Saturday, February 5, 2011

माँ-बाप होते हैं सच्चे दोस्त

लेखकः  नीहारिका झा पांडेय
नन्हे पैर लड़खड़ाते हुए कब खुद सँभलना सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता। माँ-बाप के लिए यह एक सुखद अहसास होता है। अपने बच्चों को यूँ ‍आत्मनिर्भर होते देखना, लेकिन समय के साथ-साथ उनकी मानसिक जरूरतें भी तेजी से बढ़ने लगती हैं। उनके मन में कई तरह के सवाल पैदा होते, जिनको जानना उनके लिए जरूरी होता है। ऐसे में माँ-बाप ही अपने बच्चों के सच्चे दोस्त और मार्गदर्शक बनकर उन्हें अच्छे-बुरे की पहचान करा सकते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि बेटा माँ का लाडला होता है और बेटियाँ पिता की लाडली। लेकिन सच तो ये है कि बढ़ती बेटियाँ अपने माँ की सबसे अच्छी सहेली होती है और एक पिता अपने बेटे के बेस्ट फ्रेंड। बेटियाँ जब बड़ी होने लगती हैं तो अपने पिता से उनकी झिझक बढ़ने लगती है और वहाँ एक लिहाज और दूरी का भाव आने लगता है। वहीं बेटा बड़ा होने लगे तो अपनी माँ से कटने लगता है और ज्यादातर वक्त अपने दोस्तों के साथ बिताना पसंद करता है। कभी-कभी यह लड़कों में भटकाव और तनाव की स्थिति पैदा कर देती है। ऐसे में एक समझदार पिता एक दोस्त की तरह उसकी सारी जिज्ञासाओं को जानने की कोशिश करता है, जिसे उसे अपनी माँ से बताने में झिझक महसूस होती है। बेटियाँ अपने मन में उठते अजीबोगरीब सवालों को सुलझाने के लिए सीधे अपनी माँ के पास ही जाती हैं। ये सवाल उनके लिए अजीबोगरीब होते हैं, लेकिन एक माँ अपनी बेटी के उन सवालों को उतनी ही गंभीरता और प्यार से हल करती है, क्योंकि वो भी कभी उस दौर गुजरी होती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये विचार, ये सवाल हमेशा उठते रहे हैं, लेकिन उनका हल हर पीढ़ी ने उतनी आसानी से नहीं निकाला है, लेकिन हर दौर के साथ माँ-बाप का रवैया अपने बच्चों के प्रति बदलता रहा है। अब वैसे माँ-बाप कम ही मिलते हैं, जो दिन भर अनुशासन का हंटर लिए उनके सिर पर सवार रहते हों। वो अब एक दोस्त और सच्चे हमराज की तरह उनका सुख-दु:ख और उनकी समस्याएँ बाँटने लगे हैं।

जब किसी घर में एक वयस्क होती बेटी और माँ को हँसी-ठिठोली करते हुए देखते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि जब ऐसा दोस्त घर पर आपके साथ है, तो फिर बाहर दोस्तों की तलाश करने की क्या आवश्यकता है? बेटी जिस जागरूकता के साथ अपने सौंदर्य की देखभाल करती है, उसी प्यार और दुलार से अपनी माँ पर भी कोई-न-कोई नुस्खा आजमाती रहती है। नए-नए व्यंजन बनाकर उन्हें खुश करने की कोशिश या फिर पर्व-त्योहार के मौके पर दौड़-दौड़कर उनके काम को आसान करने का प्रयास करना, ऐसी भावना और ऐसा दोस्ताना रिश्ता माँ-बेटी से इतर और कहाँ देखने को मिल सकता है। माँ भी अपने दिल के सारे दर्द खुलकर अपनी बेटी के साथ बाँटती है। इससे न केवल उनका मन हल्का होता, बल्कि उन्हें विश्वास हो जाता है कि कोई उनके इतने करीब है, जिससे वो अपने मन की सारी बातें खुलकर बता सकती हैं।

बेटा जब कॉलेज जाने की उम्र में पहुँचता है तो पिता उसकी भावनाएँ बेहतर समझ पाते हैं। बहुत से पिता अपने बेटे को बतौर सरप्राइज गाड़ी गिफ्ट करते हैं। कॉलेज का पहला दिन और अपना मनचाहा गिफ्ट पाकर अपने पिता के प्रति उसका प्यार और विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है। वह जब चहकते हूए घर लौटता है तो सबसे पहले अपने पिता को ही कॉलेज के पहले दिन के अनुभव के बारे में बताता है, क्योंकि उसे आभास हो जाता है कि उसके पिता से बेहतर उसे कोई और नहीं समझ सकता।

पिता का बेटे के साथ और माँ का अपनी बेटी के साथ यह दोस्ताना रवैया जहाँ एक ओर सुखद अहसास का अनुभव कराता है, वहीं यह परिवार का दृढ़ आधार-स्तंभ भी है।

**वेबदुनिया पोर्टल में प्रकाशित नीहारिका झा पांडेय का लेख, वहीं से साभार

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