तुम तो रोज खाते होगे
कई निवाले,
मैं तो कई सदियों से हूँ भूखा,
अभागा, लाचार, लतियाया हुआ।
रोज गुजरता हूँ तुम्हारी देहरी से
आस लिए कि कभी तो पड़ेगी तुम्हारी भी नजर,
इसी उम्मीद से हर रोज आता हूँ,
फिर भी पहचान क्या बताऊँ अपनी,
कभी विदर्भ तो कभी कालाहांडी से छपता हूँ,
गुमनामी की चीत्कार लिए,
जो नहीं गूँजती इस हो-हंगामे में।
ना नाम माँगता हूँ,
ना ही कोई मुआवजा,
उन अनगिनत निवालों का हिसाब भी नहीं,
विनती है ! केवल इतनी,
मौत का एक निवाला चैन से लेने दो ।
-नीहारिका झा
निहारिका जी
ReplyDeleteरचना उत्तम है..अब कुछ साकरात्मक भी लायें...गुख सुख दो किनारे हैं और जीवन एक नदिया है...अगले पाट का इन्तजार है.
बहुत प्यारी कविता हैं नीहू
ReplyDeletetumhari kalam samay ke sath aur paini hoti ja rahi hai.
ReplyDeleteUmmeed hai aise hi likhti rahogi aur vyastha par chot karogi. : Anuj
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