देश के किसी भी कोने में चले जाइए, किसी भी पान की दुकान पर या शाम को बाजार या मोहल्लों में होने वाली पटियेबाजी पर। आपको देश की राजनीति और देश की दुर्दशा पर टिप्पणी करते विशेषज्ञ जरूर मिल जाएंगे। घोटालों से लेकर सियासी दांवपेच के बारे में उनका विश्लेषण सुनने लायक होता है। सभी यह मानते हैं कि हमारा देश भ्रष्टाचार और गंदी राजनीति का शिकार है। लेकिन क्या सारा दोष नेताओं पर मढना जायज है। जरा सोचिए।
नेता मंगल ग्रह से तो आए नहीं हैं जो हम पर राज कर रहे हैं। हमारे और आपके बीच में से ही चुनकर भेजे गए है। हम ही उनको भेजते हैं और फिर कोसते हैं। व्यवस्था पर दोष भी मढते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में चुनाव में नकारने का अधिकार देने की बात कही है। इससे पहले दोषियों को संसद और विधानसभाओं से दूर रखने का आदेश भी दिया था, जिसके खिलाफ केंद्र सरकार ने अध्यादेश पारित कर दिया था।
हम यानि आम जनता का मानस यह है कि तंत्र की बेकार है, उसे सुधारना होगा। इस तरह जिम्मेदारी टालने से बात नहीं बनने वाली है। व्यवस्था को सुधारना हमारे हाथों में ही है। इसके लिए सरकार या सुप्रीम कोर्ट का मुंह ताकने की कतई जरूरत नहीं पडे अगर थोडी समझदारी से काम लिया जाए। मसलन, आपको चुनावों में कोई पसंद नहीं है तो राइट टू रिजेक्ट के अलावा वोट न डालने का निर्णय भी तो कानून में दिया गया है। बस आपको पोल बूथ जाकर यह बताना होगा कि आपको किसी को भी वोट नहीं देना है।
इसी तरह से अगर आप अपने जनप्रतिनिधि से संतुष्ट नहीं हैं तो उसका सामाजिक बहिष्कार शुरू करिए, क्योंकि जनता ही उनकी ताकत है और जनता ही उनकी कमजोरी भी है।
लेकिन इससे भी जरूरी है खुद को बदलना। खुद सोचिए कि ईमानदार व्यवस्था की चाह रखने वाले आप और हम खुद कितने ईमानदार हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में कई ऐसे काम होते हैं जहां आप भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं। चाहे वो सामान की खरीदारी हो या फिर किसी सरकारी दफ्तर से काम करवाना।
अगर लाइसेंस बनवाना हो तो एजेंट खोजते हैं। कोई सर्टिफिकेट बनवाना हो तो जुगाड निकालते हैं। जान पहचान के दम पर काम करवाना मानो शान की बात समझा जाता है। कोई नेता से पहचान का रौब दिखाता है तो कोई सरकारी अधिकारी का। पुलिस वालों से दोस्ती का भी इस्तेमाल किया जाता है। ट्रैफिक पुलिस पकड ले तो तुरंत जेब से फोन निकालकर किसी से बात करवाने लगते है। सडक पर रेड लाइट हो तब भी उसे क्रॉस करना मानो शान की बात है।
अगर हम अपना सिविक सेंस सुधारेंगे तो व्यवस्था भी सुधरने लगेगी और नेता भी लाइन पर आ जाएंगे। आखिर व्यवस्था हमारे लिए हैं, तो उसे बनाए रखना भी हमारी जिम्मेदारी ही तो है।
नेता मंगल ग्रह से तो आए नहीं हैं जो हम पर राज कर रहे हैं। हमारे और आपके बीच में से ही चुनकर भेजे गए है। हम ही उनको भेजते हैं और फिर कोसते हैं। व्यवस्था पर दोष भी मढते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में चुनाव में नकारने का अधिकार देने की बात कही है। इससे पहले दोषियों को संसद और विधानसभाओं से दूर रखने का आदेश भी दिया था, जिसके खिलाफ केंद्र सरकार ने अध्यादेश पारित कर दिया था।
हम यानि आम जनता का मानस यह है कि तंत्र की बेकार है, उसे सुधारना होगा। इस तरह जिम्मेदारी टालने से बात नहीं बनने वाली है। व्यवस्था को सुधारना हमारे हाथों में ही है। इसके लिए सरकार या सुप्रीम कोर्ट का मुंह ताकने की कतई जरूरत नहीं पडे अगर थोडी समझदारी से काम लिया जाए। मसलन, आपको चुनावों में कोई पसंद नहीं है तो राइट टू रिजेक्ट के अलावा वोट न डालने का निर्णय भी तो कानून में दिया गया है। बस आपको पोल बूथ जाकर यह बताना होगा कि आपको किसी को भी वोट नहीं देना है।
इसी तरह से अगर आप अपने जनप्रतिनिधि से संतुष्ट नहीं हैं तो उसका सामाजिक बहिष्कार शुरू करिए, क्योंकि जनता ही उनकी ताकत है और जनता ही उनकी कमजोरी भी है।
लेकिन इससे भी जरूरी है खुद को बदलना। खुद सोचिए कि ईमानदार व्यवस्था की चाह रखने वाले आप और हम खुद कितने ईमानदार हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में कई ऐसे काम होते हैं जहां आप भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं। चाहे वो सामान की खरीदारी हो या फिर किसी सरकारी दफ्तर से काम करवाना।
अगर लाइसेंस बनवाना हो तो एजेंट खोजते हैं। कोई सर्टिफिकेट बनवाना हो तो जुगाड निकालते हैं। जान पहचान के दम पर काम करवाना मानो शान की बात समझा जाता है। कोई नेता से पहचान का रौब दिखाता है तो कोई सरकारी अधिकारी का। पुलिस वालों से दोस्ती का भी इस्तेमाल किया जाता है। ट्रैफिक पुलिस पकड ले तो तुरंत जेब से फोन निकालकर किसी से बात करवाने लगते है। सडक पर रेड लाइट हो तब भी उसे क्रॉस करना मानो शान की बात है।
अगर हम अपना सिविक सेंस सुधारेंगे तो व्यवस्था भी सुधरने लगेगी और नेता भी लाइन पर आ जाएंगे। आखिर व्यवस्था हमारे लिए हैं, तो उसे बनाए रखना भी हमारी जिम्मेदारी ही तो है।
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