Tuesday, May 25, 2010

सज़ा का मज़ा (संक्रामक बीमारी)

आखिरकार रुचिका के साथ छेड़छाड़ करने तथा उसे आत्महत्या के लिए उकसाने वाले आला पुलिस अफसर एसपीएस राठौर (रिटायर्ड) को अदालत ने गुनाहगार मान ही लिया। इसी के साथ यह भी जाहिर को गया कि भले ही हमारे देश के कानून रूपी भगवान के घर में देर है लेकिन अंधेर नहीं।

आरोपी एसपीएस राठौर को अपनी मुस्कुराहट काफी महंगी पड़ी। पिछली बार निचली अदालत ने जब उन्हें सिर्फ छह महीने की सजा सुनाई थी और जमानत पर छोड़ दिया था, तो वो अदालत से बाहर आते वक्त अपनी खीसें निपोरे हुए थे। नतीजा यह कि लोगों में आक्रोश बढ़ गया, क्योंकि एक तो नाम की सजा उस पर ऐसी हरकत। मानों सबको चिढ़ा रहे हों कि देख लो मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा।

खैर उच्च अदालत ने मामले को सही अंजाम तक पहुंचा दिया। लेकिन अब एक चिंता और है और वह है कि क्या वाकई राठौर जेल तक पहुंचेंगे। या फिर वो भी ‘बीमार’ हो जाएंगे। क्योंकि हमारे देश में बीमारी अदालत द्वारा सजा मुकर्रर करने के बाद बहुत जल्दी पकड़ती है।

पिछले कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां नेताओं ओर बाहुबलियों को सजा सुनते ही बीमारी ने जकड़ लिया। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो कई ऐसे माननीय और बाहुबली आज भी सरकारी दामादी काट रहे हैं।

खैर इस पर तो कुछ कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि यह सुविधा तो तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। अव्वल तो किसी ताकतवर पर मामला दर्ज नहीं होता है, और अगर ऐसा हो भी गया तो बरसों बरस सुनावाई चलती है। फिर जाकर यदि सजा हुई तो बीमारी तुरंत जकड़ती है।

सज़ा का मज़ा (संक्रामक बीमारी)

आखिरकार रुचिका के साथ छेड़छाड़ करने तथा उसे आत्महत्या के लिए उकसाने वाले आला पुलिस अफसर एसपीएस राठौर (रिटायर्ड) को अदालत ने गुनाहगार मान ही लिया। इसी के साथ यह भी जाहिर को गया कि भले ही हमारे देश के कानून रूपी भगवान के घर में देर है लेकिन अंधेर नहीं।

आरोपी एसपीएस राठौर को अपनी मुस्कुराहट काफी महंगी पड़ी। पिछली बार निचली अदालत ने जब उन्हें सिर्फ छह महीने की सजा सुनाई थी और जमानत पर छोड़ दिया था, तो वो अदालत से बाहर आते वक्त अपनी खीसें निपोरे हुए थे। नतीजा यह कि लोगों में आक्रोश बढ़ गया, क्योंकि एक तो नाम की सजा उस पर ऐसी हरकत। मानों सबको चिढ़ा रहे हों कि देख लो मेरा कोई क्या बिगाड़ेगा।

खैर उच्च अदालत ने मामले को सही अंजाम तक पहुंचा दिया। लेकिन अब एक चिंता और है और वह है कि क्या वाकई राठौर जेल तक पहुंचेंगे। या फिर वो भी ‘बीमार’ हो जाएंगे। क्योंकि हमारे देश में बीमारी अदालत द्वारा सजा मुकर्रर करने के बाद बहुत जल्दी पकड़ती है।

पिछले कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां नेताओं ओर बाहुबलियों को सजा सुनते ही बीमारी ने जकड़ लिया। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो कई ऐसे माननीय और बाहुबली आज भी सरकारी दामादी काट रहे हैं।

खैर इस पर तो कुछ कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि यह सुविधा तो तंत्र का हिस्सा बन चुकी है। अव्वल तो किसी ताकतवर पर मामला दर्ज नहीं होता है, और अगर ऐसा हो भी गया तो बरसों बरस सुनावाई चलती है। फिर जाकर यदि सजा हुई तो बीमारी तुरंत जकड़ती है।

Monday, May 17, 2010

अब भी नहीं जागे तो कभी नहीं जाग पाएंगे


हमारे देश के गृह मंत्री जी का कहना है कि उनके पास सीमित संसाधन हैं, नक्सलियों के खिलाफ उपयोग करने के लिए। बताइए, अगर नक्सलियों का ही सामना नहीं कर पाएंगे तो आतंकवादियों और शत्रु देशों का क्या करेंगे। कुल जमा बात यह कि हमारे देश की यह परंपरा है कि जब तक आग बेकाबू न हो जाए तब तक पानी नहीं डालना चाहिए। कहावत तो है कि आग लगाकर पानी को दौड़ना या फिर आग लगने पर पानी को दौड़ना। लेकिन अब यह बदल चुकी है। अब कहा जा सकता है कि आग लगे तो सोचो कि अगर खुद ही बुझ जाए तो ठीक और अगर नहीं बुझती है तब सोचेंगे कि कैसे बुझाई जाए। 

नक्सवाद नासूर की तरह फैलता ही जा रहा है। देश की प्रभुसत्ता को चुनौती दे रहा है। विकास में बाधा बन रहा है। बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतार रहा है। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहा है। आखिर राज्य सरकार और केंद्र सरकार के कान में जूं क्यों नहीं रेंगे रही है। अगर सरकार के पास ही संसाधन सीमित हैं तो फिर किससे मदद की उम्मीद की जाए। देश के लोगों की रक्षा और सुरक्षित जीवन यापन सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन समस्या तो यह है कि हमारे देश में हर मुद्दे को राजनीति के चश्मे से ही देखा जाता है। चाहे इसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
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इस खबर को पढि़ए और जरा सरकार की शोचनीय स्थिति पर भी गौर करिए।



तारीख : 6 अप्रैल 2010
* नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल [सीआरपीएफ] की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद..

तारीख : 8 मई 2010
* बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई..

तारीख : 16 मई 2010
* राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया..

..ये वे तारीखें हैं, जो पिछले एक माह में नक्सलियों के लगातार हमलों और सुरक्षा बलों के जवानों या आम आदमी के खून से 'लाल' हुई हैं। इन्हीं तारीखों में एक कड़ी सोमवार 17 मई 2010 की भी जुड़ गई। नक्सलियों ने एक बार फिर राज्य और केंद्र के सत्ता प्रतिष्ठानों को चुनौती देते हुए दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग से एक यात्री बस को उड़ा दिया। इस हमले में बस में सवार 50 यात्रियों की मौत हो गई। मरने वालों में 20 विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ]भी थे। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार द्वारा उन आम लोगों को एसपीओ का दर्जा दिया जाता है, जो नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष में राज्य पुलिस के सहयोग के लिए सहमत होते हैं। पुलिस जरूरी प्रारंभिक प्रशिक्षण देकर एसपीओ तैयार करती है।

पुलिस के मुताबिक, शाम करीब 4 बजकर 45 मिनट पर दंतेवाड़ा जिले के गड़ीरास ने भुसारास बीच सुकमा से दंतेवाड़ा जा रही यात्री बस को नक्सलियों ने निशाना बनाया। बारूदी सुरंग को पक्की सड़क के नीचे दबाया गया था और नक्सलियों ने इसमें रिमोट कंट्रोल के जरिए विस्फोट किया। यह हमला नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में 48 घंटे के बंद की घोषणा के एक दिन बाद किया गया है। बंद की घोषणा केंद्र द्वारा नक्सलियों के खिलाफ छेड़े गए अभियान के विरोध में की गई है। रायपुर से करीब 450 किलोमीटर दूर किए गए इस हमले में नक्सलियों ने जिलेटिन की छड़ वाली विस्फोटक प्रणाली का इस्तेमाल किया।

विस्फोट इतना जबरदस्त था कि बस कई फुट दूर उछलकर चली गई और क्षत विक्षत मानव अंग सड़क के किनारे पड़े नजर आए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने 35 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की है हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय में विशेष सचिव आंतरिक सुरक्षा [उत्थान कुमार बंसल] ने मरने वालों की संख्या ज्यादा होने की बात स्वीकार की है। वैसे, बस में 65 से 70 व्यक्तियों के सवार होने की क्षमता थी। रमण सिंह ने इस घटना को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदंबरम से बातचीत की है और मंगलवार को वह दिल्ली पहुंच रहे हैं।

मानकों का फिर उल्लंघन
इस घटना में मानक नियमों के उल्लंघन की बात भी सामने आई है। मानकों के अनुसार पुलिसकर्मियों और विशेष पुलिस अधिकारियों को असैन्य वाहन में सफर करना प्रतिबंधित है। जबकि निशाना बनाई गई बस में विशेष पुलिस अधिकारी आम यात्रियों के साथ मौजूद थे।

घटना की निंदा
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस हमले की निंदा की है और कहा है कि इसमें मारे गए ज्यादातर लोग आम नागरिक हैं। राज्य के सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी [भाजपा] के प्रवक्ता सैयद शाहनवाज हुसैन ने दिल्ली में कहा, 'यह एक बर्बर हमला है और भाजपा इसकी कड़े शब्दों में निंदा करती है। सरकार को इस चुनौती से पूरी ताकत के साथ निपटना चाहिए।'

प्रमुख नक्सली हमले
29 जून 2008- उड़ीसा के बालीमेला जलाशय में नक्सलियों ने एक नाव पर सवार चार विशेष पुलिस अधिकारियों व 60 ग्रेहाउंड कमांडो पर हमला किया। 38 जवान मारे गए।


16 जून 2008- उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस वैन को उड़ाया। 21 पुलिसकर्मियों की मौत।

13 अप्रैल 2009- उड़ीसा के कोरापुट जिले में बाक्साइट की एक खान पर हमला। अ‌र्द्धसैनिक बल के 10 जवान शहीद।

22 मई 2009- महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के जंगल में 16 पुलिसकर्मियों की हत्या।

10 जून 2009- झारखंड के सारंदा के जंगलों में नियमित पेट्रोलिंग के दौरान सुरक्षा बलों पर हमला। नौ पुलिसकर्मी मारे गए जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल थे।

13 जून 2009-झारखंड में बोकारो के पास एक छोटे से कस्बे में बारूदी सुरंग की चपेट में आकर 10 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए।

27 जुलाई 2009-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर छह लोगों की हत्या।

26 सितंबर 2009- छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के परागुडा गांव में भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के बेटे की हत्या कर दी।

8 अक्टूबर 2009-महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में पुलिस चौकी पर हमला। 17 पुलिसकर्मी मारे गए।

15 फरवरी 2010-पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सिलदा में एक पुलिस कैंप पर हमला। इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के 24 जवान शहीद।

4 अप्रैल 2010-उड़ीसा के कोराटपुर जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर नक्सल विरोधी विशेष बल के 11 जवानों की हत्या कर दी।

6 अप्रैल 2010-अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद।

8 मई 2010-छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने एक बुलेटप्रूफ वाहन उड़ाया। सीआरपीएफ के आठ जवान मारे गए।

16 मई 2010- राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।

खबरः दैनिक जागरण डॉट कॉम से साभार

अब भी नहीं जागे तो कभी नहीं जाग पाएंगे


हमारे देश के गृह मंत्री जी का कहना है कि उनके पास सीमित संसाधन हैं, नक्सलियों के खिलाफ उपयोग करने के लिए। बताइए, अगर नक्सलियों का ही सामना नहीं कर पाएंगे तो आतंकवादियों और शत्रु देशों का क्या करेंगे। कुल जमा बात यह कि हमारे देश की यह परंपरा है कि जब तक आग बेकाबू न हो जाए तब तक पानी नहीं डालना चाहिए। कहावत तो है कि आग लगाकर पानी को दौड़ना या फिर आग लगने पर पानी को दौड़ना। लेकिन अब यह बदल चुकी है। अब कहा जा सकता है कि आग लगे तो सोचो कि अगर खुद ही बुझ जाए तो ठीक और अगर नहीं बुझती है तब सोचेंगे कि कैसे बुझाई जाए। 

नक्सवाद नासूर की तरह फैलता ही जा रहा है। देश की प्रभुसत्ता को चुनौती दे रहा है। विकास में बाधा बन रहा है। बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतार रहा है। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहा है। आखिर राज्य सरकार और केंद्र सरकार के कान में जूं क्यों नहीं रेंगे रही है। अगर सरकार के पास ही संसाधन सीमित हैं तो फिर किससे मदद की उम्मीद की जाए। देश के लोगों की रक्षा और सुरक्षित जीवन यापन सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन समस्या तो यह है कि हमारे देश में हर मुद्दे को राजनीति के चश्मे से ही देखा जाता है। चाहे इसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
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इस खबर को पढि़ए और जरा सरकार की शोचनीय स्थिति पर भी गौर करिए।



तारीख : 6 अप्रैल 2010
* नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में मकराना के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल [सीआरपीएफ] की एक टुकड़ी पर हमला किया, 76 जवान शहीद..

तारीख : 8 मई 2010
* बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के बुलेट प्रूफ वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, 7 जवानों की मौत हो गई..

तारीख : 16 मई 2010
* राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया..

..ये वे तारीखें हैं, जो पिछले एक माह में नक्सलियों के लगातार हमलों और सुरक्षा बलों के जवानों या आम आदमी के खून से 'लाल' हुई हैं। इन्हीं तारीखों में एक कड़ी सोमवार 17 मई 2010 की भी जुड़ गई। नक्सलियों ने एक बार फिर राज्य और केंद्र के सत्ता प्रतिष्ठानों को चुनौती देते हुए दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग से एक यात्री बस को उड़ा दिया। इस हमले में बस में सवार 50 यात्रियों की मौत हो गई। मरने वालों में 20 विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ]भी थे। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार द्वारा उन आम लोगों को एसपीओ का दर्जा दिया जाता है, जो नक्सलियों के खिलाफ संघर्ष में राज्य पुलिस के सहयोग के लिए सहमत होते हैं। पुलिस जरूरी प्रारंभिक प्रशिक्षण देकर एसपीओ तैयार करती है।

पुलिस के मुताबिक, शाम करीब 4 बजकर 45 मिनट पर दंतेवाड़ा जिले के गड़ीरास ने भुसारास बीच सुकमा से दंतेवाड़ा जा रही यात्री बस को नक्सलियों ने निशाना बनाया। बारूदी सुरंग को पक्की सड़क के नीचे दबाया गया था और नक्सलियों ने इसमें रिमोट कंट्रोल के जरिए विस्फोट किया। यह हमला नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में 48 घंटे के बंद की घोषणा के एक दिन बाद किया गया है। बंद की घोषणा केंद्र द्वारा नक्सलियों के खिलाफ छेड़े गए अभियान के विरोध में की गई है। रायपुर से करीब 450 किलोमीटर दूर किए गए इस हमले में नक्सलियों ने जिलेटिन की छड़ वाली विस्फोटक प्रणाली का इस्तेमाल किया।

विस्फोट इतना जबरदस्त था कि बस कई फुट दूर उछलकर चली गई और क्षत विक्षत मानव अंग सड़क के किनारे पड़े नजर आए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने 35 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की है हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय में विशेष सचिव आंतरिक सुरक्षा [उत्थान कुमार बंसल] ने मरने वालों की संख्या ज्यादा होने की बात स्वीकार की है। वैसे, बस में 65 से 70 व्यक्तियों के सवार होने की क्षमता थी। रमण सिंह ने इस घटना को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदंबरम से बातचीत की है और मंगलवार को वह दिल्ली पहुंच रहे हैं।

मानकों का फिर उल्लंघन
इस घटना में मानक नियमों के उल्लंघन की बात भी सामने आई है। मानकों के अनुसार पुलिसकर्मियों और विशेष पुलिस अधिकारियों को असैन्य वाहन में सफर करना प्रतिबंधित है। जबकि निशाना बनाई गई बस में विशेष पुलिस अधिकारी आम यात्रियों के साथ मौजूद थे।

घटना की निंदा
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस हमले की निंदा की है और कहा है कि इसमें मारे गए ज्यादातर लोग आम नागरिक हैं। राज्य के सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी [भाजपा] के प्रवक्ता सैयद शाहनवाज हुसैन ने दिल्ली में कहा, 'यह एक बर्बर हमला है और भाजपा इसकी कड़े शब्दों में निंदा करती है। सरकार को इस चुनौती से पूरी ताकत के साथ निपटना चाहिए।'

प्रमुख नक्सली हमले
29 जून 2008- उड़ीसा के बालीमेला जलाशय में नक्सलियों ने एक नाव पर सवार चार विशेष पुलिस अधिकारियों व 60 ग्रेहाउंड कमांडो पर हमला किया। 38 जवान मारे गए।


16 जून 2008- उड़ीसा के मलकानगिरी जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस वैन को उड़ाया। 21 पुलिसकर्मियों की मौत।

13 अप्रैल 2009- उड़ीसा के कोरापुट जिले में बाक्साइट की एक खान पर हमला। अ‌र्द्धसैनिक बल के 10 जवान शहीद।

22 मई 2009- महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के जंगल में 16 पुलिसकर्मियों की हत्या।

10 जून 2009- झारखंड के सारंदा के जंगलों में नियमित पेट्रोलिंग के दौरान सुरक्षा बलों पर हमला। नौ पुलिसकर्मी मारे गए जिसमें सीआरपीएफ के जवान भी शामिल थे।

13 जून 2009-झारखंड में बोकारो के पास एक छोटे से कस्बे में बारूदी सुरंग की चपेट में आकर 10 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई और कई घायल हो गए।

27 जुलाई 2009-छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर छह लोगों की हत्या।

26 सितंबर 2009- छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले के परागुडा गांव में भाजपा सांसद बलिराम कश्यप के बेटे की हत्या कर दी।

8 अक्टूबर 2009-महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में पुलिस चौकी पर हमला। 17 पुलिसकर्मी मारे गए।

15 फरवरी 2010-पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिले के सिलदा में एक पुलिस कैंप पर हमला। इस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के 24 जवान शहीद।

4 अप्रैल 2010-उड़ीसा के कोराटपुर जिले में बारूदी सुरंग में विस्फोट कर नक्सल विरोधी विशेष बल के 11 जवानों की हत्या कर दी।

6 अप्रैल 2010-अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद।

8 मई 2010-छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने एक बुलेटप्रूफ वाहन उड़ाया। सीआरपीएफ के आठ जवान मारे गए।

16 मई 2010- राजनांदगांव के तेरेगांव के नजदीक नक्सलियों ने मुखबिरी के आरोप में सरपंच सहित छह ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया।

खबरः दैनिक जागरण डॉट कॉम से साभार

Friday, May 14, 2010

रोने की राजनीति

कल एक खबर देखने और पढ़ने में आई कि मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी जी सदन में आचरण और टिप्पणी से परेशान होकर रो दिए। उन्हें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कई दूसरे मंत्रियों व नेताओं ने ढांढ़स बंधाया तब कहीं जाकर मामला संभला। रोने के इस समाचार को राज्य के लगभग सभी समाचार पत्रों और कुछ राष्ट्रीय स्तर के खबरिया चैनलों ने भी तवज्जो दी।

अभी रोहाणी जी का रोना हुआ ही था कि आज फिर एक खबर आई कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जी के सुपुत्र और मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री अजय सिंह उर्फ राहुल भैया के अश्क भी बेकाबू हो गए थे। वो भी अठारह साल पुरानी एक घटना को याद करके।

लेकिन साहब, क्या वाकई ये नेता इतने ज्यादा संवेदनशील होते हैं कि इन्हें ऐसी बातों से रोना आ जाए, जिनसे इनका सीधे-सीधे कोई लेना देना नहीं होता। यदि वाकई रोना आता होता हो तब आता जब भोपाल में गैस त्रासदी हुई थी, जिसमें हजारो बेकसूर लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। रोना आता तो गरीबी और असहाय लोगों को देखकर आता जिनके वास्ते इन नेताओं के पास योजनाओं का भंडार है, पर आजतक कितनी योजनाओं का लाभ पहुंचा है।

रोना तब आता जब ऐसे लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं और ये कैमरों के सामने मुस्कुराकर बत्तीसी दिखाते हुए कहते हैं कि जांच करवा लो। साबित हो जाए तब कहना। मानो चुनौती दे रहे हों कि करवा लो कितनी जांच करवानी है।

रोना तब आना चाहिए जब अपने हक की मांग कर रहे लोगों पर लाठीचार्ज होता है। इस तरह से कैमरे के सामने रोने वालों को कुछ और ही कहा जाता है। मेरा ख्याल है कि आप सभी ने घडियाली आंसुओं का नाम तो सुना ही होगा।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष या पूर्व पंचायत मंत्री ही कैमरे के सामने रोए हैं। देश में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जिन्होंने ऐसा किया है। पिछले ही वर्ष अप्रैल में उत्तरप्रदेश के बलिया में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह भी सभामंच पर ही फूट फूटकर रोने लगे थे। इसी साल फरवरी में सुषमा स्वराज ने कहा था कि उनको आज भी प्याज को देखकर रोना आता है, क्योंकि इसी प्याज की वजह से दिल्ली सत्ता से भाजपा को हाथ धोना पड़ा था। और तो और पिछले वर्ष सितंबर में उत्तरप्रदेश के रामपुर के दौरे पर पहुंची अभिनेत्री और सांसद जयाप्रदा को भी वहां के लोगों की हालत देखकर रोना आया था।


ऐसे ही बाबरी मस्जिद ढहाने के मुद्दे पर कल्याण सिंह भी आंसू बहा चुके हैं। उन्हें इस बात का दुख था कि उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में यह घटना हुई थी। हालांकि उन्हें यह बात समाजवादी पार्टी में शामिल होते वक्त ही याद आई थी। इसी प्रकार से जसवंत सिंह की आंखों से भी अश्क छलक चुके हैं।

लेकिन क्या रोने से सबकुछ ठीक हो जाएगा। ये राजनीति रुला रही है या राजनीति के लिए रोया जा रहा है। खैर ये बातें तो पुरानी ढपली पुराना राग हो चुकी हैं। क्योंकि हमारे नेता यदि वाकई इतने संवेदनशील होते तो भ्रष्टाचार इस कदर न पनपा होता। यहां पर यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि पाठकगण इसे राजनीति से प्रेरित न मानें, मन में था सो शब्दों के रूप में बाहर आ गया। बाकी हमारे पाठक समझदार हैं। वो जानते हैं कि नेता कब और क्यों रोते हैं।

रोने की राजनीति

कल एक खबर देखने और पढ़ने में आई कि मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी जी सदन में आचरण और टिप्पणी से परेशान होकर रो दिए। उन्हें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कई दूसरे मंत्रियों व नेताओं ने ढांढ़स बंधाया तब कहीं जाकर मामला संभला। रोने के इस समाचार को राज्य के लगभग सभी समाचार पत्रों और कुछ राष्ट्रीय स्तर के खबरिया चैनलों ने भी तवज्जो दी।

अभी रोहाणी जी का रोना हुआ ही था कि आज फिर एक खबर आई कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह जी के सुपुत्र और मध्यप्रदेश के पूर्व मंत्री अजय सिंह उर्फ राहुल भैया के अश्क भी बेकाबू हो गए थे। वो भी अठारह साल पुरानी एक घटना को याद करके।

लेकिन साहब, क्या वाकई ये नेता इतने ज्यादा संवेदनशील होते हैं कि इन्हें ऐसी बातों से रोना आ जाए, जिनसे इनका सीधे-सीधे कोई लेना देना नहीं होता। यदि वाकई रोना आता होता हो तब आता जब भोपाल में गैस त्रासदी हुई थी, जिसमें हजारो बेकसूर लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। रोना आता तो गरीबी और असहाय लोगों को देखकर आता जिनके वास्ते इन नेताओं के पास योजनाओं का भंडार है, पर आजतक कितनी योजनाओं का लाभ पहुंचा है।

रोना तब आता जब ऐसे लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं और ये कैमरों के सामने मुस्कुराकर बत्तीसी दिखाते हुए कहते हैं कि जांच करवा लो। साबित हो जाए तब कहना। मानो चुनौती दे रहे हों कि करवा लो कितनी जांच करवानी है।

रोना तब आना चाहिए जब अपने हक की मांग कर रहे लोगों पर लाठीचार्ज होता है। इस तरह से कैमरे के सामने रोने वालों को कुछ और ही कहा जाता है। मेरा ख्याल है कि आप सभी ने घडियाली आंसुओं का नाम तो सुना ही होगा।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष या पूर्व पंचायत मंत्री ही कैमरे के सामने रोए हैं। देश में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जिन्होंने ऐसा किया है। पिछले ही वर्ष अप्रैल में उत्तरप्रदेश के बलिया में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह भी सभामंच पर ही फूट फूटकर रोने लगे थे। इसी साल फरवरी में सुषमा स्वराज ने कहा था कि उनको आज भी प्याज को देखकर रोना आता है, क्योंकि इसी प्याज की वजह से दिल्ली सत्ता से भाजपा को हाथ धोना पड़ा था। और तो और पिछले वर्ष सितंबर में उत्तरप्रदेश के रामपुर के दौरे पर पहुंची अभिनेत्री और सांसद जयाप्रदा को भी वहां के लोगों की हालत देखकर रोना आया था।


ऐसे ही बाबरी मस्जिद ढहाने के मुद्दे पर कल्याण सिंह भी आंसू बहा चुके हैं। उन्हें इस बात का दुख था कि उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में यह घटना हुई थी। हालांकि उन्हें यह बात समाजवादी पार्टी में शामिल होते वक्त ही याद आई थी। इसी प्रकार से जसवंत सिंह की आंखों से भी अश्क छलक चुके हैं।

लेकिन क्या रोने से सबकुछ ठीक हो जाएगा। ये राजनीति रुला रही है या राजनीति के लिए रोया जा रहा है। खैर ये बातें तो पुरानी ढपली पुराना राग हो चुकी हैं। क्योंकि हमारे नेता यदि वाकई इतने संवेदनशील होते तो भ्रष्टाचार इस कदर न पनपा होता। यहां पर यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि पाठकगण इसे राजनीति से प्रेरित न मानें, मन में था सो शब्दों के रूप में बाहर आ गया। बाकी हमारे पाठक समझदार हैं। वो जानते हैं कि नेता कब और क्यों रोते हैं।