौन सा मुंह लेकर जाएंगे। क्योंकि ये बात भी सर्वविदित है कि वोट तो नोट से खरीदे जाते हैं और तभी मुफ्त की दारू बंटती है और पैसे भी। आखिर ये सब एक चक्रिय क्रम का हिस्सा है। इस क्रम को तोड़ने के लिए राजनीतिक दलों को दृढ़इच्छा दिखानी होगी तभी महंगाई पर काबू पाया जा सकता है।
ReplyDeleteआप सही कह रहे हैं मिथिलेश। हमारे नेताओं का बस चले तो वो बंटी और बबली की तरह ताजमहल ही क्या, पूरा देश बेच दें और पैसा अपने निजी खाते में रख लें। पैसे के दम पर भारत में कुछ भी करवाया जा सकता है। यहां पर कानून से भी ऊपर है पैसा। दिलीप सिंह जूदेव ने ऐसे ही नहीं कहा था कि "पैसा खुद तो नहीं, पर खुदा की कसम, खुदा से कम भी नहीं है"। इतना ही नहीं, हमारे देश के एक राज्य के मुख्यमंत्री ने तो अपने शासनकाल में प्रदेश की एक नदी को ही बेचने का फरमान जारी कर दिया था। ये वही माननीय नेता हैं, जिन्होंने पैसे खाकर निजी विश्वविद्यालय का बिल पास कर दिया था, जिसके बाद उनके राज्य में जिलों से ज्यादा विश्वविद्यालय हो गए थे।
ReplyDeleteयदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।
ReplyDeleteye bat kuchh vajandar hai.. wah...