बात चाहे देश की हो या प्रदेश की, विकास और तरक्की की बात करते नेताओं का दम नहीं फूलता है। सबका एक ही राग रहता है कि उन्होंने अपने इलाके, प्रदेश या देश को जन्नत बना दिया है। जबकि सच्चाई यह है कि उनके यह दावे न सिर्फ खोखले होते हैं बल्कि हकीकत से कई प्रकाश वर्ष की दूरी पर होते हैं।
इसे कहने के पीछे कोई राजनीतिक प्रभाव या दुराभाव नहीं है, बल्कि ठोस कारण हैं। चलिए एक उदाहरण के जरिए बात करते हैं। मान लीजिए कोई बड़ा नेता या फिर उसके परिवार का कोई सदस्य बीमार हो जाए तो क्या वो अपने राज्य या फिर जिले के सरकारी अस्पताल में इलाज कराने जाता है। यहां यह याद रखना जरूरी है कि स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के दावे भी वही नेता करता रहा होगा। या फिर चुनावों के वक्त उसे अपनी उपलब्धियों में शामिल किया होगा।
अच्छी शिक्षा की माला जपने वाले नेताओं के बच्चे क्या सरकारी स्कूल और कॉलेज में पढ़ते हैं। नहीं। तो फिर इनके नाम पर वोट मांगने से पहले जरा भी लाज नहीं आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस देश में अलग-अलग प्रकार के नागरिक और लोग रहते हैं। एक शासक वर्ग और दूसरी वो आम जनता जिसे मूर्ख समझा और बनाया जाता है।
मगर, यही नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते वक्त शायद यह भूल जाते हैं कि उनकी कथनी और करनी पर आम नागरिकों की नजर रहती है। लैपटॉप या मोबाइल बांटकर पांच साल तक सत्ता सुख चाहने वालों की आत्माएं शायद मर चुकी हैं। चुनाव प्रचार के दौरान दर-दर हाथ फैलाने वाले नेता जीतने के बाद रसूख, पैसे और सत्ता के नशे में ऐसे चूर होते हैं कि उन्हें सबकुछ दिखना भूल जाता है। अरबों-करोड़ों रुपयों का घोटाला करने वालों को लगने लगता है कि 30 या 35 रुपए रोज बमुश्किल कमाने वाले गरीब नहीं रह गए हैं, बल्कि वो अमीर हो गए हैं। यदि नेताओं का बस चले तो वो उन्हें जीने के लिए हवा भी नसीब न होने दें।
कोई कहता है कि गरीब लोग दो वक्त खाने लगे हैं इसलिए देश में अन्न का संकट गहराता है तो कोई यह कहता है कि दो सब्जियां खाने वाले लोगों की वजह से महंगाई बढ़ रही है। शायद सफेद कुरते पहनने वाले काले चरित्र वाले नेता चाहते हैं कि लोग भूखे ही मरें, तभी देश की अर्थव्यवस्था सही चल सकेगी।
बड़बोले नेताओं की अक्ल तो देखिए, उनका कहना है कि गरीबी और गरीब तो मन का विकार होता है। यह इस देश की दुर्दशा ही है कि यहां ऐसे लोग राज कर रहे हैं, जिन्हें आम लोगों से कोई लेना देना नहीं है। जिसने कभी घंटों लाइन में लगकर ट्रेन का टिकट हासिल न किया हो और धक्के खाकर बस का सफर न किया हो, वो क्या जाने कि आम नागरिक अपनी जिंदगी कैसे जीते हैं।
उम्मीद है लोकतंत्र के महापर्व में लोग जागरूक होंगे और धूर्तों को कुर्सी से दूर करेंगे।
इसे कहने के पीछे कोई राजनीतिक प्रभाव या दुराभाव नहीं है, बल्कि ठोस कारण हैं। चलिए एक उदाहरण के जरिए बात करते हैं। मान लीजिए कोई बड़ा नेता या फिर उसके परिवार का कोई सदस्य बीमार हो जाए तो क्या वो अपने राज्य या फिर जिले के सरकारी अस्पताल में इलाज कराने जाता है। यहां यह याद रखना जरूरी है कि स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के दावे भी वही नेता करता रहा होगा। या फिर चुनावों के वक्त उसे अपनी उपलब्धियों में शामिल किया होगा।
अच्छी शिक्षा की माला जपने वाले नेताओं के बच्चे क्या सरकारी स्कूल और कॉलेज में पढ़ते हैं। नहीं। तो फिर इनके नाम पर वोट मांगने से पहले जरा भी लाज नहीं आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस देश में अलग-अलग प्रकार के नागरिक और लोग रहते हैं। एक शासक वर्ग और दूसरी वो आम जनता जिसे मूर्ख समझा और बनाया जाता है।
मगर, यही नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते वक्त शायद यह भूल जाते हैं कि उनकी कथनी और करनी पर आम नागरिकों की नजर रहती है। लैपटॉप या मोबाइल बांटकर पांच साल तक सत्ता सुख चाहने वालों की आत्माएं शायद मर चुकी हैं। चुनाव प्रचार के दौरान दर-दर हाथ फैलाने वाले नेता जीतने के बाद रसूख, पैसे और सत्ता के नशे में ऐसे चूर होते हैं कि उन्हें सबकुछ दिखना भूल जाता है। अरबों-करोड़ों रुपयों का घोटाला करने वालों को लगने लगता है कि 30 या 35 रुपए रोज बमुश्किल कमाने वाले गरीब नहीं रह गए हैं, बल्कि वो अमीर हो गए हैं। यदि नेताओं का बस चले तो वो उन्हें जीने के लिए हवा भी नसीब न होने दें।
कोई कहता है कि गरीब लोग दो वक्त खाने लगे हैं इसलिए देश में अन्न का संकट गहराता है तो कोई यह कहता है कि दो सब्जियां खाने वाले लोगों की वजह से महंगाई बढ़ रही है। शायद सफेद कुरते पहनने वाले काले चरित्र वाले नेता चाहते हैं कि लोग भूखे ही मरें, तभी देश की अर्थव्यवस्था सही चल सकेगी।
बड़बोले नेताओं की अक्ल तो देखिए, उनका कहना है कि गरीबी और गरीब तो मन का विकार होता है। यह इस देश की दुर्दशा ही है कि यहां ऐसे लोग राज कर रहे हैं, जिन्हें आम लोगों से कोई लेना देना नहीं है। जिसने कभी घंटों लाइन में लगकर ट्रेन का टिकट हासिल न किया हो और धक्के खाकर बस का सफर न किया हो, वो क्या जाने कि आम नागरिक अपनी जिंदगी कैसे जीते हैं।
उम्मीद है लोकतंत्र के महापर्व में लोग जागरूक होंगे और धूर्तों को कुर्सी से दूर करेंगे।
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