BHARAsTachar
मंदी और महंगाई से जूझते हुए यह वर्ष 2010 भी नए साल के स्वागत के लिए तैयार हो चुका है। बीते वर्ष यानी 2008, 2009 और यह 2010 भी इतिहास में कई कारणों में याद रखे जाएंगे। विश्व खाद्यान्न संकट और तेल के बढ़ते दामों के बाद आई मंदी ने अच्छे से अच्छे देश और लोगों की कमर में लचक ला दी थी।
भारत के परिपेक्ष्य में तो यह वर्ष काफी महत्वपूर्ण भी रहे। दो वर्ष पहले हमारे देश के एक माननीय केंद्रीय मंत्री ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि भारत में लोग ज्यादा खाना खाने लगे हैं, इसलिए खाद्यान्न संकट पैदा हो गया है। हकीकत यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी भुखमरी का शिकार है। उनके लिए आवंटित अनाज को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
भ्रष्टाचार से याद आया कि इस वर्ष यानी 2010 को भ्रष्टाचार वर्ष के रूप में याद रखा जाएगा। वजह से तो आप सभी वाकिफ हैं। इस वर्ष हमारे देश में भ्रष्टाचार में कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, अनाज घोटाला, कर्नाटक भूमि घोटाला, आईपीएल मैच में घोटाला, सेना में अनाज से लेकर कंबल आपूर्ति तक में घोटाला।
अब तो सुप्रीम कोर्ट भी मान चुकी है कि हमारे देश में बिना “खर्चा” किए कोई काम नहीं करवाया जा सकता है। वैसे भी घोटले और हमारे देश के बीच लंगोटिया याराना है। ऐसा कोई साल नहीं होता है जब यहां घोटाला न हुआ हो। आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हुआ घोटालों का दौर आज तक बदस्तूर जारी है। नेताओं और सरकारी प्रणाली में घोटाला प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की तरह है।
हर वर्ष आने वाली ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में बड़े शान के साथ भारत का नाम भी सबसे भ्रष्ट देशों की फेहरिस्त में जगमगाता है।
कार्टन साभार: हरिओम तिवारी जी के ब्लॉग कार्टून कमंडल से
Wednesday, December 22, 2010
BHARAsTachar
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मंदी और महंगाई से जूझते हुए यह वर्ष 2010 भी नए साल के स्वागत के लिए तैयार हो चुका है। बीते वर्ष यानी 2008, 2009 और यह 2010 भी इतिहास में कई कारणों में याद रखे जाएंगे। विश्व खाद्यान्न संकट और तेल के बढ़ते दामों के बाद आई मंदी ने अच्छे से अच्छे देश और लोगों की कमर में लचक ला दी थी।
भारत के परिपेक्ष्य में तो यह वर्ष काफी महत्वपूर्ण भी रहे। दो वर्ष पहले हमारे देश के एक माननीय केंद्रीय मंत्री ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि भारत में लोग ज्यादा खाना खाने लगे हैं, इसलिए खाद्यान्न संकट पैदा हो गया है। हकीकत यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी भुखमरी का शिकार है। उनके लिए आवंटित अनाज को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
भ्रष्टाचार से याद आया कि इस वर्ष यानी 2010 को भ्रष्टाचार वर्ष के रूप में याद रखा जाएगा। वजह से तो आप सभी वाकिफ हैं। इस वर्ष हमारे देश में भ्रष्टाचार में कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, अनाज घोटाला, कर्नाटक भूमि घोटाला, आईपीएल मैच में घोटाला, सेना में अनाज से लेकर कंबल आपूर्ति तक में घोटाला।
अब तो सुप्रीम कोर्ट भी मान चुकी है कि हमारे देश में बिना “खर्चा” किए कोई काम नहीं करवाया जा सकता है। वैसे भी घोटले और हमारे देश के बीच लंगोटिया याराना है। ऐसा कोई साल नहीं होता है जब यहां घोटाला न हुआ हो। आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हुआ घोटालों का दौर आज तक बदस्तूर जारी है। नेताओं और सरकारी प्रणाली में घोटाला प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की तरह है।
हर वर्ष आने वाली ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में बड़े शान के साथ भारत का नाम भी सबसे भ्रष्ट देशों की फेहरिस्त में जगमगाता है।
कार्टन साभार: हरिओम तिवारी जी के ब्लॉग कार्टून कमंडल से
मंदी और महंगाई से जूझते हुए यह वर्ष 2010 भी नए साल के स्वागत के लिए तैयार हो चुका है। बीते वर्ष यानी 2008, 2009 और यह 2010 भी इतिहास में कई कारणों में याद रखे जाएंगे। विश्व खाद्यान्न संकट और तेल के बढ़ते दामों के बाद आई मंदी ने अच्छे से अच्छे देश और लोगों की कमर में लचक ला दी थी।
भारत के परिपेक्ष्य में तो यह वर्ष काफी महत्वपूर्ण भी रहे। दो वर्ष पहले हमारे देश के एक माननीय केंद्रीय मंत्री ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि भारत में लोग ज्यादा खाना खाने लगे हैं, इसलिए खाद्यान्न संकट पैदा हो गया है। हकीकत यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी भुखमरी का शिकार है। उनके लिए आवंटित अनाज को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
भ्रष्टाचार से याद आया कि इस वर्ष यानी 2010 को भ्रष्टाचार वर्ष के रूप में याद रखा जाएगा। वजह से तो आप सभी वाकिफ हैं। इस वर्ष हमारे देश में भ्रष्टाचार में कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, अनाज घोटाला, कर्नाटक भूमि घोटाला, आईपीएल मैच में घोटाला, सेना में अनाज से लेकर कंबल आपूर्ति तक में घोटाला।
अब तो सुप्रीम कोर्ट भी मान चुकी है कि हमारे देश में बिना “खर्चा” किए कोई काम नहीं करवाया जा सकता है। वैसे भी घोटले और हमारे देश के बीच लंगोटिया याराना है। ऐसा कोई साल नहीं होता है जब यहां घोटाला न हुआ हो। आजादी के तुरंत बाद ही शुरु हुआ घोटालों का दौर आज तक बदस्तूर जारी है। नेताओं और सरकारी प्रणाली में घोटाला प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की तरह है।
हर वर्ष आने वाली ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में बड़े शान के साथ भारत का नाम भी सबसे भ्रष्ट देशों की फेहरिस्त में जगमगाता है।
कार्टन साभार: हरिओम तिवारी जी के ब्लॉग कार्टून कमंडल से
Tuesday, December 21, 2010
नेताओं के वादों का डेटाबेस
सनी देओल का "तारीख पे तारीख...." वाला डायलाग शायद भारत के परिपेक्ष्य में हमेशा याद रखा जाएगा। मुझे लगता है कि हमारे देश के राजनेताओं की ही तरह फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी को भी पूर्वाभास हो गया था कि इस देश में तारीखों का बड़ा महत्व होगा।
हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।
लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।
महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।
रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।
लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।
पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।
यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।
रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..
बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।
हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।
लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।
महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।
रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।
लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।
पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।
यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।
रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..
बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।
नेताओं के वादों का डेटाबेस
सनी देओल का "तारीख पे तारीख...." वाला डायलाग शायद भारत के परिपेक्ष्य में हमेशा याद रखा जाएगा। मुझे लगता है कि हमारे देश के राजनेताओं की ही तरह फिल्म निर्देशक राजकुमार संतोषी को भी पूर्वाभास हो गया था कि इस देश में तारीखों का बड़ा महत्व होगा।
हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।
लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।
महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।
रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।
लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।
पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।
यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।
रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..
बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।
हो सकता है आपको बात अटपटी लग रही हो, इसलिए विस्तार से समझाता हूं। हमारे सत्तासीन नेता हर मामले के बाद जांच का भरोसा देते हैं साथ ही जल्द से जल्द पूरे मामले को सुलझा दिया जाएगा। चाहे मामले आतंकवाद का हो या भ्रष्टाचार का। ताजा उदाहरण है महंगाई का। पिछले वर्ष यानी 2009 में महंगाई के बादल छाते ही हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने दावा किया कि तीन महीने में महंगाई के घोड़े को लगाम लगाकर काबू कर लिया जाएगा।
लेकिन तीन महीने बीते, नतीजा सिफर। मियाद फिर बढ़ाई गई। इस बार योजना आयोग भी मैदान में आ गया। मार्च 2010 तक सब कुछ सामान्य करने का वादा किया गया। लेकिन अफसोस कि इस बार भी तारीख गुजर गई, साल खत्म होने को आया है, पर महंगाई है कि कमर सीधी नहीं करने दे रही है।
महंगाई की संक्रामक बीमारी ने सबसे पहले दालों को अपना शिकार बनाया, जी हां, वही दाल, जिसे कभी गरीबों का भोजन कहा जाता था। बुजुर्ग कहा करते थे "दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"। लेकिन अब इस कहावत को बदलने का समय आ चुका है। क्योंकि दाल और आटा दोनों ने ही आसमानी दाम छू लिए हैं। बची थी प्याज, उसने भी रुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शक्कर की मिठास में तो पहले ही कड़वाहट घुल चुकी है। दूध के दामों में भी उबाल नहीं थम रहा है। प्रदूषण की ही तरह पेट्रोल के दाम भी जेब का मौसम बिगाड़ चुका है।
रसोई गैस ने किचन का माहौल दम घोंटू बना दिया है। हालांकि इतने में भी सरकार को आम आदमी की परेशानी के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है। तभी तो रसोई गैस के दामों में वो महंगाई का और ज़हर घोलने की तैयारी कर रही है। यहां गौरतलब यह है कि रसोई गैस, दूध, पेट्रोल, दाल, आटा, प्याज, खाने का तेल और शकर, चावल जैसी सभी जरूरी चीजें महंगी हो चुकी है।
लगता है सरकार और उसके मंत्रियों ने पद एवं गोपनीयता के साथ ही जनता के प्राण लेने की भी शपथ ली थी। कोई महकमा ऐसा नहीं है जहां पर भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदारी का भाव न झलकता हो। जिसको जहां मिल रहा है वहीं लूट मचा रहा है। तथाकथित जनता द्वारा चुनी गई सरकार, उसी जनता का जीना मुहाल कर रही है। सत्ता में बने रहने के लिए हमारे नेता जो करें वो कम। संवैधानिक रूप से सबसे ताकतवर माने वाले प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के मामले पर आंख मूदे बैठे रहते हैं।
पानी सिर के ऊपर जाने के बाद ही जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया जाता है। मगर अफसोस कि आज तक इन आश्वासनों को न तो अमल में लाया गया और न ही इसका कोई असर दिखाई देता है। वैसे यहां पर एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है। और वह यह है कि राजनेताओं को महंगाई से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है। आप तो जानते ही होंगे कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को वेतन के अलावा राशन का भत्ता अलग से दिया जाता है। उन्हें न तो बिजली का बिल देना होता है और न ही टेलीफोन का बिल। पेट्रोल मुफ्त मिलता है और घूमने का भत्ता अलग। घर पर काम करने के लिए भृत्य, फर्नीचर, रियायती दरों पर ऋण, मुफ्त रेल और हवाई यात्राएं, बिना बिल का पानी, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं।
यदि इन माननीयों को भी बस और रेलों के धक्के खाने पड़ते, मकान के किराये की जद्दोजहद करनी पड़ती, वेतन से बचत करके किश्तें भरनी पड़ती, तो शायद वो आम इंसान का दर्द समझ सकते। मगर उनकी व्यवस्था तो ऐसी है कि पद पर न रहते हुए भी उन्हें लगभग सभी सुविधाएं अनवरत मिलती रहती हैं।
रही बात आम आदमियों की तो उसकी स्थिति से तो हम सभी वाकिफ हैं। आगे क्या कहूं कि…..
बरबादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख में उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।।
Saturday, December 11, 2010
राजनीति बड़ी या देश
"लव के लिए साला कुछ भी करेगा...." यह फिल्मी गाना आपमें से अधिकांश लोगों ने तो सुना ही होगा। अगर "पॉलिटिक्स के लिए साला कुछ भी करेगा...." बोलों के साथ अगर इसे दोबारा बनाया जाए, तो यह गाना हमारे आज के नेताओं के लिए थीम सांग साबित हो सकता है।
वाकया मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जी से संबंधित है। शुक्रवार को दिग्गीराजा ने कहा कि हेमंत करकरे की मौत की वजह 26/11 के आतंकवादी नहीं बल्कि हिंदू आतंकी संगठन हैं। उन्होंने अपने बयान की पृष्ठभूमि बनाने के लिए यह तक कह डाला कि हमले के कुछ घंटे पहले ही उन्हें करकरे ने यह बताया था।
हालांकि करकरे की पत्नी की नाराजगी के बाद दिग्गी राजा अपने बयान से पलट गए। लेकिन हंसी वाली बात यह कि आखिर दिग्विजय सिंह को इस तरह का भद्दा झूठ बोलने की जरूरत क्या थी। यहां पर कुछ तकनीकी पहलू भी हैं, जिनको जाने बिना पूर्व सीएम साहब ने जबान की लगाम छोड़ दी थी। करकरे महाराष्ट्र एटीएस के अधिकारी थे, उनका दिग्गी से क्या लेना देना था। दूसरा यह कि दिग्गी के पास महाराष्ट्र कांग्रेस का प्रभार भी नहीं था। न ही वो देश के गृहमंत्री थे, तो फिर आखिर करकरे अपनी आशंका उनसे क्यों जताते।
खैर यह तो एक खालिस झूठ था, जो सही समय पर पकड़ा गया। लेकिन दूसरा कड़वा सच यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु्र्सी प्रेम में इस तरह आकंठ डूबी हैं कि अपने फायदे के लिए वो दिन को रात और रात को दिन भी कहने से पीछे नहीं हटेंगे। आपको याद होगा जब 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एआर एंतुले ने कहा था कि इस हमले के पीछे हिंदू आतंकी संगठनों का हाथ है।
इस बात का खुलासा विकीलीक्स ने भी किया है कि मुंबई हमले को कांग्रेस धर्म के आधार पर भुनाना चाह रही थी। यह सोचने वाली बात यह है कि आखिर कब हमारे नेता परिपक्व होंगे। इस तरह की ओछी हरकतों की वजह से ही देश में नेताओं की आए दिन भद पिटती रहती है। चुनावों में वोट देने वालों का प्रतिशत गिर रहा है। लोगों का सरकारी मशीनरी से भरोसा उठ रहा है। हालांकि हमारी मशीनरी भी विश्वसनीय नहीं है।
लेकिन यह समझ नहीं आता है कि हमारे नेता अपने स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर सकते हैं। संसद चलने नहीं देते, जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते हैं। कुर्सी मिलते ही अपनी जेबें गरम करने लगते हैं। सारी जांच एजेंसियां इनके आगे नतमस्तक रहती हैं। किसी भी मामले की जांच सच के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखकर की जाती है।
पुलिस और प्रशासन की हालत किसी से छिपी नहीं है। मामले को रफादफा करने के लिए वो लोग हरसंभव प्रयत्न करते हैं। लोकतंत्र के स्तंभों की नीवें हिल रही हैं। इनके हिलने की वजह का एकमात्र कारण गंदी राजनीति है। ऐसे देश का भविष्य क्या होगा। जब तक नेताओं की जमात मैं से ऊपर उठकर देश के बारे में नहीं सोचेगी, तब तक न तो जनहित ही हो सकेगा और न ही देश कोई शक्ति बन सकेगा।
खैर यह तो एक खालिस झूठ था, जो सही समय पर पकड़ा गया। लेकिन दूसरा कड़वा सच यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु्र्सी प्रेम में इस तरह आकंठ डूबी हैं कि अपने फायदे के लिए वो दिन को रात और रात को दिन भी कहने से पीछे नहीं हटेंगे। आपको याद होगा जब 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एआर एंतुले ने कहा था कि इस हमले के पीछे हिंदू आतंकी संगठनों का हाथ है।
इस बात का खुलासा विकीलीक्स ने भी किया है कि मुंबई हमले को कांग्रेस धर्म के आधार पर भुनाना चाह रही थी। यह सोचने वाली बात यह है कि आखिर कब हमारे नेता परिपक्व होंगे। इस तरह की ओछी हरकतों की वजह से ही देश में नेताओं की आए दिन भद पिटती रहती है। चुनावों में वोट देने वालों का प्रतिशत गिर रहा है। लोगों का सरकारी मशीनरी से भरोसा उठ रहा है। हालांकि हमारी मशीनरी भी विश्वसनीय नहीं है।
लेकिन यह समझ नहीं आता है कि हमारे नेता अपने स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर सकते हैं। संसद चलने नहीं देते, जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते हैं। कुर्सी मिलते ही अपनी जेबें गरम करने लगते हैं। सारी जांच एजेंसियां इनके आगे नतमस्तक रहती हैं। किसी भी मामले की जांच सच के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखकर की जाती है।
पुलिस और प्रशासन की हालत किसी से छिपी नहीं है। मामले को रफादफा करने के लिए वो लोग हरसंभव प्रयत्न करते हैं। लोकतंत्र के स्तंभों की नीवें हिल रही हैं। इनके हिलने की वजह का एकमात्र कारण गंदी राजनीति है। ऐसे देश का भविष्य क्या होगा। जब तक नेताओं की जमात मैं से ऊपर उठकर देश के बारे में नहीं सोचेगी, तब तक न तो जनहित ही हो सकेगा और न ही देश कोई शक्ति बन सकेगा।
केवल सभाओं और संसद में चिंता जाहिर कर देने से या भाषण दे देने भर से देश इस रोग से मुक्त नहीं हो पाएगा। इसके लिए चाहिए कठोर इच्छाशक्ति, जिसकी कमी किसी टॉनिक से पूरी नहीं की जा सकती है।
राजनीति बड़ी या देश
"लव के लिए साला कुछ भी करेगा...." यह फिल्मी गाना आपमें से अधिकांश लोगों ने तो सुना ही होगा। अगर "पॉलिटिक्स के लिए साला कुछ भी करेगा...." बोलों के साथ अगर इसे दोबारा बनाया जाए, तो यह गाना हमारे आज के नेताओं के लिए थीम सांग साबित हो सकता है।
वाकया मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जी से संबंधित है। शुक्रवार को दिग्गीराजा ने कहा कि हेमंत करकरे की मौत की वजह 26/11 के आतंकवादी नहीं बल्कि हिंदू आतंकी संगठन हैं। उन्होंने अपने बयान की पृष्ठभूमि बनाने के लिए यह तक कह डाला कि हमले के कुछ घंटे पहले ही उन्हें करकरे ने यह बताया था।
हालांकि करकरे की पत्नी की नाराजगी के बाद दिग्गी राजा अपने बयान से पलट गए। लेकिन हंसी वाली बात यह कि आखिर दिग्विजय सिंह को इस तरह का भद्दा झूठ बोलने की जरूरत क्या थी। यहां पर कुछ तकनीकी पहलू भी हैं, जिनको जाने बिना पूर्व सीएम साहब ने जबान की लगाम छोड़ दी थी। करकरे महाराष्ट्र एटीएस के अधिकारी थे, उनका दिग्गी से क्या लेना देना था। दूसरा यह कि दिग्गी के पास महाराष्ट्र कांग्रेस का प्रभार भी नहीं था। न ही वो देश के गृहमंत्री थे, तो फिर आखिर करकरे अपनी आशंका उनसे क्यों जताते।
खैर यह तो एक खालिस झूठ था, जो सही समय पर पकड़ा गया। लेकिन दूसरा कड़वा सच यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु्र्सी प्रेम में इस तरह आकंठ डूबी हैं कि अपने फायदे के लिए वो दिन को रात और रात को दिन भी कहने से पीछे नहीं हटेंगे। आपको याद होगा जब 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एआर एंतुले ने कहा था कि इस हमले के पीछे हिंदू आतंकी संगठनों का हाथ है।
इस बात का खुलासा विकीलीक्स ने भी किया है कि मुंबई हमले को कांग्रेस धर्म के आधार पर भुनाना चाह रही थी। यह सोचने वाली बात यह है कि आखिर कब हमारे नेता परिपक्व होंगे। इस तरह की ओछी हरकतों की वजह से ही देश में नेताओं की आए दिन भद पिटती रहती है। चुनावों में वोट देने वालों का प्रतिशत गिर रहा है। लोगों का सरकारी मशीनरी से भरोसा उठ रहा है। हालांकि हमारी मशीनरी भी विश्वसनीय नहीं है।
लेकिन यह समझ नहीं आता है कि हमारे नेता अपने स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर सकते हैं। संसद चलने नहीं देते, जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते हैं। कुर्सी मिलते ही अपनी जेबें गरम करने लगते हैं। सारी जांच एजेंसियां इनके आगे नतमस्तक रहती हैं। किसी भी मामले की जांच सच के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखकर की जाती है।
पुलिस और प्रशासन की हालत किसी से छिपी नहीं है। मामले को रफादफा करने के लिए वो लोग हरसंभव प्रयत्न करते हैं। लोकतंत्र के स्तंभों की नीवें हिल रही हैं। इनके हिलने की वजह का एकमात्र कारण गंदी राजनीति है। ऐसे देश का भविष्य क्या होगा। जब तक नेताओं की जमात मैं से ऊपर उठकर देश के बारे में नहीं सोचेगी, तब तक न तो जनहित ही हो सकेगा और न ही देश कोई शक्ति बन सकेगा।
खैर यह तो एक खालिस झूठ था, जो सही समय पर पकड़ा गया। लेकिन दूसरा कड़वा सच यह है कि हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु्र्सी प्रेम में इस तरह आकंठ डूबी हैं कि अपने फायदे के लिए वो दिन को रात और रात को दिन भी कहने से पीछे नहीं हटेंगे। आपको याद होगा जब 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एआर एंतुले ने कहा था कि इस हमले के पीछे हिंदू आतंकी संगठनों का हाथ है।
इस बात का खुलासा विकीलीक्स ने भी किया है कि मुंबई हमले को कांग्रेस धर्म के आधार पर भुनाना चाह रही थी। यह सोचने वाली बात यह है कि आखिर कब हमारे नेता परिपक्व होंगे। इस तरह की ओछी हरकतों की वजह से ही देश में नेताओं की आए दिन भद पिटती रहती है। चुनावों में वोट देने वालों का प्रतिशत गिर रहा है। लोगों का सरकारी मशीनरी से भरोसा उठ रहा है। हालांकि हमारी मशीनरी भी विश्वसनीय नहीं है।
लेकिन यह समझ नहीं आता है कि हमारे नेता अपने स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर सकते हैं। संसद चलने नहीं देते, जरूरी कानूनों को पास नहीं होने देते हैं। कुर्सी मिलते ही अपनी जेबें गरम करने लगते हैं। सारी जांच एजेंसियां इनके आगे नतमस्तक रहती हैं। किसी भी मामले की जांच सच के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखकर की जाती है।
पुलिस और प्रशासन की हालत किसी से छिपी नहीं है। मामले को रफादफा करने के लिए वो लोग हरसंभव प्रयत्न करते हैं। लोकतंत्र के स्तंभों की नीवें हिल रही हैं। इनके हिलने की वजह का एकमात्र कारण गंदी राजनीति है। ऐसे देश का भविष्य क्या होगा। जब तक नेताओं की जमात मैं से ऊपर उठकर देश के बारे में नहीं सोचेगी, तब तक न तो जनहित ही हो सकेगा और न ही देश कोई शक्ति बन सकेगा।
केवल सभाओं और संसद में चिंता जाहिर कर देने से या भाषण दे देने भर से देश इस रोग से मुक्त नहीं हो पाएगा। इसके लिए चाहिए कठोर इच्छाशक्ति, जिसकी कमी किसी टॉनिक से पूरी नहीं की जा सकती है।
Thursday, December 9, 2010
देश बड़ा या नेता
आप सबने यह खबर तो जरूर देखी, सुनी और पढ़ी ही होगी कि अमेरिका में भारत की राजदूत के साथ पैट डाउन सुरक्षा जांच की गई। जब यह खबर मीडिया के जरिए आई तो तुरंत प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गईं। लगभग सभी ने इसे देश की आन-बान-शान और न जाने किस-किस से इसे जोड़कर रख दिया साथ ही अमेरिका की आलोचना भी की। हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने यहां तक कह डाला कि इस तरह से भारतीय अधिकारियों की बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वो अमेरिका से अपनी नाराजगी जरूर जताएंगे।
लेकिन असल मुद्दा यह है कि जैसे हम हैं क्या वैसा दूसरों का होना जरूरी है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम खुद को कानून से ऊपर मानते हैं, लेकिन दूसरे देशों में भी ऐसा हो यह जरूरी तो नहीं है। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि "जैसा देश वैसा भेष"। यदि उनकी इस बात को अमल में लाते तो ऐसी परेशानी ही नहीं आती। यही कारण है कि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था को हमने आन पर ले लिया है। अधिकांश यह सुनने को मिल रहा है कि अमेरिका जिनिवा समझौते को दरकिनार करता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इसी सुरक्षा व्यवस्था का फायदा उसे आज मिल रहा है, जबकि इसकी कमी का खामियाजा हम भुगत ही रहे हैं। हमारे देश में सरकारी अंगरक्षक तथा लाल पीली बत्तियों का काफिला लेकर शान समझा जाता है। यही वजह है कि कानून के रखवाले इन रंगों की बत्ती वाले वाहन में बैठे हुए लोगों को बिना किसी और पूछताछ के कहीं भी जाने देते हैं।
आपको याद ही होगा कि जब भी कोई नेता जेल जाता है, तो उसके लिए वहां पर हर तरफ की वीआईपी सुरक्षा मौजूद रहती है। मसलन, वो जेल जाते ही बीमार हो जाता है और तुरंत उसे किसी अस्पताल में प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। जहां वो पूरी अय्याशी के साथ अपना इलाज करवाता है।
एक सच यह भी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या फिर उनसे सांठगांठ रखने वालों पर कानून के लंबे हाथ कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं। यदा कदा किसी मोहरे को यदि कानून ने सजा दे दी तो उसका गुणगान ऐसे किया जाता है, जैसे स्वयं धर्मराज ने इंसाफ किया हो, तथा इसके बाद कोई अपराधी बनेगा ही नहीं। यहां पर मुझे विनोद दुआ (वरिष्ठ पत्रकार, एनडीटीवी समाचार चैनल) जी की कही हुई बात एकदम सही लगती है कि हमारे देश में सबसे पहले नेता हैं उसके बाद देश की बारी आती है। जबकि अमेरिका और यूरोप जैसे देश में कानून और देश शीर्ष पर हैं, नेता या आम आदमी एक समान हैं। मगर अफसोस कि यह समानता हमारे देश के लिए शायद दिवा स्वप्न है।
असल हमारे देश में देश जैसा कंसेप्ट तो बचा ही नहीं है। यहां हम नहीं बल्कि मैं का प्रभाव ज्यादा बड़ा हो गया है। यही वजह है कि नेता या आला अफसर हमारे लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करते हैं। यदि उदाहरण गिनाने बैंठूं तो महीनों लग जाएंगे गिनती पूरी होने में।
हमारे देश में, क्षमा चाहूंगा, मेरे देश में नेता और अफसर सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। यहां पर मैं तनख्वाह की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि टेबल के ऊपर और नीचे से आने वाले लिफाफों और सूटकेसों का जिक्र कर रहा हूं। हो सकता है कि कई लोग मेरी बातों से सहमत न भी हों, पर सच तो यही है कि हमारा देश तरक्की तो कर रहा है लेकिन इस तरक्की का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो आप सभी लोग ने देख, सुन और पढ़ रहे होंगे। कहीं कोई राजा बन रहा है तो कोई भ्रष्टाचार के नए आदर्श स्थापित कर रहा है।
खैर यह तो हमारे देश के लिए आम बात हो चुकी है।
वैसे हमारे देश के नेता आजकल अपने प्रोटोकॉल को लेकर भी काफी परेशान हो रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से भारत में उनकी मेहमान नवाजी होती है, वैसी अमेरिका में नही होती है। लेकिन उनको कौन समझाए कि हर देश में भारत की तरह व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में नेताओं और बड़े अधिकारियों को कई अलिखित अधिकार भी प्राप्त हैं। जिनमें सुरक्षा जांच न करवाना सबसे बड़ा अधिकार है। यदि गलती से किसी के साथ जांच जैसा कुछ हुआ तो जांच करने वाली की शामत आना अटल है। वहीं अगर अमेरिका में कोई जांच अधिकारी अपनी ड्यूटी से चूक जाए तो उसकी शामत आ जाती है। यही वजह है कि अमेरिका में 26/11 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हो पाई है। जबकि हमारे देश में नेता, अफसर और सुरक्षा एजेंसियां कुंभकरण से भी गहरी नींद में सोती हैं या फिर शायद कान में तेल डालकर बैठी हैं।
यही वजह है कि पहले कारगिल के रास्ते हमला किया गया उसके बाद संसद भवन में घुसकर हमला किया गया। इतने से भी संतुष्टि नहीं मिली तो मुंबई में 26 नवंबर का हमला किया गया। वैसे भी मुंबई में हुए हमलों को तारीख से ही याद किया जा सकता है क्योंकि वहां हर एक दो वर्ष में कोई न कोई आतंकवादी घटना होती ही रहती है और सबको याद रखने के लिए तारीख याद रखना जरूरी है। क्योंकि आतंकवादियों के लिए हमारे देश में आतंकी हमला करना किसी बच्चे के खेल से ज्यादा कठिन नहीं है।
और जहां तक बात है भ्रष्टाचार की, तो उसमें हम नोबेल के हकदार हैं। साल दर साल हम इसमें अपने अंक बढ़ाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस वर्ष की रिपोर्ट में तो हमारे देश को दुनिया का सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश होने का खिताब भी हासिल हो गया है। हमारा देश भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लचर कानून व्यवस्था के मामले पर टॉप में है। यदि विश्वास न हो तो इस वर्ष और पिछले कई वर्षों की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट्स को देख सकते हैं।
लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार हैं हमारे नेता, अफसर और जनता भी। व्यवस्थाएं इतनी सड़ चुकी हैं कि जनता को इन पर भरोसा बचा ही नहीं है। रही सही कसर पूरा कर देते हैं ये हमारे माननीय टाइप के लोग। जो इन्हें धता बताकर अपना हर काम कर लेते हैं।
लेकिन असल मुद्दा यह है कि जैसे हम हैं क्या वैसा दूसरों का होना जरूरी है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम खुद को कानून से ऊपर मानते हैं, लेकिन दूसरे देशों में भी ऐसा हो यह जरूरी तो नहीं है। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि "जैसा देश वैसा भेष"। यदि उनकी इस बात को अमल में लाते तो ऐसी परेशानी ही नहीं आती। यही कारण है कि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था को हमने आन पर ले लिया है। अधिकांश यह सुनने को मिल रहा है कि अमेरिका जिनिवा समझौते को दरकिनार करता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इसी सुरक्षा व्यवस्था का फायदा उसे आज मिल रहा है, जबकि इसकी कमी का खामियाजा हम भुगत ही रहे हैं। हमारे देश में सरकारी अंगरक्षक तथा लाल पीली बत्तियों का काफिला लेकर शान समझा जाता है। यही वजह है कि कानून के रखवाले इन रंगों की बत्ती वाले वाहन में बैठे हुए लोगों को बिना किसी और पूछताछ के कहीं भी जाने देते हैं।
आपको याद ही होगा कि जब भी कोई नेता जेल जाता है, तो उसके लिए वहां पर हर तरफ की वीआईपी सुरक्षा मौजूद रहती है। मसलन, वो जेल जाते ही बीमार हो जाता है और तुरंत उसे किसी अस्पताल में प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। जहां वो पूरी अय्याशी के साथ अपना इलाज करवाता है।
एक सच यह भी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या फिर उनसे सांठगांठ रखने वालों पर कानून के लंबे हाथ कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं। यदा कदा किसी मोहरे को यदि कानून ने सजा दे दी तो उसका गुणगान ऐसे किया जाता है, जैसे स्वयं धर्मराज ने इंसाफ किया हो, तथा इसके बाद कोई अपराधी बनेगा ही नहीं। यहां पर मुझे विनोद दुआ (वरिष्ठ पत्रकार, एनडीटीवी समाचार चैनल) जी की कही हुई बात एकदम सही लगती है कि हमारे देश में सबसे पहले नेता हैं उसके बाद देश की बारी आती है। जबकि अमेरिका और यूरोप जैसे देश में कानून और देश शीर्ष पर हैं, नेता या आम आदमी एक समान हैं। मगर अफसोस कि यह समानता हमारे देश के लिए शायद दिवा स्वप्न है।
असल हमारे देश में देश जैसा कंसेप्ट तो बचा ही नहीं है। यहां हम नहीं बल्कि मैं का प्रभाव ज्यादा बड़ा हो गया है। यही वजह है कि नेता या आला अफसर हमारे लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करते हैं। यदि उदाहरण गिनाने बैंठूं तो महीनों लग जाएंगे गिनती पूरी होने में।
हमारे देश में, क्षमा चाहूंगा, मेरे देश में नेता और अफसर सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। यहां पर मैं तनख्वाह की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि टेबल के ऊपर और नीचे से आने वाले लिफाफों और सूटकेसों का जिक्र कर रहा हूं। हो सकता है कि कई लोग मेरी बातों से सहमत न भी हों, पर सच तो यही है कि हमारा देश तरक्की तो कर रहा है लेकिन इस तरक्की का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो आप सभी लोग ने देख, सुन और पढ़ रहे होंगे। कहीं कोई राजा बन रहा है तो कोई भ्रष्टाचार के नए आदर्श स्थापित कर रहा है।
खैर यह तो हमारे देश के लिए आम बात हो चुकी है।
वैसे हमारे देश के नेता आजकल अपने प्रोटोकॉल को लेकर भी काफी परेशान हो रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से भारत में उनकी मेहमान नवाजी होती है, वैसी अमेरिका में नही होती है। लेकिन उनको कौन समझाए कि हर देश में भारत की तरह व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में नेताओं और बड़े अधिकारियों को कई अलिखित अधिकार भी प्राप्त हैं। जिनमें सुरक्षा जांच न करवाना सबसे बड़ा अधिकार है। यदि गलती से किसी के साथ जांच जैसा कुछ हुआ तो जांच करने वाली की शामत आना अटल है। वहीं अगर अमेरिका में कोई जांच अधिकारी अपनी ड्यूटी से चूक जाए तो उसकी शामत आ जाती है। यही वजह है कि अमेरिका में 26/11 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हो पाई है। जबकि हमारे देश में नेता, अफसर और सुरक्षा एजेंसियां कुंभकरण से भी गहरी नींद में सोती हैं या फिर शायद कान में तेल डालकर बैठी हैं।
यही वजह है कि पहले कारगिल के रास्ते हमला किया गया उसके बाद संसद भवन में घुसकर हमला किया गया। इतने से भी संतुष्टि नहीं मिली तो मुंबई में 26 नवंबर का हमला किया गया। वैसे भी मुंबई में हुए हमलों को तारीख से ही याद किया जा सकता है क्योंकि वहां हर एक दो वर्ष में कोई न कोई आतंकवादी घटना होती ही रहती है और सबको याद रखने के लिए तारीख याद रखना जरूरी है। क्योंकि आतंकवादियों के लिए हमारे देश में आतंकी हमला करना किसी बच्चे के खेल से ज्यादा कठिन नहीं है।
और जहां तक बात है भ्रष्टाचार की, तो उसमें हम नोबेल के हकदार हैं। साल दर साल हम इसमें अपने अंक बढ़ाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस वर्ष की रिपोर्ट में तो हमारे देश को दुनिया का सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश होने का खिताब भी हासिल हो गया है। हमारा देश भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लचर कानून व्यवस्था के मामले पर टॉप में है। यदि विश्वास न हो तो इस वर्ष और पिछले कई वर्षों की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट्स को देख सकते हैं।
लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार हैं हमारे नेता, अफसर और जनता भी। व्यवस्थाएं इतनी सड़ चुकी हैं कि जनता को इन पर भरोसा बचा ही नहीं है। रही सही कसर पूरा कर देते हैं ये हमारे माननीय टाइप के लोग। जो इन्हें धता बताकर अपना हर काम कर लेते हैं।
देश बड़ा या नेता
आप सबने यह खबर तो जरूर देखी, सुनी और पढ़ी ही होगी कि अमेरिका में भारत की राजदूत के साथ पैट डाउन सुरक्षा जांच की गई। जब यह खबर मीडिया के जरिए आई तो तुरंत प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गईं। लगभग सभी ने इसे देश की आन-बान-शान और न जाने किस-किस से इसे जोड़कर रख दिया साथ ही अमेरिका की आलोचना भी की। हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने यहां तक कह डाला कि इस तरह से भारतीय अधिकारियों की बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वो अमेरिका से अपनी नाराजगी जरूर जताएंगे।
लेकिन असल मुद्दा यह है कि जैसे हम हैं क्या वैसा दूसरों का होना जरूरी है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम खुद को कानून से ऊपर मानते हैं, लेकिन दूसरे देशों में भी ऐसा हो यह जरूरी तो नहीं है। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि "जैसा देश वैसा भेष"। यदि उनकी इस बात को अमल में लाते तो ऐसी परेशानी ही नहीं आती। यही कारण है कि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था को हमने आन पर ले लिया है। अधिकांश यह सुनने को मिल रहा है कि अमेरिका जिनिवा समझौते को दरकिनार करता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इसी सुरक्षा व्यवस्था का फायदा उसे आज मिल रहा है, जबकि इसकी कमी का खामियाजा हम भुगत ही रहे हैं। हमारे देश में सरकारी अंगरक्षक तथा लाल पीली बत्तियों का काफिला लेकर शान समझा जाता है। यही वजह है कि कानून के रखवाले इन रंगों की बत्ती वाले वाहन में बैठे हुए लोगों को बिना किसी और पूछताछ के कहीं भी जाने देते हैं।
आपको याद ही होगा कि जब भी कोई नेता जेल जाता है, तो उसके लिए वहां पर हर तरफ की वीआईपी सुरक्षा मौजूद रहती है। मसलन, वो जेल जाते ही बीमार हो जाता है और तुरंत उसे किसी अस्पताल में प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। जहां वो पूरी अय्याशी के साथ अपना इलाज करवाता है।
एक सच यह भी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या फिर उनसे सांठगांठ रखने वालों पर कानून के लंबे हाथ कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं। यदा कदा किसी मोहरे को यदि कानून ने सजा दे दी तो उसका गुणगान ऐसे किया जाता है, जैसे स्वयं धर्मराज ने इंसाफ किया हो, तथा इसके बाद कोई अपराधी बनेगा ही नहीं। यहां पर मुझे विनोद दुआ (वरिष्ठ पत्रकार, एनडीटीवी समाचार चैनल) जी की कही हुई बात एकदम सही लगती है कि हमारे देश में सबसे पहले नेता हैं उसके बाद देश की बारी आती है। जबकि अमेरिका और यूरोप जैसे देश में कानून और देश शीर्ष पर हैं, नेता या आम आदमी एक समान हैं। मगर अफसोस कि यह समानता हमारे देश के लिए शायद दिवा स्वप्न है।
असल हमारे देश में देश जैसा कंसेप्ट तो बचा ही नहीं है। यहां हम नहीं बल्कि मैं का प्रभाव ज्यादा बड़ा हो गया है। यही वजह है कि नेता या आला अफसर हमारे लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करते हैं। यदि उदाहरण गिनाने बैंठूं तो महीनों लग जाएंगे गिनती पूरी होने में।
हमारे देश में, क्षमा चाहूंगा, मेरे देश में नेता और अफसर सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। यहां पर मैं तनख्वाह की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि टेबल के ऊपर और नीचे से आने वाले लिफाफों और सूटकेसों का जिक्र कर रहा हूं। हो सकता है कि कई लोग मेरी बातों से सहमत न भी हों, पर सच तो यही है कि हमारा देश तरक्की तो कर रहा है लेकिन इस तरक्की का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो आप सभी लोग ने देख, सुन और पढ़ रहे होंगे। कहीं कोई राजा बन रहा है तो कोई भ्रष्टाचार के नए आदर्श स्थापित कर रहा है।
खैर यह तो हमारे देश के लिए आम बात हो चुकी है।
वैसे हमारे देश के नेता आजकल अपने प्रोटोकॉल को लेकर भी काफी परेशान हो रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से भारत में उनकी मेहमान नवाजी होती है, वैसी अमेरिका में नही होती है। लेकिन उनको कौन समझाए कि हर देश में भारत की तरह व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में नेताओं और बड़े अधिकारियों को कई अलिखित अधिकार भी प्राप्त हैं। जिनमें सुरक्षा जांच न करवाना सबसे बड़ा अधिकार है। यदि गलती से किसी के साथ जांच जैसा कुछ हुआ तो जांच करने वाली की शामत आना अटल है। वहीं अगर अमेरिका में कोई जांच अधिकारी अपनी ड्यूटी से चूक जाए तो उसकी शामत आ जाती है। यही वजह है कि अमेरिका में 26/11 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हो पाई है। जबकि हमारे देश में नेता, अफसर और सुरक्षा एजेंसियां कुंभकरण से भी गहरी नींद में सोती हैं या फिर शायद कान में तेल डालकर बैठी हैं।
यही वजह है कि पहले कारगिल के रास्ते हमला किया गया उसके बाद संसद भवन में घुसकर हमला किया गया। इतने से भी संतुष्टि नहीं मिली तो मुंबई में 26 नवंबर का हमला किया गया। वैसे भी मुंबई में हुए हमलों को तारीख से ही याद किया जा सकता है क्योंकि वहां हर एक दो वर्ष में कोई न कोई आतंकवादी घटना होती ही रहती है और सबको याद रखने के लिए तारीख याद रखना जरूरी है। क्योंकि आतंकवादियों के लिए हमारे देश में आतंकी हमला करना किसी बच्चे के खेल से ज्यादा कठिन नहीं है।
और जहां तक बात है भ्रष्टाचार की, तो उसमें हम नोबेल के हकदार हैं। साल दर साल हम इसमें अपने अंक बढ़ाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस वर्ष की रिपोर्ट में तो हमारे देश को दुनिया का सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश होने का खिताब भी हासिल हो गया है। हमारा देश भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लचर कानून व्यवस्था के मामले पर टॉप में है। यदि विश्वास न हो तो इस वर्ष और पिछले कई वर्षों की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट्स को देख सकते हैं।
लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार हैं हमारे नेता, अफसर और जनता भी। व्यवस्थाएं इतनी सड़ चुकी हैं कि जनता को इन पर भरोसा बचा ही नहीं है। रही सही कसर पूरा कर देते हैं ये हमारे माननीय टाइप के लोग। जो इन्हें धता बताकर अपना हर काम कर लेते हैं।
लेकिन असल मुद्दा यह है कि जैसे हम हैं क्या वैसा दूसरों का होना जरूरी है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हम खुद को कानून से ऊपर मानते हैं, लेकिन दूसरे देशों में भी ऐसा हो यह जरूरी तो नहीं है। बड़े बुजुर्गों ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि "जैसा देश वैसा भेष"। यदि उनकी इस बात को अमल में लाते तो ऐसी परेशानी ही नहीं आती। यही कारण है कि अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था को हमने आन पर ले लिया है। अधिकांश यह सुनने को मिल रहा है कि अमेरिका जिनिवा समझौते को दरकिनार करता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि इसी सुरक्षा व्यवस्था का फायदा उसे आज मिल रहा है, जबकि इसकी कमी का खामियाजा हम भुगत ही रहे हैं। हमारे देश में सरकारी अंगरक्षक तथा लाल पीली बत्तियों का काफिला लेकर शान समझा जाता है। यही वजह है कि कानून के रखवाले इन रंगों की बत्ती वाले वाहन में बैठे हुए लोगों को बिना किसी और पूछताछ के कहीं भी जाने देते हैं।
आपको याद ही होगा कि जब भी कोई नेता जेल जाता है, तो उसके लिए वहां पर हर तरफ की वीआईपी सुरक्षा मौजूद रहती है। मसलन, वो जेल जाते ही बीमार हो जाता है और तुरंत उसे किसी अस्पताल में प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाता है। जहां वो पूरी अय्याशी के साथ अपना इलाज करवाता है।
एक सच यह भी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे या फिर उनसे सांठगांठ रखने वालों पर कानून के लंबे हाथ कभी पहुंच ही नहीं पाते हैं। यदा कदा किसी मोहरे को यदि कानून ने सजा दे दी तो उसका गुणगान ऐसे किया जाता है, जैसे स्वयं धर्मराज ने इंसाफ किया हो, तथा इसके बाद कोई अपराधी बनेगा ही नहीं। यहां पर मुझे विनोद दुआ (वरिष्ठ पत्रकार, एनडीटीवी समाचार चैनल) जी की कही हुई बात एकदम सही लगती है कि हमारे देश में सबसे पहले नेता हैं उसके बाद देश की बारी आती है। जबकि अमेरिका और यूरोप जैसे देश में कानून और देश शीर्ष पर हैं, नेता या आम आदमी एक समान हैं। मगर अफसोस कि यह समानता हमारे देश के लिए शायद दिवा स्वप्न है।
असल हमारे देश में देश जैसा कंसेप्ट तो बचा ही नहीं है। यहां हम नहीं बल्कि मैं का प्रभाव ज्यादा बड़ा हो गया है। यही वजह है कि नेता या आला अफसर हमारे लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करते हैं। यदि उदाहरण गिनाने बैंठूं तो महीनों लग जाएंगे गिनती पूरी होने में।
हमारे देश में, क्षमा चाहूंगा, मेरे देश में नेता और अफसर सिर्फ पैसे के लिए काम करते हैं। यहां पर मैं तनख्वाह की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि टेबल के ऊपर और नीचे से आने वाले लिफाफों और सूटकेसों का जिक्र कर रहा हूं। हो सकता है कि कई लोग मेरी बातों से सहमत न भी हों, पर सच तो यही है कि हमारा देश तरक्की तो कर रहा है लेकिन इस तरक्की का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो आप सभी लोग ने देख, सुन और पढ़ रहे होंगे। कहीं कोई राजा बन रहा है तो कोई भ्रष्टाचार के नए आदर्श स्थापित कर रहा है।
खैर यह तो हमारे देश के लिए आम बात हो चुकी है।
वैसे हमारे देश के नेता आजकल अपने प्रोटोकॉल को लेकर भी काफी परेशान हो रहे हैं। उनका मानना है कि जिस तरह से भारत में उनकी मेहमान नवाजी होती है, वैसी अमेरिका में नही होती है। लेकिन उनको कौन समझाए कि हर देश में भारत की तरह व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में नेताओं और बड़े अधिकारियों को कई अलिखित अधिकार भी प्राप्त हैं। जिनमें सुरक्षा जांच न करवाना सबसे बड़ा अधिकार है। यदि गलती से किसी के साथ जांच जैसा कुछ हुआ तो जांच करने वाली की शामत आना अटल है। वहीं अगर अमेरिका में कोई जांच अधिकारी अपनी ड्यूटी से चूक जाए तो उसकी शामत आ जाती है। यही वजह है कि अमेरिका में 26/11 के बाद कोई आतंकी घटना नहीं हो पाई है। जबकि हमारे देश में नेता, अफसर और सुरक्षा एजेंसियां कुंभकरण से भी गहरी नींद में सोती हैं या फिर शायद कान में तेल डालकर बैठी हैं।
यही वजह है कि पहले कारगिल के रास्ते हमला किया गया उसके बाद संसद भवन में घुसकर हमला किया गया। इतने से भी संतुष्टि नहीं मिली तो मुंबई में 26 नवंबर का हमला किया गया। वैसे भी मुंबई में हुए हमलों को तारीख से ही याद किया जा सकता है क्योंकि वहां हर एक दो वर्ष में कोई न कोई आतंकवादी घटना होती ही रहती है और सबको याद रखने के लिए तारीख याद रखना जरूरी है। क्योंकि आतंकवादियों के लिए हमारे देश में आतंकी हमला करना किसी बच्चे के खेल से ज्यादा कठिन नहीं है।
और जहां तक बात है भ्रष्टाचार की, तो उसमें हम नोबेल के हकदार हैं। साल दर साल हम इसमें अपने अंक बढ़ाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस वर्ष की रिपोर्ट में तो हमारे देश को दुनिया का सबसे ज्यादा भ्रष्ट देश होने का खिताब भी हासिल हो गया है। हमारा देश भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लचर कानून व्यवस्था के मामले पर टॉप में है। यदि विश्वास न हो तो इस वर्ष और पिछले कई वर्षों की ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट्स को देख सकते हैं।
लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार हैं हमारे नेता, अफसर और जनता भी। व्यवस्थाएं इतनी सड़ चुकी हैं कि जनता को इन पर भरोसा बचा ही नहीं है। रही सही कसर पूरा कर देते हैं ये हमारे माननीय टाइप के लोग। जो इन्हें धता बताकर अपना हर काम कर लेते हैं।
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