Sunday, February 20, 2011

हाल-ए-वतन


लगता है कुशासन, भ्रष्टाचार, चोरी, कामचोरी और लूट जैसी नियति हमारे देश यानी भारत की किस्मत में उकेर कर लिखे गए हैं। कभी सोने की चिडिया था, इसलिए लोगों ने इसे लूटा। फिर बारी आई अपने ही घर के वाशिंदो की। उन्होंने भी लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरते हैं। लेकिन क्या कभी इस बात का भी घमंड कर पाएंगे कि हमारे देश में गरीबी, बेरोजगारी, अराजकता, भ्रष्टाचार और लूट न हो। शायद नहीं। हो सकता है कि आप इसे नकारात्मक मानें, लेकिन अफसोस कि और कुछ दिख भी तो नहीं रहा है।

आजादी के पहले की बात को अगर भूल भी जाएं, तो भला आजादी के बाद ऐसे कौन से महानतम काम किए गए हैं, जिन पर सीना चौड़ा किया जा सके। लोगों की गाढ़ी कमाई में से लिए जाने वाले कर की राशि को नेता और अफसर अपनी अय्याशी में उड़ा लेते हैं। करों की फेहरिस्त ऐसी कि देखने वाला चकरा ही जाए। लेकिन इन करों से प्राप्त राशि का इस्तेमाल कितनी जगह होता है। सरकार टीवी पर विज्ञापन देती है कि जनता से लिया जाने वाल कर विकास में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि साठ साल से ज्यादा हो गए हैं, आखिर विकास नाम की चिडिया किस बागीचे में दाना चुग रही है।

शुरुआत देश की राजधानी से ही करें तो सारी पोल खुलती हुई दिखाई देगी। यहां पर कानून व्यवस्था का हाल यह है कि बहू-बेटियों को राह चलते ही अगवा कर लिया जाता है और पुलिस जांच की ऐसी राह पकड़ती है, जिसका कोई अंत ही नहीं होता है। सड़क पर चलने वाला या फिर वाहन चलाने वाला नहीं जानता है कि कब उसके नीचे की सड़क धंस जाएगी और वह जमींदोज़ हो जाएगा। एनसीआर कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश से लगा हिस्सा तो अपनी अलग ही कहानी बयान करता है। यहां पर न तो कानून है और न ही प्रशासन। हाल ही में बहन मायावती ने गाजियाबाद और नौएडा का दौरा किया। लेकिन मजे की बात तो यह कि जनता से मिलने के नाम पर शहर-दर-शहर उड़नखटोला लिए जा रही बहिन से कोई मिला ही नहीं है। मिले भी कैसे, बहिनजी जिस भी शहर पहुंचती हैं, उनके पुलिस वाले वहां पर अघोषित कर्फ्यू लगा देते हैं और किसी को भी मैडम से मिलने नहीं दिया जाता है।

मैडम जी को दिखाने के लिए सड़कों के किनारे गमले सजा दिए जाते हैं। शहर में लाइट कटना बंद हो जाती है, लेकिन जैसे ही उनका उड़नखटोला यहां से निकला वहीं हालात दोबारा आ गए। क्या हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधि जनता को मूर्ख मानते हैं। या उनका शायद ऐसा मानना है कि अगर उनके बंगले में पीने का साफ पानी आ रहा है, तो आम लोगों को भी ऐसा ही मिल रहा होगा। या अगर उनकी कोठी बिजली से रोशन है तो गरीब की झोपड़ी में भी बिजली होगी।

लेकिन ऐसा नहीं है। वो जानते हैं कि आम जनता चारों ओर से बेहाल है। तभी तो चुनावी बादल छाते ही मेंढक की तरह विकास, बिजली और पानी दिलवाने का राग टर्राने लगते हैं।

खैर, असल बात पर लौटते हैं। खेलों के नाम पर आम आदमी के पैसों का खेल किया जाता है और कोई राजा बनता है तो कोई बेबस। यहां बेबस से आशय हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का है। अर्थशास्त्र के प्रकांड ज्ञानी हैं, पर न जाने क्यों जनता के अर्थशास्त्र के अलावा सारे शास्त्र समझते हैं। अमीरों के फायदे के लिए तो इनके पास योजनाओं का भंडार है, लेकिन आम जनता के लिए वो बैठकें करते हैं और सोचते हैं। हालांकि इस सोच के परिमाण अभी तक दिखाई नहीं दे पाए हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर स्कूल के बच्चों की तरह स्वयं को निर्दोष बताते हैं। जनता ने इन्हे सबसे शक्तिशाली पद पर इसलिए तो नहीं बैठाया था कि जब जनहित की बात आए तो ये गठबंधन का रोना रोएं या कहें कि उन्हें कुछ पता ही नहीं है।

सोचिए कि अगर देश का प्रधानमंत्री ही कहे कि वो मजबूर है तो फिर किसके सामने गुहार लगाई जाए।

हाल-ए-वतन


लगता है कुशासन, भ्रष्टाचार, चोरी, कामचोरी और लूट जैसी नियति हमारे देश यानी भारत की किस्मत में उकेर कर लिखे गए हैं। कभी सोने की चिडिया था, इसलिए लोगों ने इसे लूटा। फिर बारी आई अपने ही घर के वाशिंदो की। उन्होंने भी लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरते हैं। लेकिन क्या कभी इस बात का भी घमंड कर पाएंगे कि हमारे देश में गरीबी, बेरोजगारी, अराजकता, भ्रष्टाचार और लूट न हो। शायद नहीं। हो सकता है कि आप इसे नकारात्मक मानें, लेकिन अफसोस कि और कुछ दिख भी तो नहीं रहा है।

आजादी के पहले की बात को अगर भूल भी जाएं, तो भला आजादी के बाद ऐसे कौन से महानतम काम किए गए हैं, जिन पर सीना चौड़ा किया जा सके। लोगों की गाढ़ी कमाई में से लिए जाने वाले कर की राशि को नेता और अफसर अपनी अय्याशी में उड़ा लेते हैं। करों की फेहरिस्त ऐसी कि देखने वाला चकरा ही जाए। लेकिन इन करों से प्राप्त राशि का इस्तेमाल कितनी जगह होता है। सरकार टीवी पर विज्ञापन देती है कि जनता से लिया जाने वाल कर विकास में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि साठ साल से ज्यादा हो गए हैं, आखिर विकास नाम की चिडिया किस बागीचे में दाना चुग रही है।

शुरुआत देश की राजधानी से ही करें तो सारी पोल खुलती हुई दिखाई देगी। यहां पर कानून व्यवस्था का हाल यह है कि बहू-बेटियों को राह चलते ही अगवा कर लिया जाता है और पुलिस जांच की ऐसी राह पकड़ती है, जिसका कोई अंत ही नहीं होता है। सड़क पर चलने वाला या फिर वाहन चलाने वाला नहीं जानता है कि कब उसके नीचे की सड़क धंस जाएगी और वह जमींदोज़ हो जाएगा। एनसीआर कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश से लगा हिस्सा तो अपनी अलग ही कहानी बयान करता है। यहां पर न तो कानून है और न ही प्रशासन। हाल ही में बहन मायावती ने गाजियाबाद और नौएडा का दौरा किया। लेकिन मजे की बात तो यह कि जनता से मिलने के नाम पर शहर-दर-शहर उड़नखटोला लिए जा रही बहिन से कोई मिला ही नहीं है। मिले भी कैसे, बहिनजी जिस भी शहर पहुंचती हैं, उनके पुलिस वाले वहां पर अघोषित कर्फ्यू लगा देते हैं और किसी को भी मैडम से मिलने नहीं दिया जाता है।

मैडम जी को दिखाने के लिए सड़कों के किनारे गमले सजा दिए जाते हैं। शहर में लाइट कटना बंद हो जाती है, लेकिन जैसे ही उनका उड़नखटोला यहां से निकला वहीं हालात दोबारा आ गए। क्या हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधि जनता को मूर्ख मानते हैं। या उनका शायद ऐसा मानना है कि अगर उनके बंगले में पीने का साफ पानी आ रहा है, तो आम लोगों को भी ऐसा ही मिल रहा होगा। या अगर उनकी कोठी बिजली से रोशन है तो गरीब की झोपड़ी में भी बिजली होगी।

लेकिन ऐसा नहीं है। वो जानते हैं कि आम जनता चारों ओर से बेहाल है। तभी तो चुनावी बादल छाते ही मेंढक की तरह विकास, बिजली और पानी दिलवाने का राग टर्राने लगते हैं।

खैर, असल बात पर लौटते हैं। खेलों के नाम पर आम आदमी के पैसों का खेल किया जाता है और कोई राजा बनता है तो कोई बेबस। यहां बेबस से आशय हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का है। अर्थशास्त्र के प्रकांड ज्ञानी हैं, पर न जाने क्यों जनता के अर्थशास्त्र के अलावा सारे शास्त्र समझते हैं। अमीरों के फायदे के लिए तो इनके पास योजनाओं का भंडार है, लेकिन आम जनता के लिए वो बैठकें करते हैं और सोचते हैं। हालांकि इस सोच के परिमाण अभी तक दिखाई नहीं दे पाए हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर स्कूल के बच्चों की तरह स्वयं को निर्दोष बताते हैं। जनता ने इन्हे सबसे शक्तिशाली पद पर इसलिए तो नहीं बैठाया था कि जब जनहित की बात आए तो ये गठबंधन का रोना रोएं या कहें कि उन्हें कुछ पता ही नहीं है।

सोचिए कि अगर देश का प्रधानमंत्री ही कहे कि वो मजबूर है तो फिर किसके सामने गुहार लगाई जाए।

Saturday, February 5, 2011

माँ-बाप होते हैं सच्चे दोस्त

लेखकः  नीहारिका झा पांडेय
नन्हे पैर लड़खड़ाते हुए कब खुद सँभलना सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता। माँ-बाप के लिए यह एक सुखद अहसास होता है। अपने बच्चों को यूँ ‍आत्मनिर्भर होते देखना, लेकिन समय के साथ-साथ उनकी मानसिक जरूरतें भी तेजी से बढ़ने लगती हैं। उनके मन में कई तरह के सवाल पैदा होते, जिनको जानना उनके लिए जरूरी होता है। ऐसे में माँ-बाप ही अपने बच्चों के सच्चे दोस्त और मार्गदर्शक बनकर उन्हें अच्छे-बुरे की पहचान करा सकते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि बेटा माँ का लाडला होता है और बेटियाँ पिता की लाडली। लेकिन सच तो ये है कि बढ़ती बेटियाँ अपने माँ की सबसे अच्छी सहेली होती है और एक पिता अपने बेटे के बेस्ट फ्रेंड। बेटियाँ जब बड़ी होने लगती हैं तो अपने पिता से उनकी झिझक बढ़ने लगती है और वहाँ एक लिहाज और दूरी का भाव आने लगता है। वहीं बेटा बड़ा होने लगे तो अपनी माँ से कटने लगता है और ज्यादातर वक्त अपने दोस्तों के साथ बिताना पसंद करता है। कभी-कभी यह लड़कों में भटकाव और तनाव की स्थिति पैदा कर देती है। ऐसे में एक समझदार पिता एक दोस्त की तरह उसकी सारी जिज्ञासाओं को जानने की कोशिश करता है, जिसे उसे अपनी माँ से बताने में झिझक महसूस होती है। बेटियाँ अपने मन में उठते अजीबोगरीब सवालों को सुलझाने के लिए सीधे अपनी माँ के पास ही जाती हैं। ये सवाल उनके लिए अजीबोगरीब होते हैं, लेकिन एक माँ अपनी बेटी के उन सवालों को उतनी ही गंभीरता और प्यार से हल करती है, क्योंकि वो भी कभी उस दौर गुजरी होती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये विचार, ये सवाल हमेशा उठते रहे हैं, लेकिन उनका हल हर पीढ़ी ने उतनी आसानी से नहीं निकाला है, लेकिन हर दौर के साथ माँ-बाप का रवैया अपने बच्चों के प्रति बदलता रहा है। अब वैसे माँ-बाप कम ही मिलते हैं, जो दिन भर अनुशासन का हंटर लिए उनके सिर पर सवार रहते हों। वो अब एक दोस्त और सच्चे हमराज की तरह उनका सुख-दु:ख और उनकी समस्याएँ बाँटने लगे हैं।

जब किसी घर में एक वयस्क होती बेटी और माँ को हँसी-ठिठोली करते हुए देखते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि जब ऐसा दोस्त घर पर आपके साथ है, तो फिर बाहर दोस्तों की तलाश करने की क्या आवश्यकता है? बेटी जिस जागरूकता के साथ अपने सौंदर्य की देखभाल करती है, उसी प्यार और दुलार से अपनी माँ पर भी कोई-न-कोई नुस्खा आजमाती रहती है। नए-नए व्यंजन बनाकर उन्हें खुश करने की कोशिश या फिर पर्व-त्योहार के मौके पर दौड़-दौड़कर उनके काम को आसान करने का प्रयास करना, ऐसी भावना और ऐसा दोस्ताना रिश्ता माँ-बेटी से इतर और कहाँ देखने को मिल सकता है। माँ भी अपने दिल के सारे दर्द खुलकर अपनी बेटी के साथ बाँटती है। इससे न केवल उनका मन हल्का होता, बल्कि उन्हें विश्वास हो जाता है कि कोई उनके इतने करीब है, जिससे वो अपने मन की सारी बातें खुलकर बता सकती हैं।

बेटा जब कॉलेज जाने की उम्र में पहुँचता है तो पिता उसकी भावनाएँ बेहतर समझ पाते हैं। बहुत से पिता अपने बेटे को बतौर सरप्राइज गाड़ी गिफ्ट करते हैं। कॉलेज का पहला दिन और अपना मनचाहा गिफ्ट पाकर अपने पिता के प्रति उसका प्यार और विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है। वह जब चहकते हूए घर लौटता है तो सबसे पहले अपने पिता को ही कॉलेज के पहले दिन के अनुभव के बारे में बताता है, क्योंकि उसे आभास हो जाता है कि उसके पिता से बेहतर उसे कोई और नहीं समझ सकता।

पिता का बेटे के साथ और माँ का अपनी बेटी के साथ यह दोस्ताना रवैया जहाँ एक ओर सुखद अहसास का अनुभव कराता है, वहीं यह परिवार का दृढ़ आधार-स्तंभ भी है।

**वेबदुनिया पोर्टल में प्रकाशित नीहारिका झा पांडेय का लेख, वहीं से साभार

माँ-बाप होते हैं सच्चे दोस्त

लेखकः  नीहारिका झा पांडेय
नन्हे पैर लड़खड़ाते हुए कब खुद सँभलना सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता। माँ-बाप के लिए यह एक सुखद अहसास होता है। अपने बच्चों को यूँ ‍आत्मनिर्भर होते देखना, लेकिन समय के साथ-साथ उनकी मानसिक जरूरतें भी तेजी से बढ़ने लगती हैं। उनके मन में कई तरह के सवाल पैदा होते, जिनको जानना उनके लिए जरूरी होता है। ऐसे में माँ-बाप ही अपने बच्चों के सच्चे दोस्त और मार्गदर्शक बनकर उन्हें अच्छे-बुरे की पहचान करा सकते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि बेटा माँ का लाडला होता है और बेटियाँ पिता की लाडली। लेकिन सच तो ये है कि बढ़ती बेटियाँ अपने माँ की सबसे अच्छी सहेली होती है और एक पिता अपने बेटे के बेस्ट फ्रेंड। बेटियाँ जब बड़ी होने लगती हैं तो अपने पिता से उनकी झिझक बढ़ने लगती है और वहाँ एक लिहाज और दूरी का भाव आने लगता है। वहीं बेटा बड़ा होने लगे तो अपनी माँ से कटने लगता है और ज्यादातर वक्त अपने दोस्तों के साथ बिताना पसंद करता है। कभी-कभी यह लड़कों में भटकाव और तनाव की स्थिति पैदा कर देती है। ऐसे में एक समझदार पिता एक दोस्त की तरह उसकी सारी जिज्ञासाओं को जानने की कोशिश करता है, जिसे उसे अपनी माँ से बताने में झिझक महसूस होती है। बेटियाँ अपने मन में उठते अजीबोगरीब सवालों को सुलझाने के लिए सीधे अपनी माँ के पास ही जाती हैं। ये सवाल उनके लिए अजीबोगरीब होते हैं, लेकिन एक माँ अपनी बेटी के उन सवालों को उतनी ही गंभीरता और प्यार से हल करती है, क्योंकि वो भी कभी उस दौर गुजरी होती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये विचार, ये सवाल हमेशा उठते रहे हैं, लेकिन उनका हल हर पीढ़ी ने उतनी आसानी से नहीं निकाला है, लेकिन हर दौर के साथ माँ-बाप का रवैया अपने बच्चों के प्रति बदलता रहा है। अब वैसे माँ-बाप कम ही मिलते हैं, जो दिन भर अनुशासन का हंटर लिए उनके सिर पर सवार रहते हों। वो अब एक दोस्त और सच्चे हमराज की तरह उनका सुख-दु:ख और उनकी समस्याएँ बाँटने लगे हैं।

जब किसी घर में एक वयस्क होती बेटी और माँ को हँसी-ठिठोली करते हुए देखते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि जब ऐसा दोस्त घर पर आपके साथ है, तो फिर बाहर दोस्तों की तलाश करने की क्या आवश्यकता है? बेटी जिस जागरूकता के साथ अपने सौंदर्य की देखभाल करती है, उसी प्यार और दुलार से अपनी माँ पर भी कोई-न-कोई नुस्खा आजमाती रहती है। नए-नए व्यंजन बनाकर उन्हें खुश करने की कोशिश या फिर पर्व-त्योहार के मौके पर दौड़-दौड़कर उनके काम को आसान करने का प्रयास करना, ऐसी भावना और ऐसा दोस्ताना रिश्ता माँ-बेटी से इतर और कहाँ देखने को मिल सकता है। माँ भी अपने दिल के सारे दर्द खुलकर अपनी बेटी के साथ बाँटती है। इससे न केवल उनका मन हल्का होता, बल्कि उन्हें विश्वास हो जाता है कि कोई उनके इतने करीब है, जिससे वो अपने मन की सारी बातें खुलकर बता सकती हैं।

बेटा जब कॉलेज जाने की उम्र में पहुँचता है तो पिता उसकी भावनाएँ बेहतर समझ पाते हैं। बहुत से पिता अपने बेटे को बतौर सरप्राइज गाड़ी गिफ्ट करते हैं। कॉलेज का पहला दिन और अपना मनचाहा गिफ्ट पाकर अपने पिता के प्रति उसका प्यार और विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है। वह जब चहकते हूए घर लौटता है तो सबसे पहले अपने पिता को ही कॉलेज के पहले दिन के अनुभव के बारे में बताता है, क्योंकि उसे आभास हो जाता है कि उसके पिता से बेहतर उसे कोई और नहीं समझ सकता।

पिता का बेटे के साथ और माँ का अपनी बेटी के साथ यह दोस्ताना रवैया जहाँ एक ओर सुखद अहसास का अनुभव कराता है, वहीं यह परिवार का दृढ़ आधार-स्तंभ भी है।

**वेबदुनिया पोर्टल में प्रकाशित नीहारिका झा पांडेय का लेख, वहीं से साभार

शेष यादें...

लेखकः  नीहारिका झा पांडेय

बचपन के वो बेफिक्र दिन, जहाँ न खाने की चिंता और न ही कमाने की। अपनी ही दुनिया होती है, जिसमें बड़ों के लिए रत्‍तीभर जगह नहीं होती। वैसी बेफिक्री चाहकर भी हम दुबारा हासिल नहीं कर सकते। आज जब उन दिनों को याद करती हूँ तो मन एक अनजाने बोझ से दबने लगता है। स्‍कूल छोड़े तो एक अरसा हो गया, लेकिन आज भी वो यादें जेहन में ताजा हैं, क्‍योंकि जिस बेफिक्री की मैं बात कर रही हूँ, वो मेरे हिस्‍से कभी नहीं आई।

आज भी वो शोर मेरे कानों में गूँजते हैं। मैं पढ़ाई में विशेष तो नहीं थी, लेकिन हाँ अपनी मेहनत से खुद को पिछड़ने भी नहीं देती थी। शिक्षक की लाडली होने के लिए यही पर्याप्‍त नहीं था। कक्षा में प्रथम आना ही उसकी पहली कसोटी थी। जो कमजोर थे, उन्‍हें गिनता ही कौन था। वो तो संख्‍या बढ़ाने वाले धरती के बोझ थे, उनकी क्‍या बिसात। परीक्षाएँ होती रहीं, और मैं कक्षा-दर-कक्षा पास होती रही, लेकिन इस दौरान मैं कभी खास नहीं बन पाई। आखिरकार स्‍कूल में हमारी विदाई का दिन भी आ गया, प्रथम आने वाली वो 'खास' शिष्‍याएँ, उन्‍हें खासतौर से भविष्‍य निर्माण की घुटि्टयाँ पिलाई जा रही थीं।

कॉलेज आते-आते सबने अपनी-अपनी राह चुन ली। कोई डॉक्‍टरी करने के सपने सँजोने लगी, तो किसी ने मास्‍टरी को ही अपना लक्ष्‍य मान लिया। मैं स्‍नातक करने मुंबई चली गई, कॉलेज में स्‍कॉरशिप मिली और ऑस्‍ट्रेलिया के एक विश्‍वविद्यालय में पढ़ने का मौका मिला।

अब पूरे परिवार के साथ कनाडा में हूँ, यहीं कॉलेज में मुझे लेक्‍चररशिप मिल गई। मेरी इच्‍छा हुई कि उन खास लोगों के बारे में कुछ जानकारी मिले, क्‍योंकि जीवन में उन्‍हें खास ही मिला होगा। लेकिन यह जानकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि एक की शादी हो गई और उसने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी और एक उसी शहर में स्‍कूल टीचर हो गई है। यह जानकर थोड़ा सुकून भी हुआ, लेकिन स्‍कूल के दिनों की वो टीस आज भी ताजा हो उठती है।

एक टीस...."मैं पढ़ाई में विशेष तो नहीं थी, लेकिन हाँ अपनी मेहनत से खुद को पिछड़ने भी नहीं देती थी। शिक्षक की लाडली होने के लिए यही पर्याप्‍त नहीं था। कक्षा में प्रथम आना ही उसकी पहली कसोटी थी। जो कमजोर थे, उन्‍हें गिनता ही कौन था।"

शेष यादें...

लेखकः  नीहारिका झा पांडेय

बचपन के वो बेफिक्र दिन, जहाँ न खाने की चिंता और न ही कमाने की। अपनी ही दुनिया होती है, जिसमें बड़ों के लिए रत्‍तीभर जगह नहीं होती। वैसी बेफिक्री चाहकर भी हम दुबारा हासिल नहीं कर सकते। आज जब उन दिनों को याद करती हूँ तो मन एक अनजाने बोझ से दबने लगता है। स्‍कूल छोड़े तो एक अरसा हो गया, लेकिन आज भी वो यादें जेहन में ताजा हैं, क्‍योंकि जिस बेफिक्री की मैं बात कर रही हूँ, वो मेरे हिस्‍से कभी नहीं आई।

आज भी वो शोर मेरे कानों में गूँजते हैं। मैं पढ़ाई में विशेष तो नहीं थी, लेकिन हाँ अपनी मेहनत से खुद को पिछड़ने भी नहीं देती थी। शिक्षक की लाडली होने के लिए यही पर्याप्‍त नहीं था। कक्षा में प्रथम आना ही उसकी पहली कसोटी थी। जो कमजोर थे, उन्‍हें गिनता ही कौन था। वो तो संख्‍या बढ़ाने वाले धरती के बोझ थे, उनकी क्‍या बिसात। परीक्षाएँ होती रहीं, और मैं कक्षा-दर-कक्षा पास होती रही, लेकिन इस दौरान मैं कभी खास नहीं बन पाई। आखिरकार स्‍कूल में हमारी विदाई का दिन भी आ गया, प्रथम आने वाली वो 'खास' शिष्‍याएँ, उन्‍हें खासतौर से भविष्‍य निर्माण की घुटि्टयाँ पिलाई जा रही थीं।

कॉलेज आते-आते सबने अपनी-अपनी राह चुन ली। कोई डॉक्‍टरी करने के सपने सँजोने लगी, तो किसी ने मास्‍टरी को ही अपना लक्ष्‍य मान लिया। मैं स्‍नातक करने मुंबई चली गई, कॉलेज में स्‍कॉरशिप मिली और ऑस्‍ट्रेलिया के एक विश्‍वविद्यालय में पढ़ने का मौका मिला।

अब पूरे परिवार के साथ कनाडा में हूँ, यहीं कॉलेज में मुझे लेक्‍चररशिप मिल गई। मेरी इच्‍छा हुई कि उन खास लोगों के बारे में कुछ जानकारी मिले, क्‍योंकि जीवन में उन्‍हें खास ही मिला होगा। लेकिन यह जानकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि एक की शादी हो गई और उसने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी और एक उसी शहर में स्‍कूल टीचर हो गई है। यह जानकर थोड़ा सुकून भी हुआ, लेकिन स्‍कूल के दिनों की वो टीस आज भी ताजा हो उठती है।

एक टीस...."मैं पढ़ाई में विशेष तो नहीं थी, लेकिन हाँ अपनी मेहनत से खुद को पिछड़ने भी नहीं देती थी। शिक्षक की लाडली होने के लिए यही पर्याप्‍त नहीं था। कक्षा में प्रथम आना ही उसकी पहली कसोटी थी। जो कमजोर थे, उन्‍हें गिनता ही कौन था।"

Friday, February 4, 2011

मीडिया का भविष्य युवा ही तय करेंगे


लेख्नकः नीहारिका झा पांडेय


मीडिया का भविष्य और युवाऒं की भूमिका
मीडिया का भविष्य युवा ही तय करेंगे। समय की मांग युवा शक्ति है। जिस क्षेत्र में युवा काम करते हैं उसकी तरक्की देखकर आप मेरे तर्क को जान सकते हैं। इंजीनियरिंग आईटी और मैजेजमेंट तीनों की क्षेत्रों में युवा शक्ति ही काम कर रही है। उनसे काम लेने का सबसे बड़ा फायदा है ऊर्जा। कहने का मतलब यह कि युवा तेजी से काम करते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि उम्रदराज लोगों की क्षमताऒं को नकारा जा रहा है। उनका उपयोग अनुभवी के रूप में लिया जा सकता है। मसलन आप मीडिया में नजर डालें तो टीवी मीडिया तो युवा शक्ति पर ही टिका है। अधिकांश रिपोर्टर युवा हैं और ३०-३५ की उम्र के हैं। मीडिया जिस तेजी से आगे बढ़ रहा है उसके पीछे युवाऒं का हाथ ही है। चाहे वो संपादकीय विभाग के हों या फिर प्रबंधन से जुड़े हुए हों।

करियर 
मैंने मीडिया को सिर्फ एक पेशा मानती हूं। समय की मांग भी यही है कि बजाय किसी मिशन की बात करने के अगर हम अपने काम को ईमानदारी से अंजाम दें तो ज्यादा अच्छा होगा। मीडिया में काम करने का मेरा उद्देश्य अच्छा करियर बनाना है। इस पेशे से मैं अपनी जीविकोपार्जन करती हूं। साथ ही अपने काम को पूरी ईमानदारी से पूरा करना मेरी पहली प्राथमिकता हमेशा से रही है। चाहे कोई भी संस्थान हो। करियर को ध्यान में रखते हुए ही मैंने एक महीने पहले अपनी जॉब चेंज की है। यहां मेरे पास ज्यादा जिम्मेदारियां हैं।

मीडिया में अंतर
जब मैंने मीडिया को एक पेशे के रुप में चुना था उस वक्त कहा जाता था कि इस फील्ड में पैसे नहीं मिलते हैं। परिवार के लिए वक्त नहीं मिलता है। हालांकि शुरु के डेढ़ साल तो मैंने भी ऐसे ही काटे थे जब तनख्वाह आज के मुकाबले आधे से भी काफी कम थी। पर आज परिदृश्य काफी बदल गया है। अब इस क्षेत्र में पैसे बढ़ गए हैं। तकनीक में भी बदलाव आए हैं।

ब्लॉगिंग का भविष्य
ब्लागिंग अपनी भावनाऒं को जताने और मुद्दों पर चर्चा करने का सबसे अच्छा जरिया साबित हो रहा है। इसका भविष्य किसी पोर्टल और अखबार से ज्यादा उज्जवल है। यहां से लोग कम से कम बिना किसी डर के अपनी बात रख सकते हैं। मीडिय कहने को तो अभिव्यक्ति जताने का माध्यम है पर यहां मालिक की मर्जी और कंपनी की पॉलिसी के इतर काम करना यानि नौकरी से हाथ धोना। ऐसे में ब्लॉग वह जरिया है जिससे अपनी मन की बात और उन मुद्दों पर भी चर्चा और बहस की जा सकती है जो प्रोफेशनली नहीं की जा सकती है।

जिस तरह सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही हर चीज के दो पक्ष होते हैं एक तो पॉजिटिव और दूसरा नेगेटिव। ऐसा ही ब्लॉगिंग के साथ भी है। लोग इसका सदुपयोग करने के साथ ही दुरुपयोग भी करते हैं। मसलन दूसरों पर कीचड़ उछालना और अभद्र शब्दों का प्रयोग करना। अभिव्क्ति के इस माध्यम को ऐसी गंदगी से बचाना चाहिए। इस बातचीत के अंत में मैं एक बात कहना चाहूंगी कि कुछ लोग ब्लॉगिंग को अपनी ख्याति बढ़ाने के लिए उपयोग कर रहे हैं। हालांकि यह उनकी अपनी रुचि है कि वो अपने ब्लॉग पर क्या लिखें पर कम से कम इससे मानवता के मुद्दो को रोमांटीसाइज न किया जाए तो भी अच्छी तरह से ब्लॉगिंग की जा सकती है। मसलन आजकल स्त्री मुद्दों पर बड़ी शिद्दत के साथ लिखा जाता है कमेंट भी काबिले तारीफ आते हैं। पर कितने लोग ऐसे हैं जो वाकई वैसे ही हैं जैसा वो अपने आपको प्रोजेक्ट करते हैं।

मीडिया का भविष्य युवा ही तय करेंगे


लेख्नकः नीहारिका झा पांडेय


मीडिया का भविष्य और युवाऒं की भूमिका
मीडिया का भविष्य युवा ही तय करेंगे। समय की मांग युवा शक्ति है। जिस क्षेत्र में युवा काम करते हैं उसकी तरक्की देखकर आप मेरे तर्क को जान सकते हैं। इंजीनियरिंग आईटी और मैजेजमेंट तीनों की क्षेत्रों में युवा शक्ति ही काम कर रही है। उनसे काम लेने का सबसे बड़ा फायदा है ऊर्जा। कहने का मतलब यह कि युवा तेजी से काम करते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि उम्रदराज लोगों की क्षमताऒं को नकारा जा रहा है। उनका उपयोग अनुभवी के रूप में लिया जा सकता है। मसलन आप मीडिया में नजर डालें तो टीवी मीडिया तो युवा शक्ति पर ही टिका है। अधिकांश रिपोर्टर युवा हैं और ३०-३५ की उम्र के हैं। मीडिया जिस तेजी से आगे बढ़ रहा है उसके पीछे युवाऒं का हाथ ही है। चाहे वो संपादकीय विभाग के हों या फिर प्रबंधन से जुड़े हुए हों।

करियर 
मैंने मीडिया को सिर्फ एक पेशा मानती हूं। समय की मांग भी यही है कि बजाय किसी मिशन की बात करने के अगर हम अपने काम को ईमानदारी से अंजाम दें तो ज्यादा अच्छा होगा। मीडिया में काम करने का मेरा उद्देश्य अच्छा करियर बनाना है। इस पेशे से मैं अपनी जीविकोपार्जन करती हूं। साथ ही अपने काम को पूरी ईमानदारी से पूरा करना मेरी पहली प्राथमिकता हमेशा से रही है। चाहे कोई भी संस्थान हो। करियर को ध्यान में रखते हुए ही मैंने एक महीने पहले अपनी जॉब चेंज की है। यहां मेरे पास ज्यादा जिम्मेदारियां हैं।

मीडिया में अंतर
जब मैंने मीडिया को एक पेशे के रुप में चुना था उस वक्त कहा जाता था कि इस फील्ड में पैसे नहीं मिलते हैं। परिवार के लिए वक्त नहीं मिलता है। हालांकि शुरु के डेढ़ साल तो मैंने भी ऐसे ही काटे थे जब तनख्वाह आज के मुकाबले आधे से भी काफी कम थी। पर आज परिदृश्य काफी बदल गया है। अब इस क्षेत्र में पैसे बढ़ गए हैं। तकनीक में भी बदलाव आए हैं।

ब्लॉगिंग का भविष्य
ब्लागिंग अपनी भावनाऒं को जताने और मुद्दों पर चर्चा करने का सबसे अच्छा जरिया साबित हो रहा है। इसका भविष्य किसी पोर्टल और अखबार से ज्यादा उज्जवल है। यहां से लोग कम से कम बिना किसी डर के अपनी बात रख सकते हैं। मीडिय कहने को तो अभिव्यक्ति जताने का माध्यम है पर यहां मालिक की मर्जी और कंपनी की पॉलिसी के इतर काम करना यानि नौकरी से हाथ धोना। ऐसे में ब्लॉग वह जरिया है जिससे अपनी मन की बात और उन मुद्दों पर भी चर्चा और बहस की जा सकती है जो प्रोफेशनली नहीं की जा सकती है।

जिस तरह सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही हर चीज के दो पक्ष होते हैं एक तो पॉजिटिव और दूसरा नेगेटिव। ऐसा ही ब्लॉगिंग के साथ भी है। लोग इसका सदुपयोग करने के साथ ही दुरुपयोग भी करते हैं। मसलन दूसरों पर कीचड़ उछालना और अभद्र शब्दों का प्रयोग करना। अभिव्क्ति के इस माध्यम को ऐसी गंदगी से बचाना चाहिए। इस बातचीत के अंत में मैं एक बात कहना चाहूंगी कि कुछ लोग ब्लॉगिंग को अपनी ख्याति बढ़ाने के लिए उपयोग कर रहे हैं। हालांकि यह उनकी अपनी रुचि है कि वो अपने ब्लॉग पर क्या लिखें पर कम से कम इससे मानवता के मुद्दो को रोमांटीसाइज न किया जाए तो भी अच्छी तरह से ब्लॉगिंग की जा सकती है। मसलन आजकल स्त्री मुद्दों पर बड़ी शिद्दत के साथ लिखा जाता है कमेंट भी काबिले तारीफ आते हैं। पर कितने लोग ऐसे हैं जो वाकई वैसे ही हैं जैसा वो अपने आपको प्रोजेक्ट करते हैं।

हिन्‍दी दिवस क्‍यों मनाएँ हम?


नीहारिका झा पांडेय। तालियों की गड़गड़ाहट, शुद्ध हिन्‍दी में कविता पाठ, हिन्‍दी के भविष्‍य को लेकर लंबी-लंबी परिचर्चाएँ, हर वर्ष हिन्‍दी दिवस के दिन पूरे देश का लगभग यही माहौल रहता है। स्‍कूल-कॉलेजों में बच्‍चों के हाथों में लिखी तख्तियाँ मिल जाती हैं, जिस पर हिन्‍दी को सिरमौर भाषा साबित करने की पूरी जुगत होती है-'हिन्‍दी श्रेष्‍ठ है', 'हिन्‍दी को आगे लाएँ हम', 'हिन्‍दी देश का गौरव है' और न जाने कितने ऐसे ही संदेशों से स्‍कूल-कॉलेज अटे पड़े रहते हैं। देश में अब हिन्‍दी, हिन्‍दी अधिकारी के पदों को भरने और सरकारी स्‍कूलों की चहारदीवारी तक ही घुटकर रह गई।

विविधता वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्‍या है- भाषायी एकता की। आजादी के इतने वर्षों बाद भी मिजोरम, नगालैड जैसे उत्‍तर-पूर्वी राज्‍य खुद को हिन्‍दी से नहीं जोड़ पाए हैं। वहाँ समय-समय पर हिन्‍दी विरोधी स्‍वर उठते रहते हैं।

विविधता वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्‍या है- भाषायी एकता की। आजादी के इतने वर्षों बाद भी मिजोरम, नगालैड जैसे उत्‍तर-पूर्वी राज्‍य खुद को हिन्‍दी से नहीं जोड़ पाए हैं। वहाँ समय-समय पर हिन्‍दी विरोधी स्‍वर उठते रहते हैं। हम भले ही उनकी आवाज को अनसुना कर दें, लेकिन भाषा के स्‍तर पर आज भी देश एकमत नहीं है। उन्‍होंने कथित रूप से यह आवाज उठाई है कि- वे हिन्‍दी नहीं पढ़ना चाहते। अगर देखा जाए, तो यह विरोध निराधार भी नहीं। हिन्‍दी भाषी क्षेत्रों के साथ जिस तरह के दोयम दर्जे का व्‍यवहार होता है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता। आए दिन उन पर हमले होते हैं, कई राज्‍यों में उन्‍हें हिन्‍दी भाषी क्षेत्र का निवासी होने का दंश झेलना पड़ता है। अपने ही देश में उनसे प्रवासियों जैसा बर्ताव किया जाता है।

आज देश में हजारों हिन्‍दी अखबार छपते हैं, उनकी पहुँच भी करोड़ों लोगों तक है, लेकिन ये चाय की गुमटियों की शोभा बढ़ाते हैं या खोमचे वालों के काम आते हैं। ये मुट्‍ठीभर अँगरेजी पढ़ने और समझने वाले देश की दशा और दिशा तय करते हैं।

हिन्‍दी को कामकाज की भाषा बनाने की कितनी ही दलीलें क्‍यों न दी जाएँ, आज क्रीमीलेयर मानी जाने वाली नौकरियों में प्राथमिकता अँग्रेजी बोलने और जानने वालों को दी जाती है। उन सरकारी स्‍कूलों के छात्रों को नहीं, जहाँ उनकी किताबों से लेकर बातची‍त का माध्‍यम भी हिन्‍दी हो। उनकी आँखों में भी सपने दमकते हैं, लेकिन उन आँखों को हक नहीं होता उन्‍हें साकार करने का।

आज देश में हजारों हिन्‍दी अखबार छपते हैं, उनकी पहुँच भी करोड़ों लोगों तक है, लेकिन ये चाय की गुमटियों की शोभा बढ़ाते हैं या खोमचे वालों के काम आते हैं। ये मुट्‍ठीभर अँगरेजी पढ़ने और समझने वाले देश की दशा और दिशा तय करते हैं। मैनेजमेंट की डिग्री चाहिए या मेडिकल की, कानून की पढ़ाई करनी हो या फैशन की दुनिया में चमकना हो अँगरेजी की बैसाखी के बिना आप एक कदम नहीं चल सकते। कई कोर्सों की पहली शर्त ही अँगरेजी होती है। भले ही देश के हमारे प्रतिनिधि देश के बाहर हिन्‍दी में भाषण देते हों, लेकिन देश के अंदर हिन्‍दी आज भी अपनी पहचान तलाश रही है। ऐसे में हिन्‍दी दिवस का औचित्‍य बेमानी जान पड़ता है।

**वेबदुनिया पोर्टल में प्रकाशित नीहारिका झा पांडेय का लेख, वहीं से साभार

हिन्‍दी दिवस क्‍यों मनाएँ हम?


नीहारिका झा पांडेय। तालियों की गड़गड़ाहट, शुद्ध हिन्‍दी में कविता पाठ, हिन्‍दी के भविष्‍य को लेकर लंबी-लंबी परिचर्चाएँ, हर वर्ष हिन्‍दी दिवस के दिन पूरे देश का लगभग यही माहौल रहता है। स्‍कूल-कॉलेजों में बच्‍चों के हाथों में लिखी तख्तियाँ मिल जाती हैं, जिस पर हिन्‍दी को सिरमौर भाषा साबित करने की पूरी जुगत होती है-'हिन्‍दी श्रेष्‍ठ है', 'हिन्‍दी को आगे लाएँ हम', 'हिन्‍दी देश का गौरव है' और न जाने कितने ऐसे ही संदेशों से स्‍कूल-कॉलेज अटे पड़े रहते हैं। देश में अब हिन्‍दी, हिन्‍दी अधिकारी के पदों को भरने और सरकारी स्‍कूलों की चहारदीवारी तक ही घुटकर रह गई।

विविधता वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्‍या है- भाषायी एकता की। आजादी के इतने वर्षों बाद भी मिजोरम, नगालैड जैसे उत्‍तर-पूर्वी राज्‍य खुद को हिन्‍दी से नहीं जोड़ पाए हैं। वहाँ समय-समय पर हिन्‍दी विरोधी स्‍वर उठते रहते हैं।

विविधता वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्‍या है- भाषायी एकता की। आजादी के इतने वर्षों बाद भी मिजोरम, नगालैड जैसे उत्‍तर-पूर्वी राज्‍य खुद को हिन्‍दी से नहीं जोड़ पाए हैं। वहाँ समय-समय पर हिन्‍दी विरोधी स्‍वर उठते रहते हैं। हम भले ही उनकी आवाज को अनसुना कर दें, लेकिन भाषा के स्‍तर पर आज भी देश एकमत नहीं है। उन्‍होंने कथित रूप से यह आवाज उठाई है कि- वे हिन्‍दी नहीं पढ़ना चाहते। अगर देखा जाए, तो यह विरोध निराधार भी नहीं। हिन्‍दी भाषी क्षेत्रों के साथ जिस तरह के दोयम दर्जे का व्‍यवहार होता है, उससे इंकार नहीं किया जा सकता। आए दिन उन पर हमले होते हैं, कई राज्‍यों में उन्‍हें हिन्‍दी भाषी क्षेत्र का निवासी होने का दंश झेलना पड़ता है। अपने ही देश में उनसे प्रवासियों जैसा बर्ताव किया जाता है।

आज देश में हजारों हिन्‍दी अखबार छपते हैं, उनकी पहुँच भी करोड़ों लोगों तक है, लेकिन ये चाय की गुमटियों की शोभा बढ़ाते हैं या खोमचे वालों के काम आते हैं। ये मुट्‍ठीभर अँगरेजी पढ़ने और समझने वाले देश की दशा और दिशा तय करते हैं।

हिन्‍दी को कामकाज की भाषा बनाने की कितनी ही दलीलें क्‍यों न दी जाएँ, आज क्रीमीलेयर मानी जाने वाली नौकरियों में प्राथमिकता अँग्रेजी बोलने और जानने वालों को दी जाती है। उन सरकारी स्‍कूलों के छात्रों को नहीं, जहाँ उनकी किताबों से लेकर बातची‍त का माध्‍यम भी हिन्‍दी हो। उनकी आँखों में भी सपने दमकते हैं, लेकिन उन आँखों को हक नहीं होता उन्‍हें साकार करने का।

आज देश में हजारों हिन्‍दी अखबार छपते हैं, उनकी पहुँच भी करोड़ों लोगों तक है, लेकिन ये चाय की गुमटियों की शोभा बढ़ाते हैं या खोमचे वालों के काम आते हैं। ये मुट्‍ठीभर अँगरेजी पढ़ने और समझने वाले देश की दशा और दिशा तय करते हैं। मैनेजमेंट की डिग्री चाहिए या मेडिकल की, कानून की पढ़ाई करनी हो या फैशन की दुनिया में चमकना हो अँगरेजी की बैसाखी के बिना आप एक कदम नहीं चल सकते। कई कोर्सों की पहली शर्त ही अँगरेजी होती है। भले ही देश के हमारे प्रतिनिधि देश के बाहर हिन्‍दी में भाषण देते हों, लेकिन देश के अंदर हिन्‍दी आज भी अपनी पहचान तलाश रही है। ऐसे में हिन्‍दी दिवस का औचित्‍य बेमानी जान पड़ता है।

**वेबदुनिया पोर्टल में प्रकाशित नीहारिका झा पांडेय का लेख, वहीं से साभार