90 के दशक तक आम लोगों के लिए हाथ घड़ी का मतलब केवल एचएमटी हुआ करता था। लेकिन पिछले 20-25 वर्षों से मानो यह नाम कहीं खो गया है। पचास वर्षों तक लोगों की कलाई पर सजने वाली यह घड़ी अब इतिहास में दर्ज होने जा रही है।
भारत सरकार का भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम विभाग अब इस कंपनी को बंद करने के आदेश पर अंतिम मुहर लगाने जा रहा है। विभाग का कहना है कि एचएमटी पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से नुकसान में जा रही है।
नुकसान के लिए जिम्मेदार
एचएमटी ने 1961 में देश में घड़ियों का उत्पादन शुरू किया था। इसके लिए कंपनी ने जापानी की घड़ी निर्माता कंपनी सिटीजन से अनुबंध किया था। 1970 में एचएमटी ने सोना और विजय ब्रांड नाम के साथ क्वार्ट्ज घड़ियों का निर्माण भी शुरू किया था।
लेकिन यह कंपनी का यह कदम समय से काफी पहले लिया गया निर्णय साबित हुआ। दरअसल, उस दौर में भारत में महंगी घड़ियों के चुनिंदा खरीदार ही होते थे। इसलिए कंपनी का यह प्रयोग घाटे का सौदा साबित हुआ। जल्द ही कंपनी को अपनी गलती का अहसास हुआ और एचएमटी ने दोबारा मैकेनिकल घड़ियों का उत्पादन शुरू कर दिया।
1987 में दूसरी निजी कंपनियों ने भारतीय बाजार में क्वार्ट्ज घड़ियों को बेचना शुरू कर दिया। तब तक एचएमटी का पूरा ध्यान केवल मैकेनिकल घड़ियों पर ही था और इसी के संयंत्र लगाए जा रहे थे।
देश की एक नामी घड़ी निर्माता कंपनी के प्रबंध संचालक भास्कर भट्ट के अनुसार एचएमटी के पास सफलता की सारी कुंजियां थी। उनके पास ऐसे इंजीनियर्स की फौज थी, जो बेहतरीन तकनीक वाली घड़ियां बनाना जानते थे। उनका रिटेल नेटवर्क, सर्विस और वितरण तंत्र भी काफी मजबूत था। हालांकि प्रबंधकीय कमियों के चलते उनकी इस फौज के कई सिपाही दूसरी कंपनियों से जुड़ते चले गए।
भट्ट का कहना है कि एचएमटी की स्थिति रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल की तरह है। इसकी छवि देश की क्लासिक घड़ी निर्माता कंपनी की है। देश की कई पीढ़ियों ने एचएमटी की घड़ियां पहनी हैं। इसलिए यदि यह कंपनी दोबारा बाजार में आती है तो लोग जरूर हाथों हाथ लेंगे।
भारत के कलाई घड़ी बाजार में 1991 तक एचएमटी का एकतरफा बोलबाला था। तीन दशकों तक भारत में घड़ी का मतलब एचएमटी हुआ करता था और यही वजह थी कि कंपनी ने अपनी टैगलाइन 'देश की धड़कन' रखी थी। 1993 में आर्थिक सुधारों के दौर में भारतीय बाजारों को दुनिया के लिए खोल दिया गया और यहीं से एचएमटी का बुरा वक्त शुरू हुआ।
घड़ी से फैशन तक
विशेषज्ञों का कहना है कि बदलते समय के साथ एचएमटी बदल नहीं सकी। कंपनी ने यह समझने में देर कर दी कि घड़ी अब, केवल वक्त देखने के लिए नहीं, बल्कि फैशन के लिए भी पहनी जाती है।
एचएमटी के पूर्व सीएमडी एन रामानुजन के अनुसार के 1990 तक को सबकुछ ठीक था। इसके बाद कंपनी की श्रीनगर स्थित फैक्टरी बंद हो गई और 500 कर्मचारियों को बिना काम के ही तनख्वाहें देनी पड़ीं, जिससे एचएमटी की माली हालत खराब होने लगी। यहीं से बुरे वक्त की शुरुआत मानी जा सकती है। कंपनी ने सरकार के सामने कई योजनाएं रखीं, लेकिन उन्हें नहीं माना गया और घाटा बढ़ता चला गया।
वित्तीय वर्ष 2013-14 में कंपनी का घाटा बढ़कर 233.08 करोड़ रुपए हो गया था, जो 2012-13 में 242.47 करोड़ था।
एक नजर कंपनी की शुरुआत पर
भारत सरकार का भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम विभाग अब इस कंपनी को बंद करने के आदेश पर अंतिम मुहर लगाने जा रहा है। विभाग का कहना है कि एचएमटी पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से नुकसान में जा रही है।
नुकसान के लिए जिम्मेदार
एचएमटी ने 1961 में देश में घड़ियों का उत्पादन शुरू किया था। इसके लिए कंपनी ने जापानी की घड़ी निर्माता कंपनी सिटीजन से अनुबंध किया था। 1970 में एचएमटी ने सोना और विजय ब्रांड नाम के साथ क्वार्ट्ज घड़ियों का निर्माण भी शुरू किया था।
लेकिन यह कंपनी का यह कदम समय से काफी पहले लिया गया निर्णय साबित हुआ। दरअसल, उस दौर में भारत में महंगी घड़ियों के चुनिंदा खरीदार ही होते थे। इसलिए कंपनी का यह प्रयोग घाटे का सौदा साबित हुआ। जल्द ही कंपनी को अपनी गलती का अहसास हुआ और एचएमटी ने दोबारा मैकेनिकल घड़ियों का उत्पादन शुरू कर दिया।
1987 में दूसरी निजी कंपनियों ने भारतीय बाजार में क्वार्ट्ज घड़ियों को बेचना शुरू कर दिया। तब तक एचएमटी का पूरा ध्यान केवल मैकेनिकल घड़ियों पर ही था और इसी के संयंत्र लगाए जा रहे थे।
देश की एक नामी घड़ी निर्माता कंपनी के प्रबंध संचालक भास्कर भट्ट के अनुसार एचएमटी के पास सफलता की सारी कुंजियां थी। उनके पास ऐसे इंजीनियर्स की फौज थी, जो बेहतरीन तकनीक वाली घड़ियां बनाना जानते थे। उनका रिटेल नेटवर्क, सर्विस और वितरण तंत्र भी काफी मजबूत था। हालांकि प्रबंधकीय कमियों के चलते उनकी इस फौज के कई सिपाही दूसरी कंपनियों से जुड़ते चले गए।
भट्ट का कहना है कि एचएमटी की स्थिति रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल की तरह है। इसकी छवि देश की क्लासिक घड़ी निर्माता कंपनी की है। देश की कई पीढ़ियों ने एचएमटी की घड़ियां पहनी हैं। इसलिए यदि यह कंपनी दोबारा बाजार में आती है तो लोग जरूर हाथों हाथ लेंगे।
- लगभग ढाई दशक पहले तक परीक्षा में पास होने पर माता-पिता अपने बच्चों के तोहफे में एचएमटी की घड़ियां देते थे।
- शादियों में दूल्हे को घड़ी खासतौर पर एचएमटी देने का रिवाज था।
- दफ्तरों से रिटायर होने वाले कर्मियों को भी स्मृति चिन्ह के रूप में इसी ब्रांड की घड़ी दी जाती थी।
भारत के कलाई घड़ी बाजार में 1991 तक एचएमटी का एकतरफा बोलबाला था। तीन दशकों तक भारत में घड़ी का मतलब एचएमटी हुआ करता था और यही वजह थी कि कंपनी ने अपनी टैगलाइन 'देश की धड़कन' रखी थी। 1993 में आर्थिक सुधारों के दौर में भारतीय बाजारों को दुनिया के लिए खोल दिया गया और यहीं से एचएमटी का बुरा वक्त शुरू हुआ।
घड़ी से फैशन तक
विशेषज्ञों का कहना है कि बदलते समय के साथ एचएमटी बदल नहीं सकी। कंपनी ने यह समझने में देर कर दी कि घड़ी अब, केवल वक्त देखने के लिए नहीं, बल्कि फैशन के लिए भी पहनी जाती है।
एचएमटी के पूर्व सीएमडी एन रामानुजन के अनुसार के 1990 तक को सबकुछ ठीक था। इसके बाद कंपनी की श्रीनगर स्थित फैक्टरी बंद हो गई और 500 कर्मचारियों को बिना काम के ही तनख्वाहें देनी पड़ीं, जिससे एचएमटी की माली हालत खराब होने लगी। यहीं से बुरे वक्त की शुरुआत मानी जा सकती है। कंपनी ने सरकार के सामने कई योजनाएं रखीं, लेकिन उन्हें नहीं माना गया और घाटा बढ़ता चला गया।
वित्तीय वर्ष 2013-14 में कंपनी का घाटा बढ़कर 233.08 करोड़ रुपए हो गया था, जो 2012-13 में 242.47 करोड़ था।
एक नजर कंपनी की शुरुआत पर
- एचएमटी (हिंदुस्तान मशीन टूल्स) की स्थापना 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कहने पर की गई थी।
- उस वक्त घड़ी ब्रांड का नाम जनता रखा गया था, जिसने अपने उत्पादन काल में 115 मिलियन से भी ज्यादा घड़ियों का उत्पादन किया था।
- कंपनी मैकेनिकल घड़ी, क्वार्ट्ज घड़ी, महिलाओं के लिए कलाई घड़ी, ऑटोमैटिक घड़ी और ब्रेल घड़ी का उत्पादन करती थी।
- कंपनी की इकलौती घड़ी उत्पादन फैक्टरी कर्नाटक के तुमकुर में है, जिसकी प्रति वर्ष उत्पादन क्षमता 20 लाख घड़ियां थीं।
- एचएमटी की कंचन घड़ी का बाजार मूल्य 700 रुपए था, जबकि चोर बाजार में उसे 1000 रुपए तक में बेचा जाता था।