Tuesday, March 25, 2008

एक उत्तर-भारतीय की भावनाएँ कविता के माध्यम से

पराये हैं,
ये तो मालूम था हमको
जो अब कह ही दिया तूने
तो आया सुकूं दिल को

शराफत के उन सारे कहकहों में
शोर था इतना
मेरी आवाज़ ही पहचान
में न आ रही मुझको

बिखेरे क्यों कोई अब
प्यार की खुशबू फिज़ाओं में
शक की चादरों में दिखती
हर शय यहाँ सबको

बढ़ाओं आग नफ़रत की
जगह भी और है यारों
दिलों की भट्टियों में
सियासत को ज़रा सेको

सड़क पे आ के अक्सर
चुप्पियाँ दम तोड़ देती हैं
बस इतनी खता पे
पत्थर तो न फेंकों

(एक ब्लॉगर मित्र की रचना जिसमें उन्होंने कविता के जरिए अपना मत रखा है। उम्मीद है आप भी इनसे इत्तेफाक रखेंगे।)
स्वप्रेम तिवारी
khabarchilal.blogspot.com

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