असहिष्णुता और अभिव्यक्ति दो ऐसे शब्द हैं, जिन्होंने पिछले दो वर्षों में हमारे देश में काफी ख्याति पाई है। ऐसी ख्याति जो पूरी दुनिया में चर्चित हुई। कभी धर्म के नाम पर तो कभी बोलने के नाम पर असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की बात की गई। यह तो सच है कि हमारे संविधान ने बोलने की स्वतंत्रता दी है, लेकिन इसकी आड़ में आप किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाएं, या मानहानि करें तो क्या इसे सही कहा जाएगा। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आप पाकिस्तान जिंदाबाद कहें तो क्या यह सही है। अफज़ल गुरु एक ऐसा शख्स था, जिसने देश की संसद पर हमले की साजिश में आतंकियों की मदद की। उसे देश की सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई थी।
तो, जो लोग उसकी मौत पर ग़म मना रहे हैं या फिर इसे अन्याय कह रहे हैं, उन्हें क्या माना जाए। यहां पर मैं धर्म या जाजि की बात नहीं कर रहा हूं। मैं एक घटना की बात कर रहा हूं।
मेरा एक सवाल है सहिष्णुता और अभिव्यक्ति के झंडाबरदारों से, कि क्या वो लोग कभी पाकिस्तान जाकर सरबजीत की मौत के लिए पाकिस्तानी सरकार का विरोध करेंगे। क्या उस क्रिकेट प्रेमी के समर्थन में रैलियां निकालेंगे, जिसे केवल इसलिए पाकिस्तान ने जेल में डाल दिया क्योंकि वो विराट कोहली का फैन है और उसने अपने घर की छत पर तिरंगा फहरा दिया था।
क्या अमेरिका में जाकर ओसामा बिन लादेन की हत्या के लिए अमेरिकी सरकार और फौज के खिलाफ रैलियां, आंदोलन और भाषणबाजी करेंगे। अगर वो ऐसा भी करते हैं तो निश्चित तौर पर हर भारतवासी दिल से उनका समर्थन करेगा।
लेकिन इस प्रकार की घटनाएं एक ऐसे देश में हो रही हैं, जहां अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसा करने की पाबंदियां कम हैं। क्योंकि जैसे ही उन पर कार्रवाई होगी, तो कई राजनीतिक दल उनका समर्थन करते हुए अपनी रोटियां सेकने के लिए पहुंच जाएंगे।
यह बेहद अफसोसजनक है कि हमारे देश के विश्वविद्यालय और कॉलेज पढ़ाई से ज्यादा नेतागिरी और राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं। इस स्थिति में तो भारत में कभी भी ऑक्सफोर्ड या एमआईटी जैसे संस्थान खड़े नहीं हो पाएंगे, क्योंकि वहां तो लोग पढ़ने जाते हैं और हमारे यहां नेता बनने के लिए। देश में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं, जो पूरे साल किसी न किसी मामले पर सुर्खियों में बने रहे हैं। कभी राजनीतिक नियुक्तियों की वजह से तो कभी बयानबाजी या फिर छात्रसंघ के नाम पर।
लगता है कि मानो अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि भारतीय शिक्षण संस्थान किसलिए बनाए गए हैं। ज्ञानार्जन के लिए या फिर राजनीति दलों को नए मुद्दे देने के लिए।
एक और सबसे मजे़दार बात। द वर्ल्ड यूनिसवर्सिटी रैंकिंग हर साल दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 100 शिक्षण संस्थानों की एक सूची जारी करती है, जिसमें भारत का एक भी संस्थान नहीं है। क्या किसी ने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि आखिर क्या वजह है कि उक्त सूची की टॉप 100 में भारतीय संस्थान क्यों नहीं हैं।
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई ताज़ा घटना से यह तो स्पष्ट है कि भारतीय शिक्षण संस्थान पढ़ाई से इतर किन वजहों से दुनिया में चर्चित हो सकते हैं। यह तो हम पर निर्भर है कि हम नेकी में नाम चाहते हैं या फिर बदी में। देश हमारा है और हमें ही इसके बारे में सोचना होगा। सियासी दल और सियासतदां तो केवल मुद्दे को उछालने का मौका तलाशते हैं, क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए यह जरूरी है, लेकिन हमारे लिए नहीं।
तो, जो लोग उसकी मौत पर ग़म मना रहे हैं या फिर इसे अन्याय कह रहे हैं, उन्हें क्या माना जाए। यहां पर मैं धर्म या जाजि की बात नहीं कर रहा हूं। मैं एक घटना की बात कर रहा हूं।
मेरा एक सवाल है सहिष्णुता और अभिव्यक्ति के झंडाबरदारों से, कि क्या वो लोग कभी पाकिस्तान जाकर सरबजीत की मौत के लिए पाकिस्तानी सरकार का विरोध करेंगे। क्या उस क्रिकेट प्रेमी के समर्थन में रैलियां निकालेंगे, जिसे केवल इसलिए पाकिस्तान ने जेल में डाल दिया क्योंकि वो विराट कोहली का फैन है और उसने अपने घर की छत पर तिरंगा फहरा दिया था।
क्या अमेरिका में जाकर ओसामा बिन लादेन की हत्या के लिए अमेरिकी सरकार और फौज के खिलाफ रैलियां, आंदोलन और भाषणबाजी करेंगे। अगर वो ऐसा भी करते हैं तो निश्चित तौर पर हर भारतवासी दिल से उनका समर्थन करेगा।
लेकिन इस प्रकार की घटनाएं एक ऐसे देश में हो रही हैं, जहां अभिव्यक्ति के नाम पर ऐसा करने की पाबंदियां कम हैं। क्योंकि जैसे ही उन पर कार्रवाई होगी, तो कई राजनीतिक दल उनका समर्थन करते हुए अपनी रोटियां सेकने के लिए पहुंच जाएंगे।
यह बेहद अफसोसजनक है कि हमारे देश के विश्वविद्यालय और कॉलेज पढ़ाई से ज्यादा नेतागिरी और राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं। इस स्थिति में तो भारत में कभी भी ऑक्सफोर्ड या एमआईटी जैसे संस्थान खड़े नहीं हो पाएंगे, क्योंकि वहां तो लोग पढ़ने जाते हैं और हमारे यहां नेता बनने के लिए। देश में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं, जो पूरे साल किसी न किसी मामले पर सुर्खियों में बने रहे हैं। कभी राजनीतिक नियुक्तियों की वजह से तो कभी बयानबाजी या फिर छात्रसंघ के नाम पर।
लगता है कि मानो अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि भारतीय शिक्षण संस्थान किसलिए बनाए गए हैं। ज्ञानार्जन के लिए या फिर राजनीति दलों को नए मुद्दे देने के लिए।
एक और सबसे मजे़दार बात। द वर्ल्ड यूनिसवर्सिटी रैंकिंग हर साल दुनिया के सर्वश्रेष्ठ 100 शिक्षण संस्थानों की एक सूची जारी करती है, जिसमें भारत का एक भी संस्थान नहीं है। क्या किसी ने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि आखिर क्या वजह है कि उक्त सूची की टॉप 100 में भारतीय संस्थान क्यों नहीं हैं।
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई ताज़ा घटना से यह तो स्पष्ट है कि भारतीय शिक्षण संस्थान पढ़ाई से इतर किन वजहों से दुनिया में चर्चित हो सकते हैं। यह तो हम पर निर्भर है कि हम नेकी में नाम चाहते हैं या फिर बदी में। देश हमारा है और हमें ही इसके बारे में सोचना होगा। सियासी दल और सियासतदां तो केवल मुद्दे को उछालने का मौका तलाशते हैं, क्योंकि उनके अस्तित्व के लिए यह जरूरी है, लेकिन हमारे लिए नहीं।