Saturday, August 21, 2010

भारतीय रुपए की विकास यात्रा

भारतीय रुपए के लिए 15 जुलाई, 2010 का दिन एक ऐतिहासिक दिन कहलाएगा। इसी दिन भारतीय रुपये को भी विष्व की अन्य प्रमुख मुद्राओं की भांति अलग पहचान मिली। डॉलर, यूरो, पौंड और येन की तरह अब रुपये को भी नया प्रतीक मिल गया है। रुपये का नया प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' को मिला कर बना है। अभी तक रुपये की अभिव्यक्ति विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग संक्षिप्ताक्षरों में की जाती थी।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई आई टी), मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट श्री डी. उदय कुमार द्वारा रचित रुपये के नए प्रतीक का अनुमोदन केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने 15 जुलाई को कर दिया। मंत्रिमंडल के निर्णय के बारे में पत्रकारों को जानकारी देते हुए केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने कहा कि भारतीय मुद्रा के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। यह प्रतीक भारतीय मुद्रा को एक विषिष्ट पहचान और चरित्र प्रदान करेगा। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया वैष्विक चेहरा पेष करने के अतिरिक्त उसे सुदृढ़ता भी प्रदान करेगा।

नया प्रतीक न तो नोटों पर छापा जाएगा और न ही उसे सिक्कों में ढाला जाएगा। इसे यूनिकोड स्टैंडर्ड' में शामिल किया जाएगा, ताकि यह सुनिष्चित किया जा सके कि इसे इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में आसानी से प्रदर्षित और मुद्रित किया जा सके। भारतीय मानक में रुपये के प्रतीक की इनकोडिंग (कूटांकन) में संभवत: 6 महीने का समय लगेगा, जबकि यूनिकोड और आई एस ओ#आई ई सी 10646 में इनकोडिंग के लिए डेढ़ से दो साल गने का अनुमान है। भारत में प्रयुक्त कीबोर्डों और साफ्टवेयर पैकेजों में इसे समाविष्ट किया जाएगा।

पांच मार्च 2009 को सरकार ने रुपये का प्रतीक चिह्न तैयार करने के लिए एक प्रतियोगिता की घोषणा की। भारतीय संस्कृति और स्वभाव को परिलक्षित और प्रतिबिम्बित करने वाली प्रविष्टियां देष भर से आमंत्रित की गईं। तीन हजार से अधिक प्रविष्टियां प्राप्त हुईं। जिनका मूल्यांकन भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर की अध्यक्षता वाले एक निर्णायक मंडल ने किया। निर्णायक मंडल में कला और अभिकल्पन संस्थाओं के तीन प्रतिष्ठित विशेषज्ञ भी शामिल थे। उसने पांच प्रविष्टियों का चुनाव कर अपनी टिप्पणियों के साथ अंतिम निर्णय के लिए सरकार के पास भेज दिया।

श्री उदय कुमार की प्रविष्टि को इन पांचों में सर्वश्रेष्ठ पाया गया। उन्हें ढाई लाख रुपये का पुरस्कार तो मिलेगा ही, बल्कि उससे भी अधिक रुपये के प्रतीक चिह्न की रचना करने वाले व्यक्ति के तौर पर भारी प्रसिध्दि भी मिलेगी। अपनी प्रविष्टि के चयन से प्रसन्न उदय ने कहा कि 'मेरी डिजाइन (रूपांकन) भारतीय (देवनागरी) लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' का आदर्श मिश्रण है। भारतीय रुपये का प्रतिनिधित्व करने वाला यह प्रतीक भारतीय और अन्तर्राष्ट्रीय (गुण ग्राहको) सभी को अपील करेगा। यह भारतीय तिरंगे से प्रेरित है। ऊपर दो लाइनें दी गई हैं और बीच में रिक्त स्थान रखा गया है।'

रुपया शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द 'रौप्य' से हुई है, जिसका अर्थ होता है, चांदी। भारतीय रुपये को हिंदी में 'रुपया,' गुजराती में रुपयों, तेलगू और कन्नड़ में 'रूपई', तमिल में 'रुबाई' और संस्कृत में 'रुप्यकम' कहा जाता है, परन्तु पूर्वी भारत में, बंगाल और असमिया में टका#टॉका और तथा ओड़िया में 'टंका' कहा जाता है।

भारत की गिनती उन गिने चुने देशों में होती है जिसने सबसे पहले सिक्के जारी किए। परिणामत: इसके इतिहास में अनेक मौद्रिक इकाइयों (मुद्राओं) का उल्लेख मिलता है। इस बात के कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं कि पहले सिक्के 2500 और 1750 ईसा पूर्व के बीच कभी जारी किए गए थे। परन्तु दस्तावेजी प्रभाव सातवीं#छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच सिक्कों की ढलाई के ही मिले हैं। इन सिक्कों के निर्माण की विशिष्ट तकनीक के कारण इन्हें पंच मार्क्ड सिक्के कहा जाता है।

अगली कुछ सदियों के दौरान जैसे-जैसे साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ तथा परम्पराओं का विकास हुआ, देश की मुद्राओं में इसका प्रगति-क्रम दिखाई देने लगा। इन मुद्राओं से प्राय: तत्कालीन राजवंश, सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं, आराहय देवों और प्रकृति का परिचय मिलता था। इनमें इंडो-ग्रीक (भारत-यूनान) काल के यूनानी देवताओं और उसके बाद के पश्चिमी क्षत्रप वाली तांबे की मुद्रायें शामिल हैं जो पहली और चौथी शताब्दी (ईसवीं) के दौरान जारी की गई थी।

अरबों ने 712 ईसवीं में भारत के सिंघ प्रांत को जीत कर उस पर अपना प्रमुख स्थापित किया। बारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के तुर्क सुल्तानों ने लंबे समय से चली आ रही अरबी डिजाइन को हटाकर उनके स्थान पर इस्लामी लिखावटों को मुद्रित कराया। इस मुद्रा को 'टंका' कहा जाता था। दिल्ली के सुल्तानों ने इस मौद्रिक प्रणाली का मानकीकरण करने का प्रयास किया और फिर बाद में सोने, चांदी और तांबे की मुद्राओं का प्रचलन शुरू हो गया।

सन् 1526 में मुगलों का शासन काल शुरू होने के बाद समूचे साम्राज्य में एकीकृत और सुगठित मौद्रिक प्रणाली की शुरूआत हुई। अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी (1540 से 1545) ने चांदी के 'रुपैये' अथवा रुपये के सिक्के की शुरूआत की। पूर्व-उपनिवेशकाल के भारत के राजे-रजवाड़ों ने अपनी अलग मुद्राओं की ढलाई करवाई, जो मुख्यत: चांदी के रुपये जैसे ही दिखती थीं, केवल उन पर उनके मूल स्थान (रियासतों) की क्षेत्रीय विशेषतायें भर अंकित होती थीं।

अट्ठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में, एजेंसी घरानों ने बैंको का विकास किया। बैंक ऑफ बंगाल, दि बैंक ऑफ हिन्दुस्तान, ओरियंटल बैंक कार्पोरेशन और दि बैंक ऑफ वेस्टर्न इंडिया इनमें प्रमुख थे। इन बैंकों ने अपनी अलग-अलग कागजी मुद्रायें-उर्दू, बंगला और देवनागरी लिपियों में मुद्रित करवाई।

लगभग सौ वर्षों तक निजी और प्रेसीडेंसी बैंकों द्वारा जारी बैंक नोटों का प्रचलन बना रहा, परन्तु 1961 के पेपर करेंसी कानून बनने के बाद इस पर केवल सरकार का एकाधिकार रह गया। ब्रिटिश सरकार ने बैंक नोटों के वितरण में मदद के लिए पहले तो प्रेसीडेंसी बैंकों को ही अपने एजेंट के रूप में नियुक्त किया, क्योंकि एक बड़े भू-भाग में सामान्य नोटों के इस्तेमाल को बढ़ाया देना एक दुष्कर कार्य था। महारानी विक्टोरिया के सम्मान में 1867 में पहली बार उनके चित्र की श्रृंखला वाले बैंक नोट जारी किए गए। ये नोट एक ही ओर छापे गए (यूनीफेस्ड) थे और पांच मूल्यों में जारी किए गए थे।

बैंक नोटों के मुद्रण और वितरण का दायित्व 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक के हाथ में आ गया। जार्ज पंचम के चित्र वाले नोटों के स्थान पर 1938 में जार्ज षष्ठम के चित्र वाले नोट जारी किए गए, जो 1947 तक प्रचलन में रहे। भारत की स्वतंत्रता के बाद उनकी छपाई बंद हो गई और सारनाथ के सिंहों के स्तम्भ वाले नोटों ने इन का स्थान ले लिया।

भारतीय रुपया 1957 तक तो 16 आनों में विभाजित रहा, परन्तु उसके बाद (1957) में ही उसने मुद्रा की दशमलव प्रणाली अपना ली और एक रुपये का पुनर्गन 100 समान पैसों में किया गया। महात्मा गांधी वाले कागजी नोटों की श्रृंखला की शुरूआत 1996 में हुई, जो आज तक चलन में है।

नकली मुद्रा की चुनौती से निपटने के लिए भारतीय रुपये के नोटों में सुरक्षा संबंधी अनेक विशेषताओं को समाहित किया गया है। नोटों के एक ओर सफेद वाले भाग में महात्मा गांधी का जल चिन्ह् (वाटर मार्क) बना हुआ है। सभी नोटों में चांदी का सुरक्षा धागा लगा हुआ है जिस पर अंग्रेजी में आर बी आई और हिंदी में भारत अंकित है। प्रकाष के सामने लाने पर इनको देखा जा सकता है। पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों में उनका मूल्य प्रकाष में परिवर्तनीय स्याही से लिखा हुआ है। धरती के समानान्तर रखने पर ये संख्या हरी दिखाई देती हैं परन्तु तिरछे या कोण से देखने पर नीले रंग में लिखी हुई दिखाई देती हैं।

भारतीय रुपये के नोट के भाषा पटल पर भारत की 22 सरकारी भाषााओं में से 15 में उनका मूल्य मुद्रित है। ऊपर से नीचे इनका क्रम इस प्रकार है-असमिया, बंगला, गुजराती, कन्नड़, कष्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी संस्कृत, तमिल, तेलुगु और उर्दू।

सरकारी मुद्रा को रुपया कहा जाता है, जो भारत, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, मॉरिषस, मालदीव और इंडोनेषिया सहित कई देषों में प्रचलित हैं। इन सभी देषों में भारतीय रुपया, मूल्य, स्वीकार्यता और लोकप्रियता के हिसाब से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

नया प्रतीक चिन्ह पाने के साथ ही भारतीय रुपया अब विष्व की प्रमुख मुद्राओं-डॉलर, यूरो, पौंड और येन के साथ आ खड़ा हुआ है। नया प्रतीक आत्मविष्वास से परिपूर्ण नए भारत के अभ्युदय का भी प्रतीक है, जो अब वैष्विक अर्थव्यवस्था में एक विषेष जगह बना चुका है।

पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट से साभार

भारतीय रुपए की विकास यात्रा

भारतीय रुपए के लिए 15 जुलाई, 2010 का दिन एक ऐतिहासिक दिन कहलाएगा। इसी दिन भारतीय रुपये को भी विष्व की अन्य प्रमुख मुद्राओं की भांति अलग पहचान मिली। डॉलर, यूरो, पौंड और येन की तरह अब रुपये को भी नया प्रतीक मिल गया है। रुपये का नया प्रतीक देवनागरी लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' को मिला कर बना है। अभी तक रुपये की अभिव्यक्ति विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग संक्षिप्ताक्षरों में की जाती थी।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई आई टी), मुम्बई के पोस्ट ग्रेजुएट श्री डी. उदय कुमार द्वारा रचित रुपये के नए प्रतीक का अनुमोदन केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने 15 जुलाई को कर दिया। मंत्रिमंडल के निर्णय के बारे में पत्रकारों को जानकारी देते हुए केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने कहा कि भारतीय मुद्रा के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। यह प्रतीक भारतीय मुद्रा को एक विषिष्ट पहचान और चरित्र प्रदान करेगा। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नया वैष्विक चेहरा पेष करने के अतिरिक्त उसे सुदृढ़ता भी प्रदान करेगा।

नया प्रतीक न तो नोटों पर छापा जाएगा और न ही उसे सिक्कों में ढाला जाएगा। इसे यूनिकोड स्टैंडर्ड' में शामिल किया जाएगा, ताकि यह सुनिष्चित किया जा सके कि इसे इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में आसानी से प्रदर्षित और मुद्रित किया जा सके। भारतीय मानक में रुपये के प्रतीक की इनकोडिंग (कूटांकन) में संभवत: 6 महीने का समय लगेगा, जबकि यूनिकोड और आई एस ओ#आई ई सी 10646 में इनकोडिंग के लिए डेढ़ से दो साल गने का अनुमान है। भारत में प्रयुक्त कीबोर्डों और साफ्टवेयर पैकेजों में इसे समाविष्ट किया जाएगा।

पांच मार्च 2009 को सरकार ने रुपये का प्रतीक चिह्न तैयार करने के लिए एक प्रतियोगिता की घोषणा की। भारतीय संस्कृति और स्वभाव को परिलक्षित और प्रतिबिम्बित करने वाली प्रविष्टियां देष भर से आमंत्रित की गईं। तीन हजार से अधिक प्रविष्टियां प्राप्त हुईं। जिनका मूल्यांकन भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर की अध्यक्षता वाले एक निर्णायक मंडल ने किया। निर्णायक मंडल में कला और अभिकल्पन संस्थाओं के तीन प्रतिष्ठित विशेषज्ञ भी शामिल थे। उसने पांच प्रविष्टियों का चुनाव कर अपनी टिप्पणियों के साथ अंतिम निर्णय के लिए सरकार के पास भेज दिया।

श्री उदय कुमार की प्रविष्टि को इन पांचों में सर्वश्रेष्ठ पाया गया। उन्हें ढाई लाख रुपये का पुरस्कार तो मिलेगा ही, बल्कि उससे भी अधिक रुपये के प्रतीक चिह्न की रचना करने वाले व्यक्ति के तौर पर भारी प्रसिध्दि भी मिलेगी। अपनी प्रविष्टि के चयन से प्रसन्न उदय ने कहा कि 'मेरी डिजाइन (रूपांकन) भारतीय (देवनागरी) लिपि के 'र' और रोमन लिपि के 'आर' का आदर्श मिश्रण है। भारतीय रुपये का प्रतिनिधित्व करने वाला यह प्रतीक भारतीय और अन्तर्राष्ट्रीय (गुण ग्राहको) सभी को अपील करेगा। यह भारतीय तिरंगे से प्रेरित है। ऊपर दो लाइनें दी गई हैं और बीच में रिक्त स्थान रखा गया है।'

रुपया शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द 'रौप्य' से हुई है, जिसका अर्थ होता है, चांदी। भारतीय रुपये को हिंदी में 'रुपया,' गुजराती में रुपयों, तेलगू और कन्नड़ में 'रूपई', तमिल में 'रुबाई' और संस्कृत में 'रुप्यकम' कहा जाता है, परन्तु पूर्वी भारत में, बंगाल और असमिया में टका#टॉका और तथा ओड़िया में 'टंका' कहा जाता है।

भारत की गिनती उन गिने चुने देशों में होती है जिसने सबसे पहले सिक्के जारी किए। परिणामत: इसके इतिहास में अनेक मौद्रिक इकाइयों (मुद्राओं) का उल्लेख मिलता है। इस बात के कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिले हैं कि पहले सिक्के 2500 और 1750 ईसा पूर्व के बीच कभी जारी किए गए थे। परन्तु दस्तावेजी प्रभाव सातवीं#छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच सिक्कों की ढलाई के ही मिले हैं। इन सिक्कों के निर्माण की विशिष्ट तकनीक के कारण इन्हें पंच मार्क्ड सिक्के कहा जाता है।

अगली कुछ सदियों के दौरान जैसे-जैसे साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ तथा परम्पराओं का विकास हुआ, देश की मुद्राओं में इसका प्रगति-क्रम दिखाई देने लगा। इन मुद्राओं से प्राय: तत्कालीन राजवंश, सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं, आराहय देवों और प्रकृति का परिचय मिलता था। इनमें इंडो-ग्रीक (भारत-यूनान) काल के यूनानी देवताओं और उसके बाद के पश्चिमी क्षत्रप वाली तांबे की मुद्रायें शामिल हैं जो पहली और चौथी शताब्दी (ईसवीं) के दौरान जारी की गई थी।

अरबों ने 712 ईसवीं में भारत के सिंघ प्रांत को जीत कर उस पर अपना प्रमुख स्थापित किया। बारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के तुर्क सुल्तानों ने लंबे समय से चली आ रही अरबी डिजाइन को हटाकर उनके स्थान पर इस्लामी लिखावटों को मुद्रित कराया। इस मुद्रा को 'टंका' कहा जाता था। दिल्ली के सुल्तानों ने इस मौद्रिक प्रणाली का मानकीकरण करने का प्रयास किया और फिर बाद में सोने, चांदी और तांबे की मुद्राओं का प्रचलन शुरू हो गया।

सन् 1526 में मुगलों का शासन काल शुरू होने के बाद समूचे साम्राज्य में एकीकृत और सुगठित मौद्रिक प्रणाली की शुरूआत हुई। अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी (1540 से 1545) ने चांदी के 'रुपैये' अथवा रुपये के सिक्के की शुरूआत की। पूर्व-उपनिवेशकाल के भारत के राजे-रजवाड़ों ने अपनी अलग मुद्राओं की ढलाई करवाई, जो मुख्यत: चांदी के रुपये जैसे ही दिखती थीं, केवल उन पर उनके मूल स्थान (रियासतों) की क्षेत्रीय विशेषतायें भर अंकित होती थीं।

अट्ठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में, एजेंसी घरानों ने बैंको का विकास किया। बैंक ऑफ बंगाल, दि बैंक ऑफ हिन्दुस्तान, ओरियंटल बैंक कार्पोरेशन और दि बैंक ऑफ वेस्टर्न इंडिया इनमें प्रमुख थे। इन बैंकों ने अपनी अलग-अलग कागजी मुद्रायें-उर्दू, बंगला और देवनागरी लिपियों में मुद्रित करवाई।

लगभग सौ वर्षों तक निजी और प्रेसीडेंसी बैंकों द्वारा जारी बैंक नोटों का प्रचलन बना रहा, परन्तु 1961 के पेपर करेंसी कानून बनने के बाद इस पर केवल सरकार का एकाधिकार रह गया। ब्रिटिश सरकार ने बैंक नोटों के वितरण में मदद के लिए पहले तो प्रेसीडेंसी बैंकों को ही अपने एजेंट के रूप में नियुक्त किया, क्योंकि एक बड़े भू-भाग में सामान्य नोटों के इस्तेमाल को बढ़ाया देना एक दुष्कर कार्य था। महारानी विक्टोरिया के सम्मान में 1867 में पहली बार उनके चित्र की श्रृंखला वाले बैंक नोट जारी किए गए। ये नोट एक ही ओर छापे गए (यूनीफेस्ड) थे और पांच मूल्यों में जारी किए गए थे।

बैंक नोटों के मुद्रण और वितरण का दायित्व 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक के हाथ में आ गया। जार्ज पंचम के चित्र वाले नोटों के स्थान पर 1938 में जार्ज षष्ठम के चित्र वाले नोट जारी किए गए, जो 1947 तक प्रचलन में रहे। भारत की स्वतंत्रता के बाद उनकी छपाई बंद हो गई और सारनाथ के सिंहों के स्तम्भ वाले नोटों ने इन का स्थान ले लिया।

भारतीय रुपया 1957 तक तो 16 आनों में विभाजित रहा, परन्तु उसके बाद (1957) में ही उसने मुद्रा की दशमलव प्रणाली अपना ली और एक रुपये का पुनर्गन 100 समान पैसों में किया गया। महात्मा गांधी वाले कागजी नोटों की श्रृंखला की शुरूआत 1996 में हुई, जो आज तक चलन में है।

नकली मुद्रा की चुनौती से निपटने के लिए भारतीय रुपये के नोटों में सुरक्षा संबंधी अनेक विशेषताओं को समाहित किया गया है। नोटों के एक ओर सफेद वाले भाग में महात्मा गांधी का जल चिन्ह् (वाटर मार्क) बना हुआ है। सभी नोटों में चांदी का सुरक्षा धागा लगा हुआ है जिस पर अंग्रेजी में आर बी आई और हिंदी में भारत अंकित है। प्रकाष के सामने लाने पर इनको देखा जा सकता है। पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों में उनका मूल्य प्रकाष में परिवर्तनीय स्याही से लिखा हुआ है। धरती के समानान्तर रखने पर ये संख्या हरी दिखाई देती हैं परन्तु तिरछे या कोण से देखने पर नीले रंग में लिखी हुई दिखाई देती हैं।

भारतीय रुपये के नोट के भाषा पटल पर भारत की 22 सरकारी भाषााओं में से 15 में उनका मूल्य मुद्रित है। ऊपर से नीचे इनका क्रम इस प्रकार है-असमिया, बंगला, गुजराती, कन्नड़, कष्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी संस्कृत, तमिल, तेलुगु और उर्दू।

सरकारी मुद्रा को रुपया कहा जाता है, जो भारत, भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, मॉरिषस, मालदीव और इंडोनेषिया सहित कई देषों में प्रचलित हैं। इन सभी देषों में भारतीय रुपया, मूल्य, स्वीकार्यता और लोकप्रियता के हिसाब से सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

नया प्रतीक चिन्ह पाने के साथ ही भारतीय रुपया अब विष्व की प्रमुख मुद्राओं-डॉलर, यूरो, पौंड और येन के साथ आ खड़ा हुआ है। नया प्रतीक आत्मविष्वास से परिपूर्ण नए भारत के अभ्युदय का भी प्रतीक है, जो अब वैष्विक अर्थव्यवस्था में एक विषेष जगह बना चुका है।

पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट से साभार

Sunday, August 8, 2010

खबरों से घबराता तंत्र

गिरीश मिश्र। आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे सिर चढ़कर बोल रहे हैं. मीडिया के हर रोज के खुलासे फिलहाल आरोपों की शक्ल में सुर्खियां बन रहे हैं. आईपीएल के ललित मोदी जैसी हालत सुरेश कलमाडी की भी हो गई है. संभव है कि मीडिया टनयल में कुछ ज्यादा ही प्रचार-दुष्प्रचार हो रहा हो, लेकिन लाखों-करोड़ों के स्पष्ट घोटाले जिस तरह से सामने आए हैं, उनमें से अनेक में तो कुछ कहने को भी नहीं रह जाता. जैसे एक लाख का टेन्ड मिल 10 लाख में, और वो भी किराए पर. चार हजार में टिश्यू पेपर का रोल, 40 हजार का एसी दो लाख रुपए में किराए पर, छह हजार में छतरी. आखिर ये क्या है? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़ी कुल सोलह परियोजनाओं की जांच की. पता चला है कि ज्यादातर में घटिया क्वालिटी का सामान लगा है. प्रोजेक्ट की लागत भी काफी बढाकर लगाई गई है. मजे की बात है कि पकड़े न जाएं, इसलिए परियोजना पूरी होने के जाली सर्टिफिकेट भी बनाए गए.

फर्जी विदेशी संस्थाओं को भी लाखों-करोड़ों का भुगतान किया गया है, जाहिर है नेता, नौकरशाह, दलाल, बिल्डर - सभी की विभिन्न स्तरों पर अनियमितता में मिलीभगत है. तो ये हालत है 50-55 दिनों बाद होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी की. मीडिया के खुलासे के बाद संसद में भी भारी हंगामा रहा. सरकार की ओर से सफाई पेश की जा रही है. शुक्रवार को जयपाल रेड्डी ने इसी क्रम में कहा कि वास्तविक खर्च साढे 11 हजार करोड़ का है, लाख या डेढ लाख का नहीं, जैसा कि मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है. शुक्र है कि रेड्डी साहब ने ये भी कहा कि सरकार इन मामलों की सीबीआई से भी जांच करा सकती है.

उधर, कलमाडी भी जांच की बात कर रहे हैं, लेकिन वो खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष पद को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उनका तर्क है कि ''इस खेल के आयोजन को दुनिया के सामने मैंने बच्चे की तरह पेश किया है. इसे किसी और की गलती के कारण मैं अधर में कैसे छोड़ सकता हूं. यह आयोजन मेरे लिए चुनौती जैसा है.'' लेकिन कलमाडीजी का ये भी कहना है कि यदि उनसे प्रधानमंत्री या पार्टी हाईकमान पद छोड़ने को कहेगा तो वो जरूर अध्यक्ष पद से हट जाएंगे. सवाल है कि जिस तरह के खुलासे हर रोज नई मिसाइल दागे जाने की तरह सामने आए हैं, उसके बाद कहने को क्या रह जाता है. वैसे भी राजनीति हो या सार्वजनिक जीवन, उसमें नैतिक संदर्भ को कहने की नहीं, समझने की जरूरत होती है. यह अलग बात है कि कोई इसे कितना समझता है और न समझने पर जनता को भी कभी-कभी समझाने की पहल करनी पड़ती है.

यह तो रही खेल, कलमाडी और उनसे जुडे़ लोगों को लेकर उठती सुर्खियों की चर्चा. लेकिन यहां गौरतलब ये है कि मीडिया, नई टेक्नोलॉजी और नई लोकतांत्रिक चाहत में बढता खबरों का दायरा अब उस माहौल की बात कर रहा है, जिसमें अब कुछ भी छिपा कर रखना मुश्किल होता जा रहा है. इधर बीच राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का लगातार खुलासा हुआ है, वह किसी से छुपा नहीं है.

करोड़ों-अरबों को पानी की तरह बहाने वाले ललित मोदी की सुर्खियों की स्याही सूखी भी न थी कि कर्नाटक-आंध्र में खनन माफिया रेड्डी बंधुओं और उनके सियासी, प्रशासनिक, व्यावसायिक गठजोड़ की परतें उघड़ने लगीं, लोग अभी दांतों तले उंगलियां दबा ही रहे थे कि राष्ट्रीय महिला हॉकी के कोच कौशिक का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया. रुचिका कांड में राठौड की संलिप्तता और कानून के शासन को ठेंगा चिढाते उनके सियासी-प्रशासनिक गठजोड़ के तार भी जब एक-एक कर उघड़ने लगे तो लोग चौंके ही नहीं थे, बल्कि लोगों का विश्वास बढा था जम्हूरियत में और उसकी रगों में रुधिर के रूप में दौड़ते उस मीडिया की ताकत में, जिसे अनेक बार बातचीत में बेसिर-पैर की खबरों को प्रचारित-प्रसारित करने वाला भी मान लिया जाता है.

आप क्या कहेंगे पिछले दिनों वेबसाइट विकीलीक्स द्वारा उजागर किए गए लगभग नब्बे हजार अमेरिकी रक्षा विभाग के दस्तावेजों के खुलासे पर. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तालिबानियों और दूसरे आतंकी संगठनों के रिश्तों की परतें तो उघड़ी ही है, साथ ही वाशिंगटन-इस्लामाबाद की उस गुप्त गठजोड़ की कलई भी खुली है, जिसकी ओर भारत लंबे समय से इशारा करता रहा है. दिलचस्प तो ये है कि इस खुलासे के बाद खुद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बयान दिया कि विकीलीक्स ने कुछ ऐसा नया नहीं कहा है, जो लोग पहले से न जानते हों.

सवाल है कि यदि अमेरिका पहले से ये सब जानता था तो औरों की छोड़ें, उसने खुद अपने राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में इसे रोका क्यों नहीं और दुनिया के सामने आतंक से लड़ने और उसके खिलाफ एकजुट होने की थोथी घोषणाएं क्यों कर रहा था? और, यदि वाशिंगटन इस खुलासे से वाकई चिंतित नहीं है तो क्यों उन 15 हजार दस्तावेजों को पेंटागन और एफबीआई अब विकीलीक्स से वापस मांग रहे हैं, जिनका खुलासा विकीलीक्स ने खुद व्यापक सुरक्षा के मद्देनजर नहीं किया था?

तो ये है खबरों की दुनिया की ताकत और सत्ता का चरित्र. जब दुनिया भर के अखबारों और मीडिया जगत में विकीलीक्स के हजारों दस्तावेजी खुलासे की चर्चा हो रही थी तो सत्ता में बैठे लोग इसे झुठलाने और बेकार की चीज बताने पर आमादा थे. लेकिन बाद में वही तंत्र अब इसकी वापसी की मांग कर रहा है और तर्क है कि इसके खुलासे से अफगानी जनता, वहां मौजूद अमेरिकी सेना और बहुतों की जान को खतरा हो सकता है तथा और भी व्यापक स्तर पर क्षति हो सकती है.

गौर करने की बात ये भी है कि अमेरिकी सरकार विकीलीक्स को धमका भी रही है कि यदि उसने 15 हजार दस्तावेजों को वापस नहीं किया तो सरकार उसे हासिल करने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार करेगी. गौर करने की बात है कि सत्ता का चरित्र कभी भी ऐसे खुलासे को बर्दाश्त नहीं कर पाता, जिसमें उसकी किसी भी कमी को उजागर किया गया हो. पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि यह गलत है, मनगढंत है. लेकिन जब सच्चाई की ताकत जोर पकड़ती है, तो झूठी अकड़ को भीगी बिल्ली बनते भी देखा जा सकता है. चाहे वो ललित मोदी हों, राठौड़ हों, कौशिक हों या फिर अमेरिकी सरकार और उस तंत्र पर काबिज शीर्षस्थ लोग.

लेकिन ऐसा लिखने का तात्पर्य ये भी नहीं है कि मीडिया कभी तिल का ताड़ नहीं बनाता या फिर गलत खबरें निहित स्वार्थ में नहीं उछालता. इस संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है कि मीडिया को खुद अपनी मर्यादा तय करनी होगी. विवेकजनित-संयम का परिचय भी देना होगा. और, यहां भी लोकतंत्र की अंतिम निर्णायक शक्ति जनता की चेतना को स्वीकार करना होगा, जो बहुत से मसलों पर अंतिम फैसले का हक रखने की तरह ही मीडिया पर भी मित्रवत नियंत्रण में सक्षम है. बात चूंकि मीडिया की हो रही है और हाल की खबरों के जरिए लोकतांत्रिक कलेवर की मजबूती की भी. ऐसे में एक और खबर का जिक्र करना चाहूंगा कि सेना में खराब राशन का मामला उजागर होने के तीन दिनों बाद ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने इसी शुक्रवार को तीन हजार करोड़ की अनियमितताओं का भी खुलासा किया है. यह घोटाला संवेदनशील हथियारों की खरीद में किया गया है.

तो बात चाहे सेना की हो या लाखों टन अनाज के गोदामों में सड़ने की, खेल की तैयारियों के नाम पर घोटालों की हो या फिर सत्ता मद में भ्रष्ट या किसी निर्दोष की जान से खेलने के आचरण की या फिर एक ध्रुवीय दुनिया के शिखर पर बैठे देश के झूठे प्रवचनों की कलई खोलने की - लोकतंत्र की जीवंतता के लिए खबरों की दुनिया का सचेत रहना उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी जीव के लिए ऑक्सीजन की अपरिहार्यता. काश! इस तथ्य को सत्ता मद का चरित्र भी समझ पाता. लेकिन बढती लोकतांत्रिक समझ और जागरूकता में इतनी कामना तो हम कर ही सकते हैं कि सभ्य और सुशिक्षित होती दुनिया वक्त के साथ जहां उच्श्रृंखलत छोड़ थोड़ी मर्यादा और संयम की ओर बढेगी, वहीं मीडिया की आलोचना को सुधारात्मक दवा समझ फ्रेंडली लेना भी सीख जाएगी.

और अंत में-

इस वास्ते उठाई है
तेरी बुराइयां
डरता हूं कि और न
तुझसे बुरा मिले.
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लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं। उनका यह लेख  'लोकमत समाचार' से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीशजी से girishmisra@lokmat.com पर संपर्क किया जा सकता है। आपका पन्ना ने यह लेख भड़ास4मीडिया डॉट कॉम से साभार लिया है।

खबरों से घबराता तंत्र

गिरीश मिश्र। आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे सिर चढ़कर बोल रहे हैं. मीडिया के हर रोज के खुलासे फिलहाल आरोपों की शक्ल में सुर्खियां बन रहे हैं. आईपीएल के ललित मोदी जैसी हालत सुरेश कलमाडी की भी हो गई है. संभव है कि मीडिया टनयल में कुछ ज्यादा ही प्रचार-दुष्प्रचार हो रहा हो, लेकिन लाखों-करोड़ों के स्पष्ट घोटाले जिस तरह से सामने आए हैं, उनमें से अनेक में तो कुछ कहने को भी नहीं रह जाता. जैसे एक लाख का टेन्ड मिल 10 लाख में, और वो भी किराए पर. चार हजार में टिश्यू पेपर का रोल, 40 हजार का एसी दो लाख रुपए में किराए पर, छह हजार में छतरी. आखिर ये क्या है? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़ी कुल सोलह परियोजनाओं की जांच की. पता चला है कि ज्यादातर में घटिया क्वालिटी का सामान लगा है. प्रोजेक्ट की लागत भी काफी बढाकर लगाई गई है. मजे की बात है कि पकड़े न जाएं, इसलिए परियोजना पूरी होने के जाली सर्टिफिकेट भी बनाए गए.

फर्जी विदेशी संस्थाओं को भी लाखों-करोड़ों का भुगतान किया गया है, जाहिर है नेता, नौकरशाह, दलाल, बिल्डर - सभी की विभिन्न स्तरों पर अनियमितता में मिलीभगत है. तो ये हालत है 50-55 दिनों बाद होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी की. मीडिया के खुलासे के बाद संसद में भी भारी हंगामा रहा. सरकार की ओर से सफाई पेश की जा रही है. शुक्रवार को जयपाल रेड्डी ने इसी क्रम में कहा कि वास्तविक खर्च साढे 11 हजार करोड़ का है, लाख या डेढ लाख का नहीं, जैसा कि मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है. शुक्र है कि रेड्डी साहब ने ये भी कहा कि सरकार इन मामलों की सीबीआई से भी जांच करा सकती है.

उधर, कलमाडी भी जांच की बात कर रहे हैं, लेकिन वो खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष पद को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उनका तर्क है कि ''इस खेल के आयोजन को दुनिया के सामने मैंने बच्चे की तरह पेश किया है. इसे किसी और की गलती के कारण मैं अधर में कैसे छोड़ सकता हूं. यह आयोजन मेरे लिए चुनौती जैसा है.'' लेकिन कलमाडीजी का ये भी कहना है कि यदि उनसे प्रधानमंत्री या पार्टी हाईकमान पद छोड़ने को कहेगा तो वो जरूर अध्यक्ष पद से हट जाएंगे. सवाल है कि जिस तरह के खुलासे हर रोज नई मिसाइल दागे जाने की तरह सामने आए हैं, उसके बाद कहने को क्या रह जाता है. वैसे भी राजनीति हो या सार्वजनिक जीवन, उसमें नैतिक संदर्भ को कहने की नहीं, समझने की जरूरत होती है. यह अलग बात है कि कोई इसे कितना समझता है और न समझने पर जनता को भी कभी-कभी समझाने की पहल करनी पड़ती है.

यह तो रही खेल, कलमाडी और उनसे जुडे़ लोगों को लेकर उठती सुर्खियों की चर्चा. लेकिन यहां गौरतलब ये है कि मीडिया, नई टेक्नोलॉजी और नई लोकतांत्रिक चाहत में बढता खबरों का दायरा अब उस माहौल की बात कर रहा है, जिसमें अब कुछ भी छिपा कर रखना मुश्किल होता जा रहा है. इधर बीच राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग का लगातार खुलासा हुआ है, वह किसी से छुपा नहीं है.

करोड़ों-अरबों को पानी की तरह बहाने वाले ललित मोदी की सुर्खियों की स्याही सूखी भी न थी कि कर्नाटक-आंध्र में खनन माफिया रेड्डी बंधुओं और उनके सियासी, प्रशासनिक, व्यावसायिक गठजोड़ की परतें उघड़ने लगीं, लोग अभी दांतों तले उंगलियां दबा ही रहे थे कि राष्ट्रीय महिला हॉकी के कोच कौशिक का कच्चा चिट्ठा सामने आ गया. रुचिका कांड में राठौड की संलिप्तता और कानून के शासन को ठेंगा चिढाते उनके सियासी-प्रशासनिक गठजोड़ के तार भी जब एक-एक कर उघड़ने लगे तो लोग चौंके ही नहीं थे, बल्कि लोगों का विश्वास बढा था जम्हूरियत में और उसकी रगों में रुधिर के रूप में दौड़ते उस मीडिया की ताकत में, जिसे अनेक बार बातचीत में बेसिर-पैर की खबरों को प्रचारित-प्रसारित करने वाला भी मान लिया जाता है.

आप क्या कहेंगे पिछले दिनों वेबसाइट विकीलीक्स द्वारा उजागर किए गए लगभग नब्बे हजार अमेरिकी रक्षा विभाग के दस्तावेजों के खुलासे पर. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तालिबानियों और दूसरे आतंकी संगठनों के रिश्तों की परतें तो उघड़ी ही है, साथ ही वाशिंगटन-इस्लामाबाद की उस गुप्त गठजोड़ की कलई भी खुली है, जिसकी ओर भारत लंबे समय से इशारा करता रहा है. दिलचस्प तो ये है कि इस खुलासे के बाद खुद राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बयान दिया कि विकीलीक्स ने कुछ ऐसा नया नहीं कहा है, जो लोग पहले से न जानते हों.

सवाल है कि यदि अमेरिका पहले से ये सब जानता था तो औरों की छोड़ें, उसने खुद अपने राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में इसे रोका क्यों नहीं और दुनिया के सामने आतंक से लड़ने और उसके खिलाफ एकजुट होने की थोथी घोषणाएं क्यों कर रहा था? और, यदि वाशिंगटन इस खुलासे से वाकई चिंतित नहीं है तो क्यों उन 15 हजार दस्तावेजों को पेंटागन और एफबीआई अब विकीलीक्स से वापस मांग रहे हैं, जिनका खुलासा विकीलीक्स ने खुद व्यापक सुरक्षा के मद्देनजर नहीं किया था?

तो ये है खबरों की दुनिया की ताकत और सत्ता का चरित्र. जब दुनिया भर के अखबारों और मीडिया जगत में विकीलीक्स के हजारों दस्तावेजी खुलासे की चर्चा हो रही थी तो सत्ता में बैठे लोग इसे झुठलाने और बेकार की चीज बताने पर आमादा थे. लेकिन बाद में वही तंत्र अब इसकी वापसी की मांग कर रहा है और तर्क है कि इसके खुलासे से अफगानी जनता, वहां मौजूद अमेरिकी सेना और बहुतों की जान को खतरा हो सकता है तथा और भी व्यापक स्तर पर क्षति हो सकती है.

गौर करने की बात ये भी है कि अमेरिकी सरकार विकीलीक्स को धमका भी रही है कि यदि उसने 15 हजार दस्तावेजों को वापस नहीं किया तो सरकार उसे हासिल करने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार करेगी. गौर करने की बात है कि सत्ता का चरित्र कभी भी ऐसे खुलासे को बर्दाश्त नहीं कर पाता, जिसमें उसकी किसी भी कमी को उजागर किया गया हो. पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि यह गलत है, मनगढंत है. लेकिन जब सच्चाई की ताकत जोर पकड़ती है, तो झूठी अकड़ को भीगी बिल्ली बनते भी देखा जा सकता है. चाहे वो ललित मोदी हों, राठौड़ हों, कौशिक हों या फिर अमेरिकी सरकार और उस तंत्र पर काबिज शीर्षस्थ लोग.

लेकिन ऐसा लिखने का तात्पर्य ये भी नहीं है कि मीडिया कभी तिल का ताड़ नहीं बनाता या फिर गलत खबरें निहित स्वार्थ में नहीं उछालता. इस संदर्भ में तो यही कहा जा सकता है कि मीडिया को खुद अपनी मर्यादा तय करनी होगी. विवेकजनित-संयम का परिचय भी देना होगा. और, यहां भी लोकतंत्र की अंतिम निर्णायक शक्ति जनता की चेतना को स्वीकार करना होगा, जो बहुत से मसलों पर अंतिम फैसले का हक रखने की तरह ही मीडिया पर भी मित्रवत नियंत्रण में सक्षम है. बात चूंकि मीडिया की हो रही है और हाल की खबरों के जरिए लोकतांत्रिक कलेवर की मजबूती की भी. ऐसे में एक और खबर का जिक्र करना चाहूंगा कि सेना में खराब राशन का मामला उजागर होने के तीन दिनों बाद ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने इसी शुक्रवार को तीन हजार करोड़ की अनियमितताओं का भी खुलासा किया है. यह घोटाला संवेदनशील हथियारों की खरीद में किया गया है.

तो बात चाहे सेना की हो या लाखों टन अनाज के गोदामों में सड़ने की, खेल की तैयारियों के नाम पर घोटालों की हो या फिर सत्ता मद में भ्रष्ट या किसी निर्दोष की जान से खेलने के आचरण की या फिर एक ध्रुवीय दुनिया के शिखर पर बैठे देश के झूठे प्रवचनों की कलई खोलने की - लोकतंत्र की जीवंतता के लिए खबरों की दुनिया का सचेत रहना उतना ही जरूरी है, जितना किसी भी जीव के लिए ऑक्सीजन की अपरिहार्यता. काश! इस तथ्य को सत्ता मद का चरित्र भी समझ पाता. लेकिन बढती लोकतांत्रिक समझ और जागरूकता में इतनी कामना तो हम कर ही सकते हैं कि सभ्य और सुशिक्षित होती दुनिया वक्त के साथ जहां उच्श्रृंखलत छोड़ थोड़ी मर्यादा और संयम की ओर बढेगी, वहीं मीडिया की आलोचना को सुधारात्मक दवा समझ फ्रेंडली लेना भी सीख जाएगी.

और अंत में-

इस वास्ते उठाई है
तेरी बुराइयां
डरता हूं कि और न
तुझसे बुरा मिले.
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लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं। उनका यह लेख  'लोकमत समाचार' से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीशजी से girishmisra@lokmat.com पर संपर्क किया जा सकता है। आपका पन्ना ने यह लेख भड़ास4मीडिया डॉट कॉम से साभार लिया है।