लगता है कुशासन, भ्रष्टाचार, चोरी, कामचोरी और लूट जैसी नियति हमारे देश यानी भारत की किस्मत में उकेर कर लिखे गए हैं। कभी सोने की चिडिया था, इसलिए लोगों ने इसे लूटा। फिर बारी आई अपने ही घर के वाशिंदो की। उन्होंने भी लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरते हैं। लेकिन क्या कभी इस बात का भी घमंड कर पाएंगे कि हमारे देश में गरीबी, बेरोजगारी, अराजकता, भ्रष्टाचार और लूट न हो। शायद नहीं। हो सकता है कि आप इसे नकारात्मक मानें, लेकिन अफसोस कि और कुछ दिख भी तो नहीं रहा है।
आजादी के पहले की बात को अगर भूल भी जाएं, तो भला आजादी के बाद ऐसे कौन से महानतम काम किए गए हैं, जिन पर सीना चौड़ा किया जा सके। लोगों की गाढ़ी कमाई में से लिए जाने वाले कर की राशि को नेता और अफसर अपनी अय्याशी में उड़ा लेते हैं। करों की फेहरिस्त ऐसी कि देखने वाला चकरा ही जाए। लेकिन इन करों से प्राप्त राशि का इस्तेमाल कितनी जगह होता है। सरकार टीवी पर विज्ञापन देती है कि जनता से लिया जाने वाल कर विकास में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि साठ साल से ज्यादा हो गए हैं, आखिर विकास नाम की चिडिया किस बागीचे में दाना चुग रही है।
शुरुआत देश की राजधानी से ही करें तो सारी पोल खुलती हुई दिखाई देगी। यहां पर कानून व्यवस्था का हाल यह है कि बहू-बेटियों को राह चलते ही अगवा कर लिया जाता है और पुलिस जांच की ऐसी राह पकड़ती है, जिसका कोई अंत ही नहीं होता है। सड़क पर चलने वाला या फिर वाहन चलाने वाला नहीं जानता है कि कब उसके नीचे की सड़क धंस जाएगी और वह जमींदोज़ हो जाएगा। एनसीआर कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश से लगा हिस्सा तो अपनी अलग ही कहानी बयान करता है। यहां पर न तो कानून है और न ही प्रशासन। हाल ही में बहन मायावती ने गाजियाबाद और नौएडा का दौरा किया। लेकिन मजे की बात तो यह कि जनता से मिलने के नाम पर शहर-दर-शहर उड़नखटोला लिए जा रही बहिन से कोई मिला ही नहीं है। मिले भी कैसे, बहिनजी जिस भी शहर पहुंचती हैं, उनके पुलिस वाले वहां पर अघोषित कर्फ्यू लगा देते हैं और किसी को भी मैडम से मिलने नहीं दिया जाता है।
मैडम जी को दिखाने के लिए सड़कों के किनारे गमले सजा दिए जाते हैं। शहर में लाइट कटना बंद हो जाती है, लेकिन जैसे ही उनका उड़नखटोला यहां से निकला वहीं हालात दोबारा आ गए। क्या हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधि जनता को मूर्ख मानते हैं। या उनका शायद ऐसा मानना है कि अगर उनके बंगले में पीने का साफ पानी आ रहा है, तो आम लोगों को भी ऐसा ही मिल रहा होगा। या अगर उनकी कोठी बिजली से रोशन है तो गरीब की झोपड़ी में भी बिजली होगी।
लेकिन ऐसा नहीं है। वो जानते हैं कि आम जनता चारों ओर से बेहाल है। तभी तो चुनावी बादल छाते ही मेंढक की तरह विकास, बिजली और पानी दिलवाने का राग टर्राने लगते हैं।
खैर, असल बात पर लौटते हैं। खेलों के नाम पर आम आदमी के पैसों का खेल किया जाता है और कोई राजा बनता है तो कोई बेबस। यहां बेबस से आशय हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का है। अर्थशास्त्र के प्रकांड ज्ञानी हैं, पर न जाने क्यों जनता के अर्थशास्त्र के अलावा सारे शास्त्र समझते हैं। अमीरों के फायदे के लिए तो इनके पास योजनाओं का भंडार है, लेकिन आम जनता के लिए वो बैठकें करते हैं और सोचते हैं। हालांकि इस सोच के परिमाण अभी तक दिखाई नहीं दे पाए हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर स्कूल के बच्चों की तरह स्वयं को निर्दोष बताते हैं। जनता ने इन्हे सबसे शक्तिशाली पद पर इसलिए तो नहीं बैठाया था कि जब जनहित की बात आए तो ये गठबंधन का रोना रोएं या कहें कि उन्हें कुछ पता ही नहीं है।
सोचिए कि अगर देश का प्रधानमंत्री ही कहे कि वो मजबूर है तो फिर किसके सामने गुहार लगाई जाए।