Friday, May 14, 2010

रोने की राजनीति

कल एक खबर देखने और पढ़ने में आई कि मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी जी सदन में आचरण और टिप्पणी से परेशान होकर रो दिए। उन्हें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कई दूसरे मंत्रियों व नेताओं ने ढांढ़स बंधाया तब कहीं जाकर मामला संभला। रोने के इस समाचार को राज्य के लगभग सभी समाचार पत्रों और कुछ राष्ट्रीय स्तर के खबरिया चैनलों ने भी तवज्जो दी।

अभी रोहाणी जी का रोना हुआ ही था कि आज फिर एक खबर आई कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जी के सुपुत्र और मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री अजय सिंह उर्फ राहुल भैया के अश्क भी बेकाबू हो गए थे। वो भी अठारह साल पुरानी एक घटना को याद करके।

लेकिन साहब, क्या वाकई ये नेता इतने ज्यादा संवेदनशील होते हैं कि इन्हें ऐसी बातों से रोना आ जाए, जिनसे इनका सीधे-सीधे कोई लेना देना नहीं होता। यदि वाकई रोना आता होता हो तब आता जब भोपाल में गैस त्रासदी हुई थी, जिसमें हजारो बेकसूर लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। रोना आता तो गरीबी और असहाय लोगों को देखकर आता जिनके वास्ते इन नेताओं के पास योजनाओं का भंडार है, पर आजतक कितनी योजनाओं का लाभ पहुंचा है।

रोना तब आता जब ऐसे लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं और ये कैमरों के सामने मुस्कुराकर बत्तीसी दिखाते हुए कहते हैं कि जांच करवा लो। साबित हो जाए तब कहना। मानो चुनौती दे रहे हों कि करवा लो कितनी जांच करवानी है।

रोना तब आना चाहिए जब अपने हक की मांग कर रहे लोगों पर लाठीचार्ज होता है। इस तरह से कैमरे के सामने रोने वालों को कुछ और ही कहा जाता है। मेरा ख्याल है कि आप सभी ने घडियाली आंसुओं का नाम तो सुना ही होगा।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष या पूर्व पंचायत मंत्री ही कैमरे के सामने रोए हैं। देश में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जिन्होंने ऐसा किया है। पिछले ही वर्ष अप्रैल में उत्तरप्रदेश के बलिया में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह भी सभामंच पर ही फूट फूटकर रोने लगे थे। इसी साल फरवरी में सुषमा स्वराज ने कहा था कि उनको आज भी प्याज को देखकर रोना आता है, क्योंकि इसी प्याज की वजह से दिल्ली सत्ता से भाजपा को हाथ धोना पड़ा था। और तो और पिछले वर्ष सितंबर में उत्तरप्रदेश के रामपुर के दौरे पर पहुंची अभिनेत्री और सांसद जयाप्रदा को भी वहां के लोगों की हालत देखकर रोना आया था।


ऐसे ही बाबरी मस्जिद ढहाने के मुद्दे पर कल्याण सिंह भी आंसू बहा चुके हैं। उन्हें इस बात का दुख था कि उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में यह घटना हुई थी। हालांकि उन्हें यह बात समाजवादी पार्टी में शामिल होते वक्त ही याद आई थी। इसी प्रकार से जसवंत सिंह की आंखों से भी अश्क छलक चुके हैं।

लेकिन क्या रोने से सबकुछ ठीक हो जाएगा। ये राजनीति रुला रही है या राजनीति के लिए रोया जा रहा है। खैर ये बातें तो पुरानी ढपली पुराना राग हो चुकी हैं। क्योंकि हमारे नेता यदि वाकई इतने संवेदनशील होते तो भ्रष्टाचार इस कदर न पनपा होता। यहां पर यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि पाठकगण इसे राजनीति से प्रेरित न मानें, मन में था सो शब्दों के रूप में बाहर आ गया। बाकी हमारे पाठक समझदार हैं। वो जानते हैं कि नेता कब और क्यों रोते हैं।

2 comments:

  1. saahab ghadiyaali aansu hai...asli aansu to tab nikle jab dard ho...ye kya jaane dard kya hota hai...

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  2. हां भाई साहब। लेकिन इन नेताओं के क्या कहने कहीं भी नेतागिरी करने से नहीं चूकते हैं। और हमारे प्यारे देशवासी हर पांच साल में इनके बहकावे में आ जाते हैं।

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