पच्चीस साल पहले भोपाल में वह दर्दनाक हादसा हुआ था। अगर हताहतों की संख्या पर गौर करें तो सिद्ध हो जाएगा कि वह दुनिया की भयावहतम औद्योगिक त्रासदी थी। यकीनन खतरनाक जहरीले केमिकल का इतनी लापरवाही से रखरखाव एक आपराधिक मामला था। लेकिन जो अदालती फैसला आया उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता।
हजारों मौतों के जिम्मेदार लोगों में से कोई भी जेल में नहीं है। अमेरिका ने यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। भारत की न्याय प्रणाली में पैठी सुस्ती को भी दोष दिया जाना चाहिए। अनुमान के मुताबिक भारत की अदालतों में 2 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं, जिन्हें निपटाने में 320 साल लग जाएंगे।
भोपाल केस इसलिए भी सुस्त पड़ गया, क्योंकि भारत का जोर पहले मुआवजे पर था। हादसे के तीन साल बाद जाकर आपराधिक मामला शुरू हुआ। पांच साल बाद जाकर यूनियन कार्बाइड ने 45 करोड़ डॉलर का मुआवजा दिया, जबकि इससे कहीं ज्यादा मांगे गए थे। इससे तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सीधे-सीधे यही संदेश जाता है कि वे आएं, पर्यावरण को दूषित करें और फिर कोई बखेड़ा होने पर चुपचाप बच निकलें। मैक्सिको की खाड़ी के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले बाशिंदों को भी यही डर सता रहा है, क्योंकि बीपी, उसके सहयोगियों और अमेरिकी नियामक एजेंसियों के बीच फिलहाल दोषारोपण का खेल चल रहा है। खाड़ी को भोपाल के सबक याद रखने होंगे।
द वैंकुवर सन से अनूदित
No comments:
Post a Comment