Wednesday, July 13, 2011

बंद करिए जनता को मूर्ख बनाना

1993 से लेकर 2011 तक देश की आर्थिक राजधानी मुंबई ने 9 बार इंसानियत को छलनी कर देने वाले धमाके देखे हैं। आज़ाद भारत के इतिहास को देखें तो किसी एक ही शहर ने इतने दंश नहीं झेले हैं, जितने इस जीवंत शहर ने झेले हैं। इन धमाकों का शिकार कोई देश, प्रांत या शहर नहीं बल्कि इंसानियत होती है। धमाकों का शोर और धुंआ छटने के बाद आंसू, दुख, रक्तरंजित लाशें और कभी न भुलाया जा सकने वाला दर्द बचता है। दर्द किसी को खोने का, असमय किसी के चले जाने का।

Cartoon courtsey: Hindustan Times tooningin
इन सबसे इतर एक कौम और है, जो इस दर्द पर नमक रूपी मरहम लगाती रहती है और वो है नेताओं की कौम। वो नेता जो सरकार चलाते हैं, जिनके मातहत प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियां काम करती हैं, जो जनता को सुरक्षा का वादा देकर अपनी सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर लेते हैं। ऐसे धमाके और हमले उन्हें नहीं हमें हताहत करते हैं।

न जाने क्यों, पर जब कल (13 जुलाई 2011) शाम को मुंबई में फिर से सिलसिलेवार धमाकों की खबर मिली तो 2008 वाली घटना की याद ताजा हो गई। मन में दुख और गुस्सा दोनों उठा। दुख उन बेकसूरों के लिए जिन्होंने बिना वजह अपनी जानें गंवाईं और गुस्सा उस नकारा तंत्र के लिए, जो हर बार ऐसी घटना के बाद अपनी झूठी और मक्कार जुबान से एक ही बात दोहराने के लिए तैयार हो जाता है। चाहे एनडीए की सरकार रही हो या फिर यूपीए की, जनता ने हमेशा सुरक्षा और विकास के बारे में सोचा है। यह अलग बात है कि सरकार नाम का रथ जिसे भी हांकने को मिलता है, वो केवल अपनी जेब और राजनीतिक हित ही देख पाता है। इससे आगे की उसकी दृष्टि कमजोर हो जाती है। शायद दिखाई भी न देता हो।

जिन्हें धमाका करना था, वो तो अपने मकसद में कामयाब हो गए, पीछे छोड़ गए नेताओं को, कुछ इस तरह के वक्तव्य देने के लिए मशहूर हैं “यह कायराना कदम है” “हम ऐसे हमले की निंदा करते हैं” “दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा” “हम अंतरराष्ट्रीय मंच के द्वारा पाकिस्तान पर दबाव बनाएंगे” “पाकिस्तान को आरोपियों की सूची और सबूत दिए जाएंगे” “ऐसी घटनाओं से भारत डरने वाला नहीं है और मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा” “हमारी फौज हर तरह के हमलों के लिए तैयार है….” वगैरह-वगैरह। ये अलग बात है कि होता कुछ नहीं है। अगर वाकई कुछ होना होता तो बार-बार ऐसी घटनाएं होती ही क्यों?

देश के नेताओं की यह आदत बन चुकी है कि घटना होते ही तुरंत एक संगठन या देश पर आरोप मढ़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लो। बाकी जांच वांच के लिए तो दर्जनों एजेंसियां और विभाग हैं, जहां लोगों को कुर्सी तोड़ने और चापलूसी से फुरसत मिले तो शायद वो अपने काम के बारे में भी सोचें।

हमारा तंत्र “न कुछ करेंगे और न करने देंगे” की तर्ज पर काम करता है। संसद पर हमले के बाद सेना को हमले के लिए तैयार कर दिया गया, लेकिन आखिरी समय पर संयम का राग बजने लगा। इन हमलों के पीछे के चाहे पाकिस्तान आरोपी हो या फिर कोई पाक प्रायोजित आतंकी संगठन, वो अच्छी तरह जान चुके हैं कि भारत में कभी भी कहीं भी कुछ भी किया जा सकता है। इसलिए जब भी एजेंसियां और पुलिस पुख्ता व्यवस्थाओं का दंभ भरने लगते हैं, तभी इस तरह की घटनाएं हो जाती हैं। शायद ये देशवासियों को आईना दिखाने के लिए।

बंद करिए जनता को मूर्ख बनाना

1993 से लेकर 2011 तक देश की आर्थिक राजधानी मुंबई ने 9 बार इंसानियत को छलनी कर देने वाले धमाके देखे हैं। आज़ाद भारत के इतिहास को देखें तो किसी एक ही शहर ने इतने दंश नहीं झेले हैं, जितने इस जीवंत शहर ने झेले हैं। इन धमाकों का शिकार कोई देश, प्रांत या शहर नहीं बल्कि इंसानियत होती है। धमाकों का शोर और धुंआ छटने के बाद आंसू, दुख, रक्तरंजित लाशें और कभी न भुलाया जा सकने वाला दर्द बचता है। दर्द किसी को खोने का, असमय किसी के चले जाने का।

Cartoon courtsey: Hindustan Times tooningin
इन सबसे इतर एक कौम और है, जो इस दर्द पर नमक रूपी मरहम लगाती रहती है और वो है नेताओं की कौम। वो नेता जो सरकार चलाते हैं, जिनके मातहत प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियां काम करती हैं, जो जनता को सुरक्षा का वादा देकर अपनी सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर लेते हैं। ऐसे धमाके और हमले उन्हें नहीं हमें हताहत करते हैं।

न जाने क्यों, पर जब कल (13 जुलाई 2011) शाम को मुंबई में फिर से सिलसिलेवार धमाकों की खबर मिली तो 2008 वाली घटना की याद ताजा हो गई। मन में दुख और गुस्सा दोनों उठा। दुख उन बेकसूरों के लिए जिन्होंने बिना वजह अपनी जानें गंवाईं और गुस्सा उस नकारा तंत्र के लिए, जो हर बार ऐसी घटना के बाद अपनी झूठी और मक्कार जुबान से एक ही बात दोहराने के लिए तैयार हो जाता है। चाहे एनडीए की सरकार रही हो या फिर यूपीए की, जनता ने हमेशा सुरक्षा और विकास के बारे में सोचा है। यह अलग बात है कि सरकार नाम का रथ जिसे भी हांकने को मिलता है, वो केवल अपनी जेब और राजनीतिक हित ही देख पाता है। इससे आगे की उसकी दृष्टि कमजोर हो जाती है। शायद दिखाई भी न देता हो।

जिन्हें धमाका करना था, वो तो अपने मकसद में कामयाब हो गए, पीछे छोड़ गए नेताओं को, कुछ इस तरह के वक्तव्य देने के लिए मशहूर हैं “यह कायराना कदम है” “हम ऐसे हमले की निंदा करते हैं” “दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा” “हम अंतरराष्ट्रीय मंच के द्वारा पाकिस्तान पर दबाव बनाएंगे” “पाकिस्तान को आरोपियों की सूची और सबूत दिए जाएंगे” “ऐसी घटनाओं से भारत डरने वाला नहीं है और मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा” “हमारी फौज हर तरह के हमलों के लिए तैयार है….” वगैरह-वगैरह। ये अलग बात है कि होता कुछ नहीं है। अगर वाकई कुछ होना होता तो बार-बार ऐसी घटनाएं होती ही क्यों?

देश के नेताओं की यह आदत बन चुकी है कि घटना होते ही तुरंत एक संगठन या देश पर आरोप मढ़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लो। बाकी जांच वांच के लिए तो दर्जनों एजेंसियां और विभाग हैं, जहां लोगों को कुर्सी तोड़ने और चापलूसी से फुरसत मिले तो शायद वो अपने काम के बारे में भी सोचें।

हमारा तंत्र “न कुछ करेंगे और न करने देंगे” की तर्ज पर काम करता है। संसद पर हमले के बाद सेना को हमले के लिए तैयार कर दिया गया, लेकिन आखिरी समय पर संयम का राग बजने लगा। इन हमलों के पीछे के चाहे पाकिस्तान आरोपी हो या फिर कोई पाक प्रायोजित आतंकी संगठन, वो अच्छी तरह जान चुके हैं कि भारत में कभी भी कहीं भी कुछ भी किया जा सकता है। इसलिए जब भी एजेंसियां और पुलिस पुख्ता व्यवस्थाओं का दंभ भरने लगते हैं, तभी इस तरह की घटनाएं हो जाती हैं। शायद ये देशवासियों को आईना दिखाने के लिए।

Monday, July 11, 2011

प्रीत नहीं थी जहां की रीत कभी…


चित्र: पोस्ट ऑन पॉलिटिक्स ब्लॉग से साभार
आज आपको एक ऐसे देश के बारे में बताना चाह रहा हूं, जिसके बारे में शायद आपको काफी कुछ पता होगा। मसलन यह बहुत ही महान देश है, विविधता में एकता इसकी खासियत रही है साथ ही शांति एवं संयम तो यहां की आबो-हवा में घुली हुई हैं। ये सब कुछ ऐसे तर्क हैं जो बचपन से ही किताबों तथा गाथाओं और किवदंतियों के माध्यम से हमें घुट्टी की तरह पिलाए गए हैं। तो ये कहानी है उस देश की जिसे, भारत, इंडिया और हिंदुस्तान जैसे नामों से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां के लोग शांतिप्रिय, साफ दिल वाले तथा ईमानदार होते हैं।

ये तो रही वो बातें जो हम अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हुए खुद ही कहते हैं तथा इसकी सार्थकता बढ़ाने के लिए इन बातों को स्कूल व कॉलेजों के माध्यम में भी फैलाया जाता है। महाभारत जैसे महाकाव्य तथा रामायण को पूजते हैं। भगवतगीता की मिसालें देते हैं तथा केवल कर्म करने जैसी पाखंडी बातों को बोलते हुए हमारी जुबानें कभी नहीं थकती हैं। जबकि हकीकत में इन सब बातों से शायद ही लेना देना हो किसी का। अब ज़रा ज़मीनी हकीक़त पर नज़र दौड़ाते हैं।

पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सटे गुड़गांव के एक गांव में गांववालों ने एक शख्स को सरेआम जलाकर मार डाला। इस शख्स पर गांव के सरपंच की हत्या का आरोप था। यह घटना पुलिस के सामने ही घटित हुई थी। इस प्रकार की घटनाएं आए दिन देश में होती रहती हैं। जनता तो जनता कई बार पुलिस वाले भी आरोपी के साथ ऐसा कृत्य करते हैं, जिससे इंसानियत शर्मसार हो जाए। हरियाणा, यूपी और बिहार की पुलिस ने तो ऐसे कारनामों में रिकॉर्ड कायम कर रखा है। खुद को शांतिप्रिय कहने वाले ऐसी हरकतें करते हैं क्या?

ये हमारा ही देश है, जहां पर दुनिया के किसी भी अन्य मुल्क के मुकाबले सबसे ज्यादा कन्या भ्रूण हत्याएं की जाती हैं। इसके बाद इज्ज़त व मूंछ के नाम पर होने वाली ऑनर किलिंग इसमें चार चांद लगाती है। भ्रष्टाचार तो मानों एक लाइलाज बीमारी बन चुका है। सत्ता का मद नेताओं में कानून का भय कम कर चुका है। अनेकता में एकता जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। यदि विश्वास न हो तो बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा महाराष्ट्र जैसे राज्यों की स्थिति देखिए। यहां पर जाति तथा क्षेत्रवाद का बोलबाला है। यदि ऐसा न होता तो हम आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, उड़ीसा, जैसे राज्यों के रहवासियों को “साउथ इंडियन” नाम की संज्ञा न देते। यदि आप कभी ध्यान दें तो पाएंगे कि लोग दूसरे प्रदेश के लोगों का परिचय कुछ इस अंदाज में देते हैं, कि “मैं फलां बंदे को जानत हूं, वो मराठी है/ उडिया है/ मद्रासी या अन्ना है/ पंजाबी है” आदि।

देश की एकता में मतभेद के सैकड़ों छेद हैं। कुछ महीनों पहले महाराष्ट्र की दो पार्टियों महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना तथा शिवसेना ने उत्तर भारतीयों को “भैया” कहते हुए प्रदेश से खदेड़ने की मुहिम छेड़ रखी थी। एक बार तो दिल्ली की मुख्यमंत्री ने भी कह डाला था कि बाहर से आकर रहने वाले लोगों की वजह से दिल्ली में अपराध बढ़ रहे हैं। तो ये है हमारी एकता और अखंडता। देश में आम नागरिकों जिनमें गरीब भी शामिल हैं के अलावा कोई ऐसा नहीं है, जो कानून से डरता हो। खासकर के नेता, नौकरशाह और रसूखदार प्राणी। उनका यह मानना है कि वो सड़क पर चलकर और इस देश् में रहकर अहसान कर रहे हैं इसलिए उन्हें कुछ भी करने विशेषाधिकार प्राप्त है।

...और तो और कानून बनाने वालों ने कानून की देवी की आंखों में पट्टी इसलिए बांधी थी, ताकि वो शुद्ध न्याय कर सके, लेकिन वही पट्टी उसके लिए बाधा साबित हो रही है। इस पट्टी का फायदा उठाते हुए प्रभावशाली लोग कानून की पहुंच से बाहर चले जाते हैं। फंसते हैं तो कमजोर या फिर ऐसे लोग जिन्हें बचाना जरूरी न हो। मसलन राजनीतिक रूप से किसी को ठिकाने लगाना हो तब भी कानून का सहारा लिया जाता है। हालांकि ए. राजा, कनिमोझी और कुछ अपवाद भी कानून के शिकंजे में हैं। लेकिन मनु शर्मा और पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर जैसे लोग भी हैं, जो कानून के सहारे ही कानून से बचते रहे हैं।

हमारा समाज भी अत्यंत की दोहरे चरित्र वाला है। हो सकता है कि मेरी इस बात से गिनती के लोग ही सहमत हों, पर मैं तब भी अपनी बात पर अटल हूं कि हम दोहरे मापदंडों पर जीने वाले लोग हैं। या फिर कुछ ऐसे कहें कि हम चाहते तो सब हैं, पर खुद कुछ नहीं करना चाहते हैं। मसलन “भगत सिंह पैदा हों, पर हमारे नहीं पड़ोसी के घर पर…”। जी हां, यही है हमारी मानसिकता। हम में से अधिकांश लोग दिन में कम से कम दर्जनों बार दफ्तर के बाहर, सड़कों पर और बाजारों में अपशब्दों का प्रयोग करते हुए लोगों को सुनते ही होंगे। तो तरह-तरह के अलंकरणों के साथ बात करते हैं। बावजूद इसके सार्वजनिक रूप से ऐसी बातों को स्वीकारना हमें पसंद नहीं है। समाज की गंदगी जब किताबों में या पर्दे पर दिखाई जाती है तो आंदोलन करने के बेताब लोग झंडे-बैनर लेकर विरोध करने के लिए उतर जाते हैं।

ऐसे लोगों को क्या कहा जाए? खैर, ये जो भड़ास मैंने शब्दों के माध्यम से कागज पर उकेरी है, उसका सिर्फ एक ही मकसद है कि हम इस मुगालतों में जीना छोड़कर सच्चाई का सामना करें। आगे मर्जी आपकी। धन्यवाद….