Monday, July 6, 2009

बजट से यूं बनती है एक छन्दमुक्त कविता

वे छह छंदमुक्त कविताएं सुना लेने के पश्चात् सातवीं के लिए ‘स्टार्ट’ ले रहे थे। ज्ञान की खूंखार चमक चेहरे पर थी। छह सुना लेने की प्रचंड संतुष्टि से आप्लावित दिखाई दे रहे थे।
‘ये लीजिए जनाब, एक और, शीर्षक है अंतर्देशीय-पत्र..’  अंतर्देशीय, तुम और मैं..। पहला पन्ना, भले कर्मो का खाता-बही, दूसरा पन्ना, संसार के भंवर में नय्या फंसी तीसरा पन्ना, पास बुलाता दुष्कर्मो का कोहरा, चौथा पन्ना, लिप्सा-लालसाओं का जाल घना, पांचवां पन्ना,.. इसके पहले वे कुछ बोलते मैंने निवेदन किया,‘अंतर्देशीय में तो चार ही पन्ने..!’‘कविता की आत्मा में तर्क मत बैठाओ’ वे बोले। 
मैंने समझ लिया बहस करुंगा तो ‘यातना का कालखंड’ ज्यादा बढ़ जाएगा। बोलने को ही था कि वे फिर बोल पड़े।  ‘इसी कविता को लो अंतर्देशीय जैसे क्षुद्र प्रतीक में भी जीवन की सच्चई व्यक्त करने की ताकत है, हम एक दूसरे के इतने छिद्रान्वेषण में लगे रहते हैं कि संसार की मामूली से मामूली चीजों तक से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते, इसी से तो मानव की अधोगति हो रही है।’
फिर मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही शुरू हो गए। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ मनुष्य की लाइफ स्टाइल की चेंजिंग पर है, सरलीकृत करते हुए उन्होंने बताया। उन्होंने फिर पढ़ा, ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ इसी क्रम से ये वेदनाएं बढ़ती हैं, उन्होंने इस बार दार्शनिक व्याख्या की। हां, तो दर्द-दुख-दारुण्यआंसू प्रीत-पैसा-पतंग जालिमलोशन-जालिमलोशन-जालिमलोशन, हमने लाईन पूरी की। ‘छी: छी:.. उन्होंने कहा ध्यान मत भटकाओ। पहले चार लाईन पूरी करने दो। ‘नवगति-अधोगति-दुर्गति’ ‘दर्द-दुख-दारुण्यआंसू’ ‘प्रीत-पैसा-पतंग’ ‘प्रणब बाबू-प्रणब बाबू- प्रणब बाबू’ हें..! मैं गिरते-गिरते बचा। ‘ये कैसी कविता है’ ‘छंदमुक्त-बंधमुक्त-गंधमुक्त’ जीवन में महक फैलाने वाली’-उन्होंने व्याख्या की। ‘ये कैसी कविता है, जो जीवन की दार्शनिकता-सांसारिकता की विवेचना करते-करते वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पर खत्म होती है’- अपने प्रतिवाद को मैंने विस्तार दिया।
‘ये कोई मामूली कविता नहीं हैं, इसमें सार छुपा हुआ है-जीवन सार’ उन्होंने बताया। -‘जीवनसार’..?
-‘हां, जीवनसार.. पहली लाइन में बात है लाइफ स्टाइल चेंजिंग’ को लेकर, दूसरी लाइन बात करती है वेदनाओं के बढ़ते चले जाने की फिर तीसरी लाइन में संसार की निस्सारता के बारे में गूढ़ बात की गई है। चौथी लाइन में जीवन की वास्तविकता की बात कही गई है’ वे फुसफुसाए।
‘क्या वास्तविकता!!’ मैंने उनसे सरल भाषा में विवरण की मांग रख दी। ‘देखो, शेयर मार्केट में पैसा लगाओगे, फिर महंगाई बढ़ेगी। शेयर गिरेंगे, पैसा डूब जाएगा, लाइफ स्टाइल चेंज हो जाएगी, दुख पर दुख मिलने लगेंगे यानि क्रम से वेदनाएं बढ़ेंगी तो संसार तो नश्वर लगेगा ही, बोलो सच है कि नहीं’ उन्होंने और सरलीकृत ढंग से समझाया।
‘फिर इनके पीछे जिम्मेदार कौन हैं हमारे वित्तमंत्रीजी जिनके एक भाषण से सब उलट-पुलट हो जाता है। यहां तक की एक आदमी कवि ह्दय तक हो जाता है।’
‘हां, तो.. फिर?’ ‘फिर क्या मानव को वैराग्य की दिशा में ले जाए-मोक्ष के बारे में सोचने पर विवश करे। उस महान आत्मा से ज्यादा और किसके नाम से आमजन की इस पहली वास्तविक कविता का समापन किया जा सकता है’, उन्होंने बात समेटी।
‘लेकिन गुरु, इतनी महान वास्तविक रचना का आइडिया आपके पास आया कहां से’- मैंने उठते-उठते जानना चाहा।
‘शेयर मार्केट में 5 लाख गंवाने के बाद’ -कहकर वे उठे और बच्चों को दरवाजा छोड़कर बाहर खेलने के आदेश देने में व्यस्त हो गए।

-अनुज खरे

2 comments:

  1. कमाल है.....कमालहै..........कमाल है पेट मे बल पड गया भाईया............बहुत ही अच्छा लिखते है ..बधाई

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  2. हा हा!! बहुत बेहतरीन..मजा आ गय बिना शेयर बजार में पैसा गंवायें.

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